शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

खुश रहो कश्मीर ... !!


                

              कश्मीर हमारे देश का मस्तक हैं ... और मस्तक किसी का हो शांत रहे , समता में रहे , ... यह हर, कहीं हर स्थिति में जरुरी हैं / पहाड़ों में जिंदगी मैदानों की बनिश्बत ज्यादा मुश्किल होती हैं ... मौसम भी वहाँ कब बेईमान हो जाएँ ... भरोसा नहीं होता !!


                    मैंने पाया हैं की पहाड़ों की जिंदगी इन्सान को सरल बनाती हैं ... कुछ माह पहले मैं भी कश्मीर घूम आया ... मन में धरती के स्वर्ग से सम्मानित इस पावन धारा को देखने की बड़ी उत्सुकता थी ... मैं वहाँ की प्राकृतिक खूबसूरती से कहीं ज्यादा कश्मीर की जनता के मन को जानना चाहता था ... मैं इस बात को बड़े आदर से मानता हूँ का मानव का मन जब तक सरल न हो ... उसकी बाहरी खूबसूरती अधूरी हैं ... अगर हम सरलता अपनाएं और अपनाते जाएँ तो बाहरी खूबसूरती चाहे हो न हो , मन की सरलता निःसंदेह चारों ओर अपना असर साफ दिखाती हैं / जब जब मन में कुटिलता जागती हैं ... हम वस्तुतः अपनी ही अधिक हानि करते हैं .. औरों को ठगने के उपक्रम में स्वयं ही ठगे जाते है / इसी प्रकार जब हमें दार्शनिक दृष्टी अथवा सांप्रदायिक मान्यता के प्रति आसक्ति जागती है तो संकीर्णता के शिकार हो जाते है ... और फिर मन की सहज, सरलता खो देते हैं / 


                    मन जब पानी की तरह सहज सरल होता है तो अपने आप को पात्र के अनुकूल ठाल लेता है और अपनी सरलता भी नहीं गवांता / रास्ते में अवरोध आता है तो कल-कल करता हुआ उसकी बगल से गुजर जाता है ... कोई अवरोध उसे काटता है , दो टुकडे करता है , तो काटकर भी अवरोध के आगे बढता हुआ फिर जुड़ जाता है और वैसे का वैसा हो जाता हैं / जब कोई अवरोध दीवार की तरह सामने आकर उसकी गति अवरुद्ध करता है तो धैर्य पूर्वक धीरे- धीरे ऊँचा उठता हुआ उस दीवार को लांघकर सहज भाव से आगे बढ जाता है / आज कल दूसरों के दोष दिखाने और घृणा को फ़ैलाने, बढाने का एक अजीब सा दौर चल पड़ा है ... इस उहापोह में जाने कब हमारा मन सरलता खोकर कट्टरता की राह चल पड़ता है...और अपनी ओर निहारने की साधारण दृष्टी को गँवा कर गांठ-गठीला बन जाता है ... इसे रोकना चाहिए यह हमारे प्राकृतिक विकास की राह में बड़ा रोड़ा साबित होगा /


                    मैं यह देखना चाहता था कि कुदरत ने स्वर्ग की तरह सुन्दर इस जगह को जहाँ बनाया हैं , क्या उसने इस सुन्दर धरा के लोगों को कैसा बनाया हैं ? ... क्या वे भी सवर्ग के सवभाव के अनुरूप खुश-मिजाज और भले हैं ... बाहरी खूबसूरती को देखना तो कहीं आसान होता है ...पर मन कि सुन्दरता को अनुभूति के स्तर पर जानने के लिए थोडा सा वक्त और धीरज लगता हैं... हम किसी और के नजरिये से , चित्रों से , किस्से कहानियों से मन कि सुन्दरता का ठीक - ठाक आकलन नहीं कर सकते हैं /


