शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

आ चलके तुझे, मैं ले के चलूँ … !!



         जब  सहअस्तित्व और सौजन्यता के दायरे बढ़ते हैं,  तब-तब दिलों में सुकून बढ़ने के कारण  उत्पन्न होते ही हैं।  हम तेरे- मेरे के दायरों बाहर  निकले और सबको अपना माने यही सिखाती है सभी परम्पराएं , पर कभी- कभी उच्च परम्पराएं स्थापित तो कर लेते हैं, उन्हें ओढ़ तो लेते है ,  पर उन पर भरोसा एक पाई का भी नहीं होता , तब- तब कैसी भी भली विचारधारा हो वह बौनी ही साबित होती हैं। वह बाँझ ही रह जाती हैं। 

          जब हम भारतीय  किसी उच्च विचारधारा को रखने का दावा  करते हैं , तो विश्व हमारी तरफ देखने लगता हैं , अब कोई भली विचारधारा हो उसे  सीमाओं के दायरे में सिमटा कर नहीं रखा जा सकता हैं।  वैसा ही भारत भूमि का एक अति उच्च विचार और कामना हैं और वह हैं विश्व कुटुम्बकम की उदात्त भावना। 

           अब दुनिया में लगभग सारी  जगहों पर लोकतंत्र हैं , और यह  विश्व कुटुंबकम की  राह को आसान करने की   दिशा में बहुत बड़ा साधन हैं , लोकतंत्र में चुनने का अधिकार उसके प्राण हैं , और सभी को उस चुनाव के लिए अपने आप को प्रस्तुत करने का लोकतंत्र में अनमोल अवसर मिलता हैं , जब- जब भी और जितना- जितना भी,  हमारा लोकतंत्र इस भावना को बल देता हैं उतना-उतना,  इंसान-इंसान के बीच  सम्प्रदायों , जातियों , बिरादरियों , बोलीभाषाओं , उंच-नीच को लेकर बनी विषैली जड़ें कमजोर होती ही हैं।  

           यह खबर की अमेरिका में कोई भारतीयमूल का व्यक्ति वहाँ के मंत्रीपद  पर पहुंचा , हमारे अतिउच्च सिद्धांतों पर विश्व का विश्वास ही हैं ,  वस्तुतः यह भारतीयता को, उसके अति उच्च विचार विश्वकुटुंबकम को , सहस्तित्व के अप्रतिम  सिद्धांत को जमीं पर उरतने की  दिशा में एक महत्पूर्ण कदम मात्र हैं। 

         आगे अवसर हैं जब भारत केवल अतिउच्च सिद्धांतों की  बातें ही नहीं करेगा, वह अवसर मिलने पर इनको क्रियान्वित भी करेगा, यह होगा , क्योंकि भारत पर इनको जमीं पर उतारने  का बहुत बड़ा भार हैं , उसको बहुत बड़ी जिम्मेवारी हैं। 

          आओ,  हम हर वह  नन्हे से नन्हा  कदम उठाये जो सहस्तित्व और  सबको सहज अपना मान सके उस दिशा में जाता  हो । 

        बहुत हुई बातें , आओ अब हम  कर गुजरे, बातों से संतुष्टि मिलती तो कबकी  मिल चुकी होती , पर संतुष्टि मिलती है भली बातों  के क्रियान्वन से , जैसे थोड़ी बहुत मिली हमें इस खबर से की  अमेरिका में कोई भारतीय वहाँ के मंत्री पद पर पहुंचा। 


         अपने भले के लिए और साथ ही साथ  सबके भले के लिए आओ हम  अपने आप का आकलन करें और बस चल पड़े , सबको अपना कह सके उस राह  !!!  

बुधवार, 13 नवंबर 2013

ज़िन्दगी मेरे घर आना !!!


             मानदारी निहायत व्यक्तिगत सद्गुण हैं .... इसका प्रदर्शन दम्भ जागने का कारण होता हैं … और दम्भ से ईमानदारी के सद्गुण को ग्रहण लगता हैं।  ईमानदारी हर स्थिति में कारगर होती हैं … बस धैर्य कि कमी और शार्टकट की लालच हमें इस पर विश्वास से वंचित करती हैं … फलस्वरूप हम खिचड़ी ईमानदार बनकर रह जाते हैं … वस्तुतः दोगलापन यहीं से पनपता हैं।

              ईमानदारी की सीमाएं नहीं … यह शुरुआत में वाणी की ईमानदारी से शुरू होकर कर्म कि ईमानदारी और फिर विकसित होकर मनसा ईमानदारी तक जाती हैं।  ईमानदारी का प्रदर्शन क्यूँ नहीं होना चाहिए इसके मूल में वस्तुतः मन में दम्भ के विकसित होने के बीजों का अनायास पड़ जाना ही हैं। गांधीजी ने कभी भी अपनी ईमानदारी को सार्वजानिक रूप से प्रचारित या उसका बखान नहीं किया … फिर भी हम सभी उनकी इस खूबी को स्वीकार करते हैं … वस्तुतः ईमानदारी एक वैसा सद्गुण हैं जिसकी खुशबु हवा कि दिशा में ही नहीं आठो दिशाओं में बिना किसी प्रयास के सर्वत्र सामान रूप से फैलती हैं । ज़िन्दगी मेरे घर आना !!! 

               ईमानदारी का अनंत विकास सम्भव हैं … यहाँ तक की पैगम्बर मुहम्मद साहब से किसी ने पूछ कि मुसलमान किसे कहे, तो उन्होने सुझाया कि जो मुकम्मल ईमान को पा जाये वो मुसलमान हुआ। 

               ईमानदारी का सद्गुण हमें किसी को बेईमान कहने का अधिकार भी नहीं देता … क्यूंकि यह निहायत व्यक्तिगत गुण जो हैं। । किसी को बेईमान साबित करने के लिए समाज में कई व्यवस्थाएं हैं … और कुदरत कहे या ईश्वर या कोई नाम दें उनका अपना सटीक विधान भी हैं ही -- " जैसे कर्म ठीक वैसे फल " .... जिनमें कुदरत कुछ फल या कभी- कभी पुरे फल सामाजिक व्यवस्थाओं के ज़रिये दे देती हैं … कुछ फल समय पाकर पकते हैं … जो मिलना ही हैं … उनसे किसी दशा में छुटकारा नहीं।

             अब ईमानदारी जब व्यक्तिगत सद्गुण हुआ तो उसके फल खुद उसको धारण करने वाले को मिलते हैं … फिर भी उसके आसपास जिसका जितना दायरा हो लोग लाभान्वित होते ही हैं .... अब कोई ईमानदार हुआ और उसकी बात किसी ने नहीं मानी … तो इसे उसकी ईमानदारी की विफलता मान लेना सर्वथा गलत हैं … भाई " होनी" या नियति भी अपनी जगह हैं … और उस समय के हालत जिनको समाज कि दिशा , समाज कि सामूहिक सोच , समाज के सामूहिक कर्मशीलता की गति , समाज कि स्थितियां तय करती हैं … अगर उस समाज के पास उस समय कोई भला मानुस हुआ और उसके प्रभाव से कुछ स्थितियां और बिग़डने से बची तो यह हम पर उसका उपकार ही माने।

             भगवान् बुद्ध के समय उस समय के दो पड़ौसी देश आपसे में लड़ने के लिए पन्द्र्ह बार आमने सामने हुए थे और हर बार बुद्ध कि समझाइश पर युद्ध टाला गया था। .... और जब सोलहवीं बार फिर वे युद्ध करने पर उतारू हुए तब बुद्ध भी वहाँ उन्हें रोकने नहीं गए - शायद इसीलिए कि उस समय के समाज के सामूहिक कर्मों कि गति उसे उसी दिशा में ले जाने के लिए मज़बूर थी।

           हमने म. गांधी का कहा नहीं माना -- और बंटवारे को राजी हुए , इसमें बापू का भला क्या दोष ? , उनकी ईमानदारी का भला क्या विरोध ? , इसमें उनकी भला क्या विफलता ?

         सोचो उस मुस्लिम बहुल इलाके को हम उस समय के विकराल सांप्रदायिक वैमनस्य के बीच कैसे संभाल पाते भला , जबकि आज इतनी शिक्षा , इतने प्रोग्रेस के बाद भी हम सम्प्रदायवाद की विनाशकारी खरपतवार से आये दिन दो चार होते ही हैं। प्रेम से हिलमिल रहे इसकी समझ अब तक विकसित नहीं कर पाएं हैं। 

         हम यह माने कि उस समय जब देश आज़ाद हुआ जो हम सबके भले के लिए जो होनी थी वो ही घटित हुयी … अब हम दिखा दें की लोकतंत्र सम्प्रदायवाद से मुक्त रहकर ही अधिक टिकाऊ और सबल रह सकता हैं --- जबकि हमारे सामने इस तरह का उदाहरण भी है कि कोई राष्ट्र संप्रदाय कि नींव पर बना हो और वह हमसे अब तक अधिक पिछड़ा और संघर्ष रत हो। 

         आओ ईमानदारी से डरे नहीं उसे बस अपनाएं अपना समझकर। 

         केवल विरोध के लिए विरोध ना करें - धैर्य से आगे आगे बढे, धीरे - धीरे ही सही ईमानदारी को अपनाएं - एकदम चुपचाप - हौले हौले - असीम प्रेम से , अभूतपूर्व विश्वास से कि बेईमानी के फलों से ईमानदारी के फल कहीं अधिक भले होंगे ही।

                 ईमानदारी ही असल  जिंदगी हैं !!  और ज़िन्दगी मेरे घर आना। 

सबका भला हो !!!

