बुधवार, 30 जनवरी 2013

महाप्रयाण की बेला : शाम 5:17


         30 जनवरी 1948 , शाम का वक्त कोई साढ़े चार बजे होंगे ... बापू के सामने उनके शाम का भोजन रख दिया गया ... बकरी का दूध , उबली हुई तरकारी , मौसंबी , ग्वारपाठे का रस मिला अदरक , नींबू और घी का काढ़ा ... बस इतना ही ... !!


          बापू ने अपना अंतिम भोजन सरदार पटेल के साथ बातचीत करते हुए ... धरती पर बैठकर , खुले आसमान के नीचे , प्रकृति की गोद में ग्रहण किया ...तब वे अपने महाप्रयाण से वे केवल 37 मिनिट दूर थे ... और देशहित पर सरदार पटेल के साथ कुछ जरुरी बातचीत जारी थी ... जिसके चलते रोजाना उनकी तयशुदा प्रार्थना - सभा को 17 मिनिट की देरी हो चुकी थी ... समय के निहायत पाबंद