                    मैंने पाया कि प्राकृतिक रूप से बेपहान खुबसूरत इस जमीन के लोग भी स्वभाविक रूप से बड़े खुबसूरत हैं ... बस अब मन कि खूबसूरती को देखना ही बच गया था ... पर वहाँ की प्राकृतिक खूबसूरती को देखने में मैं खो सा गया ... पर अंतर्मन बराबर कश्मीरी मानस को जानने में मशगुल था ... वह बिना नागा छोटी छोटी बातों संज्ञान लेता जा रहा था ... और मेरी बेखबरी टूटी जब वहाँ से विदा लेने कि घडी समीप आ गयी ... एक दुकान पर हम कुछ समान खरीदने गए ...सौदा कुछ जमा नहीं तो वहाँ से चलने को हुए ... मैंने पाया की दुकानदार जो हमें काफी समय दे चूका था और अब कोई खरीद नहीं करने पर वैसा ही शांत था जैसा पहले ...और अपना समान वापस जमा रहा था ... हम मुड़ने को ही थे कि वह बोल पड़ा ... सर आपको कश्मीर कैसा लगा ?


                   मैं अप्रत्याशित सवाल से चौक पड़ा ... पर अगले ही क्षण मेरे अंतर्मन ने मेरा साथ दिया और अपना सारा आकलन मेरे समाने रख दिया ... जिसे वो पिछले कुछ दिनों से अपने स्तर पर बराबर किये जा रहा था ...मैंने उससे कहा ... कुदरत ने कश्मीर को सम्पूर्ण बनाया हैं ... कहीं कोई कमी नहीं ... मेरा उत्तर सुन वह उसको विस्तार से समझाने की जिद सी करने लगा ... तो मैंने उसे कहा ... भाई कोई घर हो ... कोई गाँव हो या हो कोई देश ... वह कैसा भी हो उस घर में , गाँव में या देश में रहने वाले लोगों से वह घर , गाँव या देश जाना जाता हैं ...और आप सभी इस स्वर्ग में रहने के खूब लायक हो ... आप सहिष्णु हो ... संतोषी हो ... आगे बड़कर मदद करने के दुर्लभ गुण से भरपूर भी हो ... और हो तहजीब से बात करने वाले ... आप लोगो से बात करके सुकून मिलता हैं ... कश्मीर से ज्यादा मैंने आप लोगों को पसंद किया हैं /

                 वह दुकानदार अब भी बराबर मुस्कुराये जा रहा था ...और तभी हमारा ऑटो वाला बोल पड़ा ... चलिए जनाब आपको देर हो रही हैं !! ... हम एक दुसरे को अभिवादन कर आगे बड़ गए ... खुश रहो कश्मीर ...!! तुमसे स्वर्ग का दर्जा कोई नहीं छीन सकता /

शनिवार, 22 सितंबर 2012

डर के आगे दादा भागे ...

डर के आगे दादा भागे ... 




       पेड़ को काटना छोडो  ...  थक गए होंगे ... थोडा आराम करो ... कल फिर नए सुधार कार्यक्रम की घोषणा होने वाली हैं ...थोड़ी उर्जा बचा कर रखो .. नहीं तो कल देर तक सोते ही रहोगे ...फिर क्या खाक विरोध कर पाओगे ?

               कल जब से PM साहब ने अपनी बात में की " पेड़ पर पैसे नहीं लगा करते " यह क्या कह दिया ... विरोधियों को नया अजूबा मिल गया ...  

              हर विरोध करना वाला बस  पेड़ उखाड़ उखाड़ कर देख रहा हैं ... और यह मानने को तैयार ही नहीं की ... देश को आर्थिक दुरावस्था से बचाने के लिए अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए ... थोड़े से कड़े आर्थिक कदम उठाना लाजमी हैं ... अगर पैसों का पेड़ होता तो NDA राज में पैसे तोड़ नहीं लिए होते ... काहे सोना गिरवी रखते विदेशवा में ?