सोमवार, 11 नवंबर 2013

" आप तो ऐसे ना थे "


      " आप तो ऐसे ना थे " इस फ़िल्म का यह बेहतरीन गीत हैं , इसे गाया हैं रफ़ी साहब ने और उस समय कि नयी गायिका हेमलता जी ने , बेहद सुरीली धुन में यह गीत बहुत हौले-हौले आगे बढता हैं, कहीं- कोई जल्द बाजी नहीं , कोई हड़बड़ाहट नहीं और ठीक यही भाव अभिनय में और फिल्मांकन में भी सटीक तौर पर उभरे हैं।

            हमारा मन विशेष तौर पर बस दो ही भावों में जीता हैं एक " नफ़रत " और दूसरा " मोहब्बत " , वहीँ मोहब्बत का भाव कुछ यूँ होता है की उसका नूर राहों को बेपहान रोशनी में नहा देता हैं , वहीँ नफ़रत का भाव अन्धकार फैलाता हैं। 

                मोहब्बत का भाव लिए हम कहीं जाएँ , किसी महफिल में खड़े हो , कहीं विराजे या अकेले ही क्यूँ ना हों कभी तनहा होने का जज्बा मन में घर नहीं करेगा। ऐसा इंसान फिर फरिश्तों की निगेहबानी में विचरण करता हैं, सबका साथ उसके साथ होता हैं। 

             आओ, 33 साल पुरानी फ़िल्म का यह सदाबहार गीत सुने , … शुभ-दिन , फिर मिलेंगे !!

 

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

वंशवाद !!!


          वंशवाद का विरोध हमें केवल घृणा सिखाता हैं … और वह भी उससे और केवल उस बात के लिए, जिसमें किसी वंश में जन्म लेना केवल संयोगवश ही होता है,  यह सब जानते हैं। 

      इस तरह हम आज जिस वंश में जन्म लिए हैं उसका भी जाने - अनजाने अपमान कर जाते हैं .... हमें किसी वंश में जन्म मिले यह उस वंश का हम पर उपकार ही हुआ और असीम उपकार हुआ … अब आगे अपनी-अपनी करनी और यॊग्यता के बल पर ही अवसर मिलेंगे … जो भला हैं वह आगे बढ़ता जायेगा … जो नहीं वह थोड़ी दूर चलकर रुक भी जायेगा। ।

                     देखते नहीं कितने ऊँचे वंशों में जन्मे भी उतना बिकास नहीं कर पाये जितना वे कर सकते थे … ऐसे कई उदाहरण हैं … और बड़े- बड़े वंशों के हैं  , इनमें सबसे बड़ा उदाहरण " गांधी " शब्द को सब कुछ मानने वाले और केवल इस शब्द का ही सब योगदान होता हैं, यूँ मानने  वाले या किसी  वंश में जन्म लेना ही कोई काबिलियत होती हैं,  यूँ मानने वाले यहाँ एक बात पर गौर करें ---

                   म. गांधी जी के सबसे बड़े सुपुत्र हरिभाई गांधी अपने पिता कि इतनी विशाल प्रसिद्धि के बावजूद उनके बराबर तो क्या उनके बिलकुल विपरीत हुए … कारण यह नहीं कि महात्मा गांधी जी ने उन्हें आगे बढ़ने से कभी रोका हो … म. गांधी के दूसरे  पुत्र भी हुए  जिनका हम नाम भी ठीक से नहीं जानते हैं … इसका मतलब यह भी नहीं कि वे काबिल नहीं रहे होंगे … पर हाँ हो सकता हैं सबकी अपनी- अपनी कर्मों की लेखी और वर्त्तमान कर्मों कि नींव भी अपनी- अपनी जगह रहती ही हैं। 

                    खैर कोई किसी से कितनी नफ़रत करें इसका कोई अंत नहीं … पर हाँ वास्तविक भला तो सद्भाव जगाकर ही होता हैं … जो जो काबिल हैं खूब आगे बढे … जो नकारा हैं वे पीछे रहने ही वाले हैं … कुदरत के इस नियम पर तो कम से कम भरोसा तो रहे। 

                  नफरत का विस्तार रुके ..... मन शांत हो … दिल बड़े हों 

                   कोई कितने ही बड़े वंश का हो … या हो निहायत छोटे वंश का -- कर्मों के फलों पर विश्वास रखे -- जैसे बीज वैसे फल -- जैसे कर्म वैसे फल -- और जैसे किसी बीज का फल जल्दी आता हैं , वह तुरंत मिलता हैं … और किसी बीज का फल काफी देर से आता हैं -- इस तरह हमारे अपने कर्मों के फल भी --- कभी तुरंत, तो कभी माध्यम देर से … और कभी- कभी काफी देर से समय पाकर आते हैं … कभी- कभी तो एक बार फल देकर रुक जाते हैं -- कभी- कभी बार- बार फल मिलते हैं --- और हाँ कभी- कभी तो जन्म जन्मान्तरों तक मिलते हैं।  आओ हम सभी अपने- अपने कर्मों पर नज़र रखे … भले कर्म करें , नफ़रत का कर्म नफ़रत के फल ही लाएगा और सद्भाव का कर्म वैसे ही सद्भाव रूपी फल लाएगा। 

                आओ इस अमूल्य और अतुलनीय नियम को केवल मान कर ही ना रह जाएँ … उस पर घोर विश्वास करके ही ना रह जाएँ -- अमल करें -- क्योकि अमल ही बीज बनते हैं --- और उन बीजों के ही तो फल ही तो आगे आना हैं। 

सबका भला हो !!!


बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

जब दुश्मन प्यारा लगे …


                गुस्सा और नफरत सहज खरपरवार - सी बिना विशेष प्रयास के हमारे दिलों में उग जाती हैं … या ऊगा दी जाती हैं … अब वह नफरत जायज हो या नाजायज नुकसान तो हमारा ही करती हैं … नफरत के कारण को मिटाने से आज तक दुनिया में कभी नफरत का नाश नहीं हुआ … 

              वस्तुतः नफरत के कारण को नहीं उसके फैलाव को रोकना होता हैं … और उसका फैलाव कोई रोके तो भला कहाँ रोके … फैलाव हमारे दिलों में होता हैं … उसे वहीँ रोके … हमारे अपने भले के लिए … और साथ ही साथ सबके भले के लिए। 

               कल सुना कोई अपने मित्रों की किसी गलती पर उनके प्रति नफरत में कई - कई साल जलता रहा … पर उसका भला अंततः हुआ अपनी नफरत पर विजय पाकर …. यह बड़ी बात हैं। 

                म. गाँधी पर छः बार हमले हुए … पांच बार उन्हौने अपने ऊपर हुए हमलों को नज़रअंदाज किया … और छटी बार अपने प्राणों की आहुति देकर सद्भाव और सौजन्यता की मिशाल कायम कर गए … वे अपने से नफरत करने वालों से नफरत करके पहली बार में ही मार दिए गए होते … यही कारण रहा की वे मरकर भी अजेय हैं।

                           हो सके तो बाकि सब करें नफरत किसी से ना करें ... सुने यह गीत भी कुछ यही कहता हैं --
  
     

सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

बातें हैं बातों का क्या ?


       १) इस तरह की भगदड़ वाली घटना और उससे भारी  जन-हानि पहली नहीं होती हैं , अनगिनत हैं  …. और हर तरह के सम्प्रदाय के पवित्र स्थलों पर हुई हैं  , और हर तरह की गुड गर्वर्नेन्स या बेड  गर्वर्नेन्स की सरकारों में हुई हैं  … यहाँ तक की विदेशों में भी हुई हैं  …

   २) और हर  घटना के बाद कोई सरकारों का इस्तीफा मांगता हैं , कोई प्रशासन को ठीक करता हैं  … कोई कोसता है  … कोई बचाव करता हैं  … कोई दुराव करता हैं  …. 

               ३) और हर घटना के बाद सबक सीखे जाते हैं  … और उनका पालन होता हैं  … और उन  सबकों को फिर नयी घटना की आगवानी के लिए भुला भी दिया जाता हैं  … और कभी कोई नया कारण  भी उत्पन्न हो जाता हैं  …. 

               ४) फिर भी जनता जागरूक हो , उसे अंध-विश्वासों से दूर रहना सिखाया जाय , उसे "  मन-चंगा तो कठौती में गंगा "  कैसे उतारे यह बताया जाय , कण -कण में भगवान् हैं , वह हर भले- बुरे , काले- गोरे , इन्सान के अन्दर हैं यह उसे जंचाया जाय   …. उसकी आस्था को विवेक की आँख दी जाय  …. यह काम जिसका हैं वह हर बार अन- चिन्हा  रह जाता हैं  ... वह हर बार सम्प्रदायों की ओट में छुप जाता हैं  … वह जो हो उसे आगे आना ही होगा  …. उसे जनता को अपने- अपने सम्प्रदायों में ठीक से सुशिक्षित करना ही होगा  …. अगर एसा होता हैं  …. तब मिनिमम गर्वनेंस की बात खुद- ब - खुद हो जाएगी  …. 

                 अन्यथा तेजी से बढती जानकारी के युग में समय रहते वह आगे नहीं आया तो फिर वह ओट में छुपा ही रह जायेगा -- अब बहुत देर तक अफवाहे , दुष्प्रचार , दुराचार , कुटिलता ,  पाखंड वह  चाहे कोई करें टिकेंगी नहीं उजागर होती ही जाएँगी  ।

               आशा हैं राम सबके भीतर जागेंगे  …. हमारे अन्दर का अन्धकार हमने  ही फैलाया हैं  … उसे हमें ही मिटाना होगा 

                सबका भला हों !!    … सुने यह गीत भला हैं  … और सारे  दिन ताजगी से भर देगा  … इस तरह की काबिलियत से लबरेज हैं    … 

                             
कसमें-वादें प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों  का क्या ? 

बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

वक्त तो लगता हैं !!




       देश आजाद हुआ … तब हम भारतीय ३२ -३५ करोड़ के आसपास थे , रोजगार, खाद्यान्न और सांप्रदायिक झगड़े टंटो की विकराल समस्या थी … पर भला हुआ इस पावन धरा पर मजबूत लोकतंत्र की गहरी नींव लम्बे आज़ादी के संघर्ष के दौरान पड़ चुकी थी … सांप्रदायिक झगड़ों और उनसे हुए अतुलनीय नुकसान से सांप्रदायिक सद्भाव का महत्त्व भली तरह उजागर हो चूका था … हिंदुस्तान ठोकरें खाकर अब ठाकुर " भारत " के नए अवतार में था … जिसके प्राण बना हमारा अतुलनीय खूबियों वाला संविधान !!

                  शुरूआती बीस- तीस साल तक भारत बड़े उद्योगों के सृजन में, और कृषि के विकास के कामों में भारत तल्लीन रहा … ताके उत्पादन के क्षेत्र में , रोजगार के क्षेत्र में और खद्यान्न के मामलों में हम आत्म - निर्भर हो सके , और इतिहास को हम देखें तो हमें विश्व का सहयोग भी मिला और हम सफल भी हुए ही। 

                    परन्तु अब भी पूंजीपति और बिचौलियों द्वारा आम जनता के परिश्रम का शोषण जारी था … और शुरुआत में जब हम संभल रहे थे शोषण पर एकदम से नियंत्रण स्थितियों के बिघड़ने का कारण बन सकता था … और देश समता और बराबरी के लिए खामोश लढाई लढता रहा । 

                    जब हम थोड़े संभले तो बारी आई सपनों के उडान भरने की और सबसे पहले हमें आकर्षित किया " कार " ने, फिर कार आई … इसके बाद धीरे-धीरे प्रगति करता भारत " अमर घर चल से निकल कर " कम्यूटर की दुनिया में प्रवेश कर गया … फिर दौर शुरू हुआ आर्थिक सुधारों का … यही से भारत ने उडान भरी महत्वाकांक्षी और बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के सम्यक और कल्याणकारी मंसूबों की दिशा में , जहाँ शोषित को उसके हक प्राकृतिक रूप से मिले ऐसी कोशिशें शुरू हुई … संचार के क्षेत्र में, आवास और संरचनात्मक ढांचे की बनावट के तेज काम इस महत्त्व के काम को उल्लेखनीय गति देते गए। 
                 बहुतेरे काम अभी भी होने हैं … लेकिन उचित अवसर जान सामाजिक आर्थिक प्रगति और शोषितों को उनके श्रम का उचित मुल्याङ्कन हो और शोषितों को उनके वाजिब हक मिले इस दिशा में मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा का अधिकार , चिकित्सा की सुलभता और, भूमि सुधार के उपाय और इन सबकी सफलता सुनिश्चित करने वाला " आधार " … उज्जवल भविष्य की वह गाथा लिखेगा कुछ दशकों में धुल से किस तरह कोई सुगन्धित फुल खिल उठता हैं यह दुनिया देखेगी  ...  हम कोरे विकास के कागज के असंवेदन शील और असुगंधित फुल बन कर ही ना रह जाएँ   … हमारे दिलों से दिल मिले।  

                पर भारत के पुनः अभ्युदय का विशेष प्रयोजन अभी कुछ साल और लगे पर यह होगा ही कि हम भारतीय उन ऊँचाइयों को छुए जिनके कारण भारत कभी " सोने की चिड़िया कहलाया " था। 

                वक्त तो लगता हैं … हालिया फोर लेन सड़कें जब हमें इठलाये … हम भारत के विकास की कहानी में पगडंडियों , कच्ची सड़कों और बैलगाड़ियों के योगदान को सिरे से ना नकारें … हम हमारे देश के छोटे से छोटे और बड़े से बड़े प्रयत्न को याद रखे … यादें हौसले देती हैं। 

                  नए परिंदे को उड़ने में वक्त तो लगता हैं … पर … वह उड़ेगा और उन्मुक्त आकाश हमारा ही हैं … और भारत विश्व कल्याण के भार से भारित भी है ही।



सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

फल देगा भगवान् … !!

       किसने बनाया इस देश की बहुसंख्य जनता को अंधभक्त ?

 … इस देश की जनता को सम्प्रदायों ने ही अंधभक्त बनाया है   … सम्प्रदायों के गर्न्थों की सांकेतिक भाषाओँ और फिर उन सांकेतिक भाषाओँ के व्याख्याकारों ने इस कमी का बहुत फायदा उठाया  ….  सांप्रदायिक ग्रंथों की भाषा का सांकेतिक होना , और जनभाषा में उनका ना होना उसके व्याख्या कारों  के लिए  एक बहुत अच्छा अवसर साबित हुआ  …. भले और कल्याणकारी ग्रंथों की उसने व्याख्याकारों ने मन माफिक व्याख्या की   … जनता को स्वर्ग और नरक के मायाजाल में उलझाया  … और फिर हद तो तब कर दी जब उन्हौने " भगवान् "  को रचा और लगे हाथ यह आश्वासन भी दिया की बस भगवान् को खुश करने का तरीका मुझ से सिख लो , और फिर निश्चिन्त हो जाओ , कितने ही पाप करो तुम्हारे स्वर्ग की टिकिट  पक्की हैं।

              स्कुल कालेजों की शिक्षा लोगों में अंधभक्ति मिटाती  तो आज बड़ी तादाद में पढ़े लिखे लोग इन बाबाओं की तरफ आकर्षित नहीं होते या उनके जाल में फंसते नहीं , या उनका अनुचित बचाव भी करते नहीं।

             मेरे विचार से " जैसे कर्म वैसे फल " यह हर संप्रदाय की भली और कल्याणकारी  सीख  हैं  … इस सीख  को लोगों में खूब प्रचारित करना चाहिए   …. और हमें अपने लोक व्यवहार इस अमिट  , अटल सिद्धांत के मद्देनज़र ही  करना चाहिए।  

…           देखिएगा,  बाबा फिर यूँ गायब हो जायेंगे जैसे कभी हुए ही ना हो !!!


               आने वाला वक्त इसी बात का हैं " हिन्दुस्तान अपनी करनी और कथनी के अंतर को कम करेगा  … वह इसी तरफ अग्रसर हैं  … दुनिया खूब जानती हैं  … हम बहुत भली बातें करते हैं  … पर उनका पालन नहीं करते   ….

            दुनिया हमारी भली बातों  को हमारे कर्मों से परखेगी  … और यह हमारी जवाबदारी हैं  …और दुनिया में सबसे पुरातन संस्कृति होने  का दंभ भरने के कारण  हमारा कर्तव्य भी  हैं  … भारत के नाम के अनुरूप हम पर भारत के   पुनराभ्युदय  के साथ यह बहुत बड़ा भार भी हैं  ….  हम उस भार से भारीत  हैं  … जिम्मेवार हैं।

                                            सबका भला हो !!!

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

वो शाम … !!!