                 चलो थक गए होंगे ... सो थोड़ी देर इस कहानी को पढो ... ताजगी आ जाये शायद ... फिर लग जाना पेड़ उखाड़ने में ... अब आपको रोको तो कहते हो विरोध भी नहीं करने देते ... 

                   एक बांवरा लड़का था ... उसे जब तब कोई न कोई सनक सवार हो जाती थी ... माता - पिता परेशान थे ... बहुत समझाते थे पर जब जब भी कोई सनक सवार होती सारा घर सर पर उठाकर बहुत कोहराम मचाता था /  यूँ ही धीरे धीरे दिन गुजर रहे थे ... एक दिन उस सनकी बालक ने यह कह कर चीखना चिल्लाना शुरु कर दिया की ... मैं घर से बाहर नहीं निकलूंगा ... घर के बाहर घूम रहा मुर्गा मुझे चना समझ चुग जायेगा ... और लगा डर के मारे रोने धोने और चीखने चिल्लाने / 

                     तभी कुछ शुभ संजोग जागा ...और उस घर में एक समझदार बुजुर्ग दादाजी का आना हुआ ... उनके आगमन मात्र से घर में जैसे नयी उर्जा का संचार होगया ... दादाजी ने भी उस बालक का रोना सुन कारण जानना चाहा ... पिता ने उन्हें घर के दुसरे कमरे में ले जाकर विस्तार से सब माजरा कह सुनाया ... और लगे हाथों बड़ी आशा से इस समस्या पर कुछ करने की गुजारिश भी कर दी / दादाजी बड़े घाग थे .... उन्हौने जमाना  देखा था ... उन्हें यह समस्या बड़ी छोटी लगी ... वे हलके से मुस्कुराये और कहा .... " ले आओ उस बालक को मैं अभी समझाय देता हूँ .... उसे ... तुम समझे नहीं .... मैं खूब जानता हूँ इस तरह की प्रोब्लम से कैसे निपटा जाता हैं /

                       बालक  के आते ही दादाजी ने सभी को तुरंत कमरे बाहर जाने को कहकर ... दरवाजा भिड़का दिया ... अब वहाँ रह गए वह बालक और दादाजी ... दादाजी ने बालक को प्यार से गोद मैं बैठाया और बालक सर पर स्नेह से हाथ घुमाते हुए उसे समझना शुरु किया ... दादाजी प्रश्न -उत्तर की शैली में अपनी बात को कहने में बड़े माहिर थे ... पुराने घाग नेता जो ठहरे ../

                    उन्होंने बालक से कहा .... अच्छा बेटा यह बताओ ... तुम्हारे कितने हाथ हैं ? ... बालक तुरंत कह उठा .... दो हाथ हैं दादाजी /  दादाजी ने तुरनत दूसरा सवाल दागने में देर नहीं की ... और चने के कितने हाथ होते हैं ?  ... बालक फिर सहज भाव से कह गया  ... चने के , उसके हाथ थोड़े होते हैं /

                        इसी तरह दादाजी उस बालक और चने के बीच असमानता सिद्ध करने लिए ... एक के बाद एक सवाल दागे जा रहे थे / और बालक बराबर उत्तर देते हुए दादाजी की तरफ बड़े अजूबे ठंग  से लगातार टुकुर मुकुर निहार रहा था / दादाजी को जब ठीक से विश्वास हो गया की बालक अब चने को अपने से कहीं छोटा और निर्जीव और कमजोर मान चूका हैं ... दादाजी ने विजयी मुस्कान अपने अधरों पर बिखेरी और ... अब बालक की तरफ करुणा की बारिश सी करते हुए कहा ...  बेटा तुम नाहक डरते हो .... अरे जिस चने के न हाथ हैं ... न पांव ... न कान हैं और न ही मुख ... और तुम कितने बड़े हो और ताकतवर भी ... बताओ भला तुम्हे मुर्गा कैसे चना समझ कर खा पायेगा भला ..... बताओ जरा ? 