                 मन में कहीं भरोसा या कहे एतबार हो तो कई बातों के मायने ही बदल जाते हैं … और आने वाले वक्त के प्रति भरोसा ना रहे तो फिर कई भली बातें भी निराशा का फैलाव रोके नहीं रोक पाती हैं … और निराशा का सागर फिर अपने किनारों पर वो तबाही मचाता हैं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती हैं।


              हमें तो बस हर किसी की मुस्कराहट में , खिली हुई सी हंसी में आने वाले वक्त के मंगल सन्देश ही दिखें जब की हौले-हौले भलाई अपना राज स्थापित कर ही रही होती हैं। 

                जीवन की गाड़ी हमेशा एक-सी सामान सपाट राहों पर कब दौड़ी हैं ? … पर हर मोड़ पर आगे आने वाले मंज़र के बारें में खुशफहमियां ही वक्त की रफ़्तार को सुगम बनाती हैं … इस कोशिश में मन वो ताकत हासिल कर चूका होता हैं की भले कोई दुर्गम चढ़ाई क्यूँ ना आये वह कब उसे पार कर लेता हैं , पता ही नहीं चलता।

                हर शाम एक सी रहती है … बस मन की संवेदनशीलता ही तो बदलती हैं … और उन मन की संवेदनाओं पर हमारा कहाँ नियंत्रण रहता हैं … बस नियंत्रण तो उन पर हमारी की जाने वाली प्रतिक्रिया पर ही रखना होता हैं … और यूँ हौले हौले जीवन नैया आगे बढ़ती हैं। 

                  लताजी की आवाज़ में यह गीत किशोर -दा को श्रद्धांजलि हैं … और आज लता जी भारत- रत्न सी होकर हमारे बीच है ही … उनकी पावन उपस्थिति को नमन और उनके लिए मंगल कामनाएं।

               वो शाम भी कितनी अजीब थी जब भारत और पकिस्तान का बंटवारा हुआ था   … पर कभी किसी पाकिस्तानी ने क्या खूब कहा था  … बंटवारा ठीक से नहीं हुआ हमें नूरजहाँ मिली …. पर भारत को म. गाँधी  मिले और मिली लता जी।  … और होता भी यही हैं जहाँ सद्भाव रहे ,  घर के बड़े बुजुर्ग भी स्वभावतः वहीँ  रहना पसंद करते हैं।

                   आओ हम सद्भावना और सौजन्यता को बढ़ाये … हिलमिल रहे !!!

सोमवार, 9 सितंबर 2013

आकाश तुम्हारा हो ….

         उस दिन शाम को घर लौटा तो बेटी बोली - पापा वो अपने घर में हैं … देखों उसे हम उठा कर भीतर ले आये …. श्रीमती दरवाजे पर कड़ी थोड़ी चिंतित दिखी 


          उस दिन जाने क्या हुआ पता नहीं … पर हमारे घर के उजाल-दान में बना कबूतर का घोसला और उसके दो नन्हे बच्चे नीचे फर्श पर गिर पड़े … उनमें एक तो थोड़ी देर तड़प कर चल बसा … पर दूजा मेरे आने तक संघर्ष कर रहा था। 

      पत्नी अधीर हो रही थी … कह रही थी कुछ करो , इसे बचाओ … मैंने देखा कबूतर का नन्हा बच्चा बड़ा कमजोर था … उसे कैसे संभाले सूझ नहीं रहा था …. उधर कबूतर - कबूतरी का जोड़ा भी बैचेन था … मैंने हथियार डाल दिए … मैंने कहा बच्चा इतना नाजुक है की उठाने से मर ही जाये … और इसे रखु कहाँ … इनका घोंसला भी तो अब नहीं रहा। 

                  फिर मैं उठा सोचा कोशिश करने में क्या जाता हैं …. पुराने मुलायम कपड़ों से किसी तरह मोड़ -माड कर गोल -वोल करके एक घोंसले नुमा बनाया और आहिस्ता से उस नन्हे बच्चे को उसी उजाल - दान में रखा और नीचे आ गया। 

            सबसे कह दिया … अगर वह कबूतर-कबूतरी का जोड़ा उस नन्हे के पास आ गया तो यह बच जायेगा … देखा थोड़ी देर बाद वे आ गए अपने नन्हे के पास … आज सात दिन हुए वो नन्हा कबूतर का बच्चा अब थोडा संभल गया हैं … टुकुर-टुकर दुनिया निहार रहा हैं … सब कुछ ठीक रहा तो कुछ और दिन हमारी मेहमानवाजी का मौका देकर खुले आकाश को नापने बाहर निकल पड़ेगा। 

                        हमारे पुण्य में यह कबूतर का नन्हा बच्चा भी भागीदार हो … उसका भला हो !!

सोमवार, 2 सितंबर 2013

जय हे !!!

जागे मंगल प्रेरणा !!!

         भारतीय आम जनता की भूख , बेबसी , और काम नहीं होने की लाचारी का फायदा अब तक हमारे देश में अगड़ों ने , सक्षम लोगो ने हर बार उठाया हैं , …. देश ने भूख , बेबसी , और काम नहीं होने की लाचारी को खाद्य सुरक्षा से , शिक्षा के अधिकार से , और मनरेगा से भली तरह से निपटने के हथियार की तरह देखा हैं …. और आज खाद्य सुरक्षा का अधिकार संसद के दोनों सदनों में बहुमत से मान्यता प्राप्त कर गया हैं … अब देश की प्राथमिकता कमजोर और अक्षम वर्ग के जीवन की मुश्किलों को और अधिक प्रभावी तरीके से आसान बनाने की हैं। 

              मेरी शुभ -कामना हैं गरीबों , दबे कुचलों और असहायों का शोषण रुकने से उनके हौसलों को बहुत बल मिलेगा और उनकी क्षमताओं और प्रतिभाओं का देश की मुख्य धारा को अपार सहारा मिलेगा … और उनके सहज उत्थान से देश की उन्नति में उनकी भागीदारी असरदार और अभूतपूर्व होगी। 

… जय हे , जय जय जय , जय हे !!!!

बुधवार, 21 अगस्त 2013

सीधी बात ... !!!

         सभी ठगोरी विद्याएँ  …. येन केन प्रकारेण चलती रहेंगी   … कुछ बहुत स्वस्थ ठंग  से ताकि कोई शक ना हो   … और कुछ बहुत ठीले- ठाले तरीके से भी की लोगों में उजागर होती रहे   … ठगोरे  फंसते रहे  … और नासमझ उलझते रहे।  

       आज कोई नज़रों में खला हैं कल कोई और खलेगा   … आज किसी ने ठगा हैं कल कोई और ठगेगा। 

      दरअसल लोगों के इन बाबाओं के  चक्कर में उलझने की जड़ हैं कि  हम  कर्म के सिद्धांत  को समझना नहीं चाहते … हम अपने महान  ग्रन्थ गीताजी  को भी केवल पुजते हैं     … उसका मर्म समझना नहीं चाहते  … इसी तरह अन्य  सम्प्रदायों के ग्रंथों में भी   … सभी जगह कर्म  और उसके फलों का सिद्धांत प्रतिपादित हैं ही   …. इसी एक मायने में सभी संप्रदाय एक हैं। 

               सीधी बात हैं " जैसे कर्म ठीक वैसे फल "  अब यहाँ चतुराई से यह जोड़ा गया और शायद बहुत समझदारी से यह जोड़ा गया की भले कर्म करोगे तो स्वर्ग मिलेगा    …. और बुरे कर्म करोगे तो नर्क  मिलेगा।   यहाँ  तक भी सब ठीक  था   … पर आगे चलकर सम्प्रदायों के ठेकेदारों ने यह भी जोड़ा की कर्म के फलों में कोई चेंज कर सकता हैं तो वह उपरवाला / भगवान् कर सकता हैं   …. और उसे कैसे पटाया जाय  यह हम बताते हैं   … और कौन नहीं चाहेगा की यह उपाय ना अजमाए  …. बस यही आकर कर्म के सिद्धांत के ठीक विपरीत चलने का जुगाड़ हो गया   … और सज गयी दुकानें कुछ पाश भी , कुछ कामचलाऊ भी। 

                हम समझना नहीं चाहते की कोई हमारी केवल चमचागिरी ही करें   … और हमारे कहे अनुसार  जरा भी न चले  , तो हम  उसे पसंद नहीं करते   … और यह खूब समझ बैठे हैं की उपरवाले को हम उसकी वंदना , आरती  , भेंट , पूजा , बलि , इत्यादि ( कोई नाम दो ) से  खुश कर लेंगे  … नितांत असंभव हैं भाई   …. जिस तरह हम भेदभाव को पसंद नहीं करते उस तरह उपरवाला भी भेदभाव नहीं करता   … जैसे कर्म ठीक वैसे फल ठिका  देता हैं  … वह भी बिना हेरफेर के   … बिना देर के !!!   

                 हम यह जिस दिन तहे- दिल से मान लेंगे की हमारे कर्म ही हमारे सच्चे बंधू हैं , हमारे कर्म ही हमारे सच्चे तारक हैं   …. उस दिन हमारे कदम  सन्मार्ग पर तीव्रता से उठेंगे ही लगेंगे !!

कर्म हमारे बंधू हैं , कर्म हमारे मीत ,
चलें कर्म की रीत  ही , रहे धर्म से प्रीत।।  

सबका भला हो !!! 

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

एक तेरे कारण ...

            ज हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना साहब की पहली बरसी हैं … सिनेमा का वह दौर जब राजेश खन्ना का सितारा उदय हो रहा था सचमुच में हिंदी सिनेमा का स्वर्णिम युग था … एक जादू की तरह उनका असर उस समय के भारतीय जन -मानस पर असर छा गया था … सिनेमा की गतिविधियाँ उस समय में उनके इर्द-गिर्द सिमट कर गयी थी …

                 आज के दादा - दादी , मौसा -मौसी , काका- काकी , मामा- मामी और पापा -मम्मी किसी से  पूछ लो … उनकी बात चलते ही आँखों में चमक भर कर कुछ ना कुछ जरुर सुनायेंगे … और नहीं तो कम से कम उनका कोई यादगार गीत गुनगुनायेंगे जरुर …

                उस वक्त तक आजाद हुआ हिन्दुस्तान जिम्मेवार तो बन गया था पर रोमांटिक कैसे हुआ जाएँ , यह उसने काका याने राजेश खन्ना जी के साथ सीखा  … 

                कौमी एकता , सामाजिक तानेबाने , संजीदा प्यार की कहानियाँ , सामाजिक कुरीतियाँ सभी विषयों पर बनी उस समय की फिल्मो में रोमांस का तड़का जरुर लगता रहा … लोग झूम- झूम उठे … सहज अभिनय , औसत कद-काठी और चेहरा -मोहरा जैसे उस समय के सामान्य भारतीय का प्रतिनिधित्व करता था ... और राजेश खन्ना साहब की फिल्मो का असर उन पर फिल्माएँ गीतों का असर आज कल के युवाओं में भी कम नहीं हैं ... वे भी अचंभित होते हैं जब उस दौर के गीतों और फिल्मों को देखते हैं ... 

             उस युग को सलाम , उस वक्त को सलाम और सलाम राजेश खन्ना साहब जैसी शख्सियत को ...एक तेरे कारण ... यह संभव हुआ !!! 


 

शुक्रवार, 28 जून 2013

अहो नेता ... !!!

              म. गांधीजी के पास दो चीजें थी " रीति और नीति " और इनको धरातल पर उतारने के लिए थी तीसरी अत्यंत महत्वपूर्ण चीज भी थी .. और वह थी .. " प्रतीति " याने अनुभवजन्य ज्ञान ... और इसी अनुभवजन्य ज्ञान ( आध्यात्मिक ज्ञान ) के बल पर वे देश काल की सीमाओं से परे आज सारे विश्व में जाने और समझे जाने वाले भारत भूमि के एक मात्र नेता हैं ... और भी कई नेता हुए हैं हमारे देश में , पर वे प्रदेश या बहुत हुआ तो देश की सीमाओं से परे नहीं जाने जा सके ... 


                किसी के पास अच्छी नीति होती हैं , तो किसी के पास भली रीति होती हैं ... पर प्रतीति सबके पास या तो होती नहीं या होती भी है तो आधी अधूरी ... वस्तुतः प्रतीति में रीति और निति का समावेश बहुत खूबसूरती से हो जाता हैं ... फिर भली नीति या समुचित रीति की चिंता नहीं करनी पड़ती हैं ... प्रतीति इन दोनों का धरातल पर अवतरण बड़ी सुगमता से कर देती हैं ...


             भारत जब भी विश्वगुरु था इसी प्रतीति के बल पर था ... और आगे भी जब भी विश्व गुरु कादर्जा पायेगा इसी प्रतीति को आगे करके ... भारत के पुनः अभ्युदय में निहित विश्वकल्याण के मंगल भावों की मानो म. गांधीजी ने जैसे आगे बढकर आगवानी की थी ... 


                उनकी इसी उदात्त भावनाओं का ही असर था कि उनकी मृत्यु पर सारा विश्व स्तब्ध हो गया था ... और उनकी हस्ती के आगे बिना औपचारिकता के नतमस्तक भी ... संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय में उस दिन झंडा झुक गया था ... बिना इसका विचार किये की म. गांधीजी कोई राजनयिक नहीं थे ... किसी देश के राष्ट्रपति नहीं थे ... प्रधानमत्री नहीं थे ... और ना ही थे किसी संप्रदाय के नेता ... न कोई समाजसुधारक ..ना विश्व विजेता ...


वस्तुतः वे सही मायनों में "नेता" थे ... 

बुधवार, 12 जून 2013

कुछ तो लोग कहेंगे .. !!!


            कुछ लोग सत्य पर बड़ा पत्थर रखकर उसे फिर तलाशते हैं ... और इस प्रयास में किसी दुसरे सत्य से जो की पहले सत्य के नीचे दबा हैं ... उसे ऊपर लाकर सत्य -सत्य के बीच भेद पैदा करके फिर खुद भी परेशां होते हैं ... और नाहक भ्रम पैदा करके फिर मज़े लेते हैं ... इसे सही शब्दों में कहे तो " फुट डालों और राज करो " ....की सड़ी -गली नीति ...


              फिर भी अगर किसी को इस क्रिया से रत्ती भर भी सुख या चैन मिले या मिला हो तो बेशक इसे जारी रखे ... पर हम सब जानते हैं ,  यूँ होता नहीं ....दूसरों को बांटकर,  बांटने वाला कब साबुत रह पाता हैं ... दूसरों को बांटने से पहले हम स्वयं बंट जाते हैं .... 

                सकारात्मकता के विरोधी दोगुनी मेहनत करते हैं ... 90 % मेहनत उनकी निंदा में जाती हैं ... 10 % वे खुद की तर्ज पर विकसित सकारात्मकता को जमीं पर उतरने में खर्च करते हैं ... और इस उहापोह में मात्र 5-6 % ही नतीजे उनके पक्ष में आते हैं ... और वह भी जब उनके भाग में कोई सद्पुरुष किस्मत से उनके साथ जुड़ता हैं तो ... या जुड़ा रह जाता है तो ... 

             वैसे नकारात्मकता से कभी - कभी कोई सद्पुरुष तो जुड़ते हैं या जुड़े है  ... पर बंजर जमीं उनकी उत्पादकता को जज्ब कर जाती हैं ....66 / 6 साल मिलना इसका उत्कृष्ट और उजाला नमूना हैं ... और उस गोत्र का एक मात्र सद्पुरुष शिखर तक पहुंचा वह भी अपनी भलमनसाहत के बल पर ... फिर भी नकारात्मकता इतनी सर पर हावी हो जाती है की बार-बार के स्पष्ट नतीजों पर भी उसका " शक " करना जारी रहता हैं ... जैसे जुआरी ... बखूबी जनता है की वह जुआ खेलकर धनवान नहीं बन सकता ... या आज तक जुआ खेलकर कोई धनवान नहीं बना ... फिर भी तेज गति नतीजों की लालच में वह कब मानता हैं ... नहीं मानता ना .. ?

               इसी क्रम में लाल बहादुर हों , सरदार पटेल हों उनके आदर्श तो म. गांधीजी ही रहे अब किसी के आदर्श और उसमें फर्क के बीज बोना यह दर्शाता है की जो उसके आदर्शों का ही क़त्ल कर सकता हैं वह उसका भी कब कर बैठे यह सन्देश तो जाता ही हैं ना ... और यहीं आकर नकारात्मकता की अतुलनीय  मेहनत हमेशा बेकार जाती हैं ... हाथ कुछ नहीं मिलता ... लोग यूँ ही नहीं बंजर भूमि को छोड़ देते हैं ... वर्ना जमीं तो जमीं हैं ... 

              जब हम विकार ग्रस्त होते हैं तो दूसरों की विकारहीनता को महसूस नहीं कर सकते .... एक और उदहारण से समझे .... लोहा- लोहा होता हैं ... भारत का हो या अमेरिका का ... हम  जानते ही है ,  अमेरिका या इतर यूरोपीय देश धातुओं की शुद्धता के लाभ लेना आज से नहीं सदियों से जानते हैं ...... और आज से नहीं सदियों से वह इस तकनीक को अपना कर अपना सामान बनाते हैं और विश्व को बेंचते हैं ... जबकि भारत के पास लोहा बहुत होकर भी वह कुछ खास नहीं कर पाता हैं ... शुद्दता मायने रखती हैं ... भारत ने मन की शुद्धता और उसके प्रयोगों को अपना लक्ष्य बनाया था ... म. गांधीजी के पास भी यह तकनीक थी ... वे भी इस राह के राही थे ... और तभी उन्हें स्थायी और उजली हस्ती के रूप में आज भारत से ज्यादा विश्व जानता हैं ...