                   अब लड़के की बारी थी ... जिसका वह बड़ी व्यग्रता से बस अपनी बात कहने की बात  ही जोह रहा था  ... कब  दादा जी अपनी बक बक बंद  करें तो अपनी बात कहूँ इनसे ...अबके बच्चे ने बिना देर किये कहा ... दादाजी मेरी समझ  में सारी बात आ गयी हैं ... पर उस मुर्गे को कोई कैसे समझाए भला  ... /

                दादाजी ने सर पकड़ लिया ... और बालक फिर जोर जोर से रोने लगा ... मातापिता शोर सुन आये ... वे लगातार दादाजी को और दादाजी उनको बस देखे जा रहे थे ... और ये  क्या अब तो दादाजी भी डर  के मारे  कमरे से बाहार  निकलने में डर  रहे थे  ... उन्हौने भी आते समय एक  मुर्गा घर के ठीक बाहर  ही तो देखा था  ...  /

                    बाहर कोई यह गजल गुनगुनाता  हुआ निकल  रहा था ... उसकी आवाज उस शोर भरे वातावरण में भी बिलकुल साफ सुनाई पड़ रही थी ....

गुलशन की फ़कत फूलों से नहीं,  काँटों से भी जीनत होती हैं /
जीने के लिए इस दुनियां में गम की भी ज़रूरत होती हैं //

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

अमर घर चल ... !!

घर ... !!






             अमर घर चल ...  इधर उधर मत चल ... नल पर चल .... यूँ धीरे धीरे हिंदी भाषा कब हौले से हर भारतवासी  के दिलों में उतर गयी पता ही नहीं चला ... जैसी हमारी गंगा जमुनी संस्कृति ठीक वैसी ही हमारी राष्ट्र  भाषा हिंदी कई भाषाओँ का मेल ... प्रारंभ में 9 और 10 वीं शताब्दी में उत्तर भारत में और दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में बोली जाती थी.... वस्तुतः हिंदी का विकास पारसी , फारसी , उर्दू और संस्कृत के शब्दों  का बेमिसाल संगम हैं ... कभी  अलग न किया जा सकने वाला स्वभाविक मिश्रण हैं .. जिसे समय ने तैयार किया हैं ... और लोगों के बीच पली बड़ी हैं ... 

           हिंदी के पनपने में किसी सम्प्रदाय विशेष का कोई हाथ नहीं  ... इसीलिए यह सबको अपनी सी लगती हैं  …  सबकी हैं , सबको इसे अपनाने में हिचक नहीं होती हैं  ...  यह सबकी हैं .. यह अपने बलबूते पर विश्व की सम्रुद्ध भाषाओँ से मुकाबला करती हैं ... इसका विरोध भी होता रहता है ... पर इसका अस्तित्व बार बार फिर अधिक सुदृढ़ होकर उभर आता है ... वस्तुतः इसके देखभाल की कोई विशेष गरज नहीं ... उलटे यही हमारे देश की आवाज को जोड़ने का ... उसकी की अहमियत को उभारने का काम बखूबी बड़ी ख़ामोशी से करती रहती हैं ...

           जब महात्मा गाँधी के समक्ष हमारे देश की राष्ट्र भाषा क्या हो ?    यह प्रश्न पेश आया तो उनका  सहज उनका इशारा हिंदी की ओर ही गया ... गांधीजी को हिंदी भाषा से अप्रतिम प्रेम और भरोसा था /

          और आज हिंदी पर उनका भरोसा खरा साबित हो रहा है ... हिंदी के विकास  से किसी भाषा को कोई खतरा नहीं ... वरन हिंदी हर प्रान्त में हर जगह जाकर उन उन प्रान्त की भाषाओँ से मिलजुल कर और निखरती ही जा रही हैं ... संवरती ही  जा रही हैं ...

हिंदी तुझे सलाम !!!