शुक्रवार, 7 जून 2013

प्रकाश का विकास ...


              भौतिक विकास तो अंतहीन हैं ... मनुष्य को अपनी सुख - सुविधाओं की अंतहीन लालसा होती हैं ... उसे मिलने वाली हर नयी सुविधा को वह लाजवाब बोलता हैं ... और तत्क्षण पीछे मिली सुविधा को हिकारत की नज़र से देखने से भी नहीं चुकता ... कई बार तो नयी सुविधा देने वाला मानव ही अपना माल बेचने के चक्कर में पुरानी सुविधा को नाकारा साबित करता हैं ... 

                      यूँ करना व्यापार की नज़र से सही भी हैं ... पर मानव मन में असंतोष के बीज खूब गहरे बो जाता हैं ... अब सवाल फिर मुंह बाये खड़ा हैं की फिर क्या करे ? ... विकास को नकार दें ... और अविकसित और जाहिल बनकर जीवन जिए ...!!! 

                      नहीं .. नहीं .. मेरा आशय यूँ भी नहीं हैं ...जब जितना - जितना जरुरी हो उतना विकास जरुर हो पर हाँ हम विकास के गुलाम बनकर ना रह जाएँ ...और विकास को सब कुछ ना मान बैठे ... हमारे परिश्रम का बड़ा भाग " दिलों में प्रकाश के लिए खर्च हो ..." ..... फिर चाहे विकास कम ही क्यों ना हो ... या बहुत अधिक क्यूँ ना हो ....मन की बैचैनी नहीं बढ़ पायेगी ... वह संतुलन में रहेगी ... जीवन संतुलित रहेगा ... और कम या ज्यादा विकास बेमानी हो जायेगा ...

                  मन का प्रकाश यानि आध्यात्मिक विकास ... यह बहुत जरुरी हैं हमारे लिए ... देखों ना राजकुमार सिद्धार्थ गौतम के जीवन में भौतिक विकास की अति थी फिर भी उन्हें आध्यात्मिक विकास जरुरी लगा ... उन्हौने उसकी सर्वोच्च अवस्था को पाया ... और सारे जीवन करुण चित्त से , मुक्त हस्त से जनसाधारण को बांटते रहे ... 



             जिस पर आज गर्व करते नहीं अघाते हैं हम ...  उस काल खंड का भारत ही " विश्व गुरु "  कहलाया ... उस काल खंड का भारत ही " सोने की चिड़िया " कहलाया  ...


सबका भला हो !!!

गुरुवार, 6 जून 2013

निंदा एक नशा ...!!!




                 दुखों से घिरा रहना भी एक प्रवृत्ति बन जाता हैं ... लत बन जाता हैं ... आदत-सी हो जाती हैं .... दुखों से बाहर निकलने का कोई मार्ग हैं ... यह ठीक से पता हो ... तब भी .... कोई - कोई दुखों से इस कदर मुहब्बत कर बैठता हैं कि उससे बाहर निकलने की बात कहो तो चिढ उठता हैं ... खीज उठता हैं .... 

                 जैसे किसी को खुजली हो या कोई नशे की लत ही हो ... और कोई भला मानुष उसे समझाए की खुजली करने से बढती हैं या नशा नुक्सान देह होता हैं ... और कभी - कभी खून भी निकल आता हैं या जान पर भी बन आती हैं ... 
तब भी ...

              कभी बेहोशी में और हमेशा तो होशो-हवास में खुजली के नशे की आदत से लाचार होकर वह खुजली करने का काम कर ही जाता हैं ... या किसी दीगर नशे के अभिभूत हो ही जाता हैं ... बिना अपने नुक्सान की परवाह किये 

                      वैसे ही निंदा भी एक नशा हैं ... जितना हो सके व्यक्तिगत निंदा से बचे ... 


              आओ जाने म. गांधीजी ने कभी भी किसी की व्यक्तिगत निंदा नहीं की ... इस बारें में हमारा युवा स्वयं तहकीकात करके भी इस बात की पुष्टि कर सकता हैं ... 

निंदा से बचे ... निंदा आपसी सद्भाव पर घातक वार करती हैं और बैर के बीज जाने अनजाने हमारे अन्तर में बो जाती हैं ... और जैसे बीज वैसे फल यह बात तो अटल हैं ही ... सभी जानते हैं ... और उससे अधिक दिलोजान से मानते हैं 

                               गाँधी तुम फिर आना मेरे देश !!!

बुधवार, 5 जून 2013

हमसे का भूल हुई ... ?


      मसे का भूल हुई ... जो ये सजा हमका मिली ...?

कभी कभी यूँ भी वक्त आता है जब यूँ लगता हैं की भलाई का फल बुराई मिल रहा हैं ... और मन कुछ उदास होकर ही नहीं रहता ... वह निराशा के भंवर गोते पर गोते लगाता हैं ... और भलाई के कामों पर से उसका जैसे भरोसा ही उठता जाता हैं ...

                 यही वह वक्त होता है जब नकारात्मकता को हमारे अन्दर हावी होने के स्वर्णिम अवसर मिलते हैं ... और ऐसे में लगे हाथ हम दूसरों पर इल्जाम भी लगा देते हैं ... के ये सब उनके ही कारण हो रहा हैं ... और नकारात्मक बातों पर हमारा विश्वास और गहराता जाता हैं .. ... दरअसल यह हमारी भारी गलतफहमी के ही कारण होता है की हम बुरे फलों को हमारे भलाई के फल समझ बैठते हैं ... और भलाई के फलों का इन्तेजार नहीं कर पाते हैं ... हम क्या कोई भी असल में वही काटता हैं जो जो हमने बोये हैं ... बीजों की तासीर और उनकी फल दे सकने की क्षमता के अनुसार उनके फल आगे पीछे आते रहते हैं 

                " फल भले कामों के भले ही आयेंगे और बुरे कामो के बुरे ही " यह भरोसा रहे ... और कोशिश रहे की हमसे बुरे काम हो ही ना ... इस हेतु मन पर अपना अधिकार हो ... और मैला मन हम हो सके उतना - उतना निर्मल करते जाए ... क्योंकि निर्मल मन बुरा काम कर नहीं सकता ... और हमारा जीवन सुन्दर और बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की राह चल पड़ता हैं ... और मन यह भरोसा पाता हैं की हमसे कोई भूल ना हो जाय ...

              
 जरुर सुने यह गीत पर थोडा सकारात्मक होकर ... तब ही तो बात बनेगी ... भला हो !!!

शनिवार, 25 मई 2013

धन्य हुई वैशाख पूर्णिमा ...

                  वैशाख पूर्णिमा बुद्ध जयंती का परम पावन अवसर / आज से 2558 वर्ष पहले की वैशाख पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ गौतम ने परम सत्य की खोज की थी ... परम सत्य जिसकी खोज से सिद्धार्थ गौतम ने अपनी स्वयं की बोधि को ही जागृत नहीं किया अपितु जीवन के अंतिम क्षण तक उस परम सत्य को जनसाधारण के बीच अत्यंत करुण चित्त से बांटते ही रहे ... परम सत्य जिस पर चलकर फिर उस समय के भारत के और अनेकों पडौसी देशों के करोड़ों - करोड़ों लोगों का प्रत्यक्ष मंगल सधा ... लोगों का वास्तविक कल्याण हुआ /


                        भगवान बुद्ध के जीवन में पूर्णिमा का बड़ा महत्व रहा हैं ... जिसमें वैशाख पूर्णिमा का तो  'त्रिविध ' दुर्लभ महत्त्व हैं ... वैशाख पूर्णिमा के ही दिन सिद्धार्थ गौतम का जन्म हुआ ... वैशाख पूर्णिमा के ही दिन सिद्धार्थ गौतम को बोधि वृक्ष के नीचे परम सत्य का बोध जागा और वेबुद्ध कहलाये ... और फिर वैशाख पूर्णिमा के ही दिन स्वयं की पूर्व घोषणा के अनुसार उन्हें महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ /

                               भगवान बुद्ध और प्रकृति का गहन नाता रहा .. भगवान बुद्ध प्रकृति के परम रहस्य को जान गए थे ... और आजीवन वे प्रकृति के निकट ही रहे ... राजकुमार होते हुए भी उनका जन्म महलों में नहीं अपितु प्रकृति की गोद में , जंगल में शाल-वृक्ष की छाया में हुआ / बोधी की खोज में छः सालों तक प्रकृति के अति निकट रहकर तप करते रहे ... और फिर बोधी मिली तो वह भी प्रकृति की छाया में बोधी वृक्ष के तले ... अस्सी वर्षों की पकी हुए आयु में जब जीवन की घडी आई तो वह भी वैशाख पूर्णिमा का ही दिन था और थी प्रकृति की गोद , जुड़वां शाल वृक्षों की छाया तले / जीवन की तीनों बड़ी घटनाओं का वैशाख पूर्णिमा को ही घटित होना बड़ा विलक्षण और अप्रतिम संयोग हैं /


                           आजकल हर कोई सत्य की बात करता हैं ...सत्य की तरफदारी में कई बड़े और भरी-भरकम जुमले भी सुनता और सुनाता हैं .. " सत्य परेशान हो सकता हैं पराजित नहीं " ..." सांच को आंच नहीं " ... " सत्य की हमेशा विजय होती हैं "... " सत्य बड़ा बलवान हैं "., " सत्य ही ईश्वर हैं " ....आदि आदि / परन्तु आदमी लौकिक सत्य की भी केवल बातें ही करके रह जाता हैं /

                      असल में मानव सत्य की राह से दूरी बनाकर चलना ही ज्यादातर पसंद करता हैं ... लौकिक सत्य अक्सर विवाद का कारण भी बन जाते हैं ... क्योंकि लौकिक सत्य को हम आँखों से देखकर , कानों से सुनकर , चखकर , छूकर या सूंघकर जान पाते हैं , और इस उहापोह में हर इन्सान का अपना-अपना नजरिया सत्य को भिन्नता प्रदान कर देता हैं ...फिर तो हर इन्सान को उसका कहा सत्य पत्थर की लकीर सदृश लगने लगता हैं /

                               लौकिक सत्य की भिन्न भिन्न परिभाषाएं हमेशा विवादों को जन्म देती हैं / हर कोई अपने अपने सत्य की जानकारी को दुसरे की जानकारी से जोड़कर नहीं अपितु तोड़ मरोड़कर ही पेश करता हैं / इसीलिए सिद्धार्थ गौतम ने उस समय के उपलब्ध ज्ञान से असंतुष्ट होकर परम सत्य की खोज आरम्भ कर दी .. वे कुदरत के हर नियम को जानना चाहते थे ... वे जानना चाहते थे मानव दुखी क्यों होता हैं ? दुखों से नितांत विमुक्त होने की क्या राह हैं ? 


                             सिद्धार्थ गौतम की सत्य की खोज पूर्ण हुयी वैशाख पूर्णिमा की उस रात जब वे यह दृड़ संकल्प के साथ बोधि वृक्ष के तले बैठे की अब प्रकृति के सारे रहस्यों को जानकर ही उठूँगा ... और उनकी खोज आखिर पूरी हुयी और भगवान ने पाया कि लौकिक सत्य कि जानकारी और उसके व्यवहार से कहीं अधिक कल्याणकारी होता हैं परमार्थ सत्य को जानना ... उन्हौने अनुभव किया की परमार्थ सत्य हमेशा एकसा रहता हैं ... और जिसने परमार्थ सत्य के दर्शन कर लिए उसका चित्त शांत हो जाता हैं ... उसके दुःख दूर हो जाते हैं / सिद्दार्थ गौतम बस इसी खोज में थे की कोई ऐसा मार्ग मिले जिसपर चलकर हम दुखों से परम मुक्त हो सके ... उन्हौने अनुभव किया की सत्य को वस्तुतः लौकिक क्षेत्र से कहीं अधिक अपने अंतर्मन की गहराइयों में खोजने की जरुरत हैं / 

                                भगवान की यह खोज की ... दुःख हैं ! .. दुखों का कारण हैं ! ... दुखों का निवारण हैं ! ...और दुखों से नितान्त विमुक्ति का उपाय हैं ! अध्यात्म के क्षेत्र की सर्वोच्च खोज हैं / भगवान को बोधि की प्राप्ति के उपरांत उनके प्रथम उद्गार बड़े प्रेरणा दायक हैं ... " अनेक जन्मों तक बिना रुके संसार में दौड़ता रहा ! ( इस काया रूपी ) घर बनाए वाले की खोज करते हुए पुनः पुनः दुखमय जन्म में पड़ता रहा / हे गृह्कारक ! अब तू देख लिया गया हैं ! अब तू पुनः घर नहीं बना सकेगा ! तेरी सारी कड़ियाँ भग्न हो गयी हैं / घर का शिखर भी विश्रंखलित हो गया हैं / चित्त संस्कार रहित हो गया हैं , तृष्णा का समूल नाश हो गया हैं / " सारे जीवन भगवान जन साधारण के बीच इस विद्या को बांटते रहे की कैसे कोई दुखों से पार पा सकता हैं ... दुःख कहाँ बनता हैं ... और जहाँ बनता हैं वहीं हमें रोक लगाना होगी ... अन्यथा अज्ञान वश दुखों का पहाड़ सा हम अपने आगे खड़ा करते ही जा रहे हैं /

                              भगवान ने सिखाया की जो घटना जैसे हो रही हैं उसे ठीक उसी रूप में बिना प्रतिक्रिया किये देखना होगा ... तभी नयें संस्कार नहीं बनेगे ... और पुराने भव संस्कारों की उदीरणा होगी / और उनकी यही शिक्षा " विपश्यना " कहलाई .

विनय क्या है .. ?


    #  कल्याणमित्र  सत्यनारायण गोयनका 

रविवार, 19 मई 2013

उसकी दया ..!!!

            बात सीधी - सी हैं और हम लोगों ने उसे कितना उलझा दिया हैं .... यही कारण हैं की हम अक्सर नहीं हमेशा भटक जाते हैं ... अटक जाते हैं ... 

                हम गीता के कर्म के सिद्धांत पर भी ठीक से टिकते नहीं हैं ... और अक्सर किसी कर्म के फल के पकने के अवसर पर उस घटना को और किसी घटना से जोड़कर चमत्कृत हो उठते हैं ...  और कोई समझाए तो उसकी बात को भारी - भरकम शब्दों के जंजालों से या नास्तिक ही कहकर हलकी करने की कोशिश क्यूँकर करते हैं मेरी समझ से परे हैं .... और ऐसी भी क्या मज़बूरी आन पड़ती हैं की हम यूँ करते हैं ... केवल किसी की कृपा है यह साबित करने के लिए इतनी मेहनत या घुमाव - फिराव ... 

                         कोई ईश्वर हो , सर्वशक्तिमान हो , या ना ही हो ... गीता का कर्म का सिद्धांत तो अटल हैं ... जैसे कर्म ठीक = वैसे ही फल ... ना कम ना ज्यादा ... और यहाँ एक और इशारा यह समझ नहीं पाते हैं ... की कोई कर्म हो भला या बुरा उसके फलों में जरा भी फेर बदल संभव नहीं हैं ... और कुदरत भी यूँ कभी नहीं करती हुई दिखना चाहेगी ... वर्ना फिर कर्म फल के सिद्धांत को पलटने के लिए कुदरत की अदालत में अर्जियां लगनी शुरू होंगी ... सब जानते हुए भी हम कहाँ मानते हैं भाई ? ... देखते नहीं कितना बड़ा और अटूट सिलसिला चल ही पड़ता हैं 

                        अरे हम मनुष्यों में भी भेदभाव को बुरा माना जाता ... हमारी अदालतें या सरकार या कोई और भेदभाव करें तो उसकी कटु आलोचना होती हैं ... लोग नाराज होते हैं ... और हम यह हम जोरों से माने की कुदरत हमारी आस्था हमारे विश्वास के दम पर हमारे बुरे या भले कर्मों के फलों को कम या ज्यादा कर देगी ... कितनी बड़ी विडम्बना ... कितना भटकाव .... कितना दोगलापन 

                      पर .. हम कहाँ रुकते हैं ... एक घटना को दूसरी से जोड़कर ...कभी भगवान का डर स्थापित कर या फिर उसकी दया का लालच दिखाकर .... इतने भले और सार्वभौम सिद्धांत के महत्त्व को कम कर देते हैं ...यह भ्रम के अस्तित्व को बरक़रार रखने जैसा प्रयत्न हैं भाई 

                       कोई एक नहीं बहुतेरे यह मानते हैं कि .... कुदरत दया करती हैं इसके माने यह निकालते है कि कुदरत हमारी पीड़ा को ( जो की कर्मों के फल हैं ) को कम कर सकती हैं ... यहाँ भी हम उसकी दया का उपहास उड़ाते हैं ....  उसकी दया केवल इतनी होती है की वह हमें " हम सद्कर्म करें " इस ओर चलने के लिए लगातार बिना किसी भेदभाव के बड़े करुण चित्त से .... सारे वातावरण में सारी सृष्टि में सकारात्मकता की तरंगे उत्सर्जित करती रहती हैं ... और धर्म चाहे जो हो ... उसका काम केवल इतना होता हैं की वह हमें यह सिखाये की हम भी वैसी ही सकारात्मक तरंगों का उत्सर्जन करते चले जाय ... ताकि उन ईश्वरीय तरंगों से समरस होकर तेजी से सन्मार्ग की और बढ़ सके ... मुक्ति की ओर बढ़ सके ... और पाप और पूण्य ( भले या बुरे ) कर्म फलों की अनवरत श्रुंखला से बरी हो पायें ....

भला हो !!! 


मेरी नजर मैं आस्तिक वो जो यह माने की - जैसे कर्म वैसे फल ... और नास्तिक वो जो इस बात में जरा भी विश्वास ना करें )

राम राज्य .. !!


                खुद के सुधार की प्रक्रिया दोधारी तलवार जैसी है ... इस प्रक्रिया से हम तो सुधरते ही हैं ... और हमारा मंगल सधता ही हैं ... साथ ही साथ हमारे आसपास के लोग ( जिसका जितना बड़ा दायरा हो उतने दायरे में .. ) ... हमारे अन्दर सचमुच के बदलाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते ... असल मायने की बात सचमुच के सकारात्मक बदलाव की हैं ... अतः स्वयं सुधार सबसे बड़ी सेवा हैं ... लाख करें हम कल्पना की एक दिन " रामराज्य "आएगा ... अगर वह आया तो आएगा इसी स्वयं सुधार  के रस्ते ...

                   वर्ना नहीं ... कभी नहीं !!!

                   आज हमारे सामने म. गाँधी जी उदाहरण स्वरूप है ही ... ऊपर ऊपर से हमें यह लगता हैं और सत्य भी हैं कि उन्हौने अंग्रेजों से लढाई लढी ... वस्तुतः आजीवन वे अपने आप से लढते रहे ... और आत्मसुधार की प्रक्रियां में वे कहीं आगे ... कहीं आगे रहे ... वस्तुतः दुनियां को उन्हौने इसी रस्ते झुकाया ... सबका ध्यान उनपर इसी कारण गया ...

                संलग्न चित्र में उनका इशारा भी इसी ओर हैं ....

              अगर हम एक - एक भारतीय आत्मसुधार इस प्रक्रिया में संलग्न हो जाएँ ... तो फिर रामराज्य दूर की कौड़ी नहीं रहे ...

                   (हम कतई निराश ना हो ... सभी सम्प्रदायों में , सभी समाजों में , सभी जातियों में , सभी दलों में , हर जगह ... कम या ज्यादा इस तरह के लोगों की मौजूदगी है ही ... और यह क्रिया सतत जारी हैं )

सबका भला हो !!

गुरुवार, 2 मई 2013

" सधे " हुए कदम ...


                 कल मैं दिनभर यह जानने की कोशिश करता रहा की ... वे कौन से कड़े कदम हैं ... जो हमारा देश भारत अगर उठाता या उठाता नहीं हैं ... और जिनके ना उठाने की शिकायतें हर तरफ आम हैं ... और लोगों के दिलों में मिडिया यह बात बैठा रहा हैं ... की वे - वे कड़े कदम अगर उठते तो यह - यह ना होता ... पर मुझे सफलता नहीं मिली ...कड़े कदम क्या हैं ... कैसे हों ... कि उन्हें कड़े कदम बस मान ही लिया जाएँ ... किसी ने नहीं सुझाया ...


              खैर ... कड़े कदम जो - जो जरुरी हैं वे- वे उठ ही रहे होंगे ... फिलहाल .... और नए कड़े कदम कोई सुझाये तब तक यह मानना हितकारी हैं ... और लाज़मी भी ..   पर एक बात और ... कड़े कदम उठाकर सड़क पर ही सही सचमुच हम भी अगर चलना चाहे ... और हमेशा के लिए उन्हें अपनी सामान्य चाल का अंग बना ले ... तो मैं नहीं मानता हम अधिक दुरी तक चल पाएंगे ... 


                       हमें कड़े नहीं "सधे" हुए कदमों की दरकार हैं ..सधे  हुए कदम यानि हमारी कथनी और करनी का एक समान  होना .... हमारा सबका और भारत देश का सुमंगल केवल इसी बात में निहित हैं की हम टेड़े -मेढ़े और केवल कड़क नहीं .... वरन ... "सधे " हुए कदम चलने लगे  ...यही भारत की तासीर हैं ...  उसके अभ्युदय में निहित किसी बड़े शुभ -मंगल का कारण हैं ... गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर की सहज सरल वाणी हमारा मार्गदर्शन कितनी खूबसूरती से करती हैं ... " जन- गण -मन मंगल दायक जय हे "

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

मेरी जुबां से सुनिए ... !!!

       मेशा सत्य का गुणगान बड़े जोर-शोर से किया जाता हैं ... " सत्य " ऐसा होता हैं ... " सत्य " वैसा होता हैं ... बताता कोई नहीं हैं " सत्य " क्या हैं ...? 

          बस वाणी का सत्य ही सत्य होता तो " ईश्वर " कब से सबको बड़ी आसानी मिल गया होता ... एक बार सत्य बोलता कोई और लो " ईश्वर " उसके सामने हाज़िर ... पर नहीं होता ना ... और फिर हार - हुराकर वही झूठ बोलने में इन्सान जुट ही जाता हैं ... ना ?

       असल बात हैं ... और वहीँ जिम्मेवार भी हैं ... वह है हमारी सुनने की क्षमता ... जो बोला जाता हैं ... उसे सुनना फिर भी आसान हैं ... पर जो बोला  ही नहीं जाता ... उसे सुनना कितना कठिन होगा ...समझ रहे हैं , ना ? 

           ..  और " सत्य " की राह ठीक वहीँ से शुरू होती हैं ... हाँ ... वहीँ से ... अक्सर सुनते हैं कि ... दिल की आवाज सुनो !!  ... दिल की आवाज सुनो !!! ... हाँ भाई ... दिल में वो हर वो बात सबसे पहले उठती हैं ... जो - जो जुबां पर आती हैं .... अब वहां कोई ऐसी - वैसी बात उठे जिसे जुबां पर लाना ठीक नहीं होगा ... तब अगर विवेक साथ रहे तो हम अपने आप को रोक सकते हैं ... अन्यथा नहीं भी रुकते कभी ... पर दिलों की हर आवाज सुनी जाती हैं ... हम उसे बोले या ना बोले ... और सचमुच सत्य वहीँ से बड़ा मतलब रखता हैं ... पूर्ण शुद्ध व्यक्ति फिर "बुद्ध" होता हैं ... उसके दिल में भी कभी गलत आवाज नहीं उठती ... उसके दिल में रंच मात्र भी किसी प्रकार का गुनाह फिर आरम्भ नहीं होता ... वाणी और काया की तो बात ही क्या ...

वाचिक कर्म सुधार लें , कायिक कर्म सुधार । 
मनसा कर्म सुधार लें , यही धर्म का सार ।। 

                      
  सुने यह ग़ज़ल ... खुबसूरत हैं ... और बड़ी सहज तो है ही ... सुप्रभात ...मिलते रहेंगे !!!



सोमवार, 22 अप्रैल 2013

आओ दुआ करें ...


   ... जब शुभकामनाओं की उमंग और तरंग ( दुआएं ) दिलों से झूम कर उठती है ... तो फिर चाहे ... कहीं उठ रही हो ... वे उमंगें और तरंगे दुनिया - जहान में उस उस तरह की तरंगो और उमंगो से समरस हो ही जाती हैं ... 

                  आखिर जिन्दगी है क्या ? ... बस एहसासों की लम्बी अनवरत श्रंखला ही तो हैं ... सभी ने यह महसूस किया ही होगा ... कभी मन यूँ ही प्रफुल्लित रहता हैं ... और कभी यूँ लगता है जैसे बेवजा उदास हैं ... यह सब यूँ ही नहीं होता ... उमंग या उदासी की तरंगो से उस उस समय हमारे मनों का समरस हो जाना ही तो हैं ... 

      सुनकर देखे यह गीत ... यह गीत ... गजब की काबिलियत रखता हैं ... एक नहीं कई बार यह कुदरती जादूगरी से हमें और हमारे मन को अनायास छू जाता हैं ... हौले हौले ... आहिस्ता अहिस्ता ... दुआएं / मंगलकामनाएं बेरोकटोक मीलों का सफ़र पल में यूँ तय करती है जैसे सूरज की किरण ... या हवाएं .... बस यहाँ से वहां तक "चाहो " के सायें ही तो हैं ... पल - पल उजाले और पल-पल अँधेरे हमारी महसूस करने की क्षमता की अग्नि परीक्षाएं ही तो हैं ... 


                    1973 की फिल्म " प्रेम पर्वत " का यह गीत लता जी की आवाज में सुमधुर झरनों की ताजगी सा कितनी सुलभ आज़ादी से जयदेव साहब की संगीत रचना में  जाँ -निसार-अख्तर साहब की भली सोच को  इतना कर्णप्रिय बना देता हैं की पूरा गीत ख़त्म होने को आता ... पर मन वहीँ कहीं खोया सा ... धीरे - धीरे अल्हड़ सा यादों की पगडंडियों पर रुके रुके कदमों से चलता हुआ ... दो कदम आगे .. चार कदम पीछे बस सरकता हैं ... और दिल बस सबके भले की दुवाएं ही करता है ... 

आओ दुआ करें ... सबका मंगल हो !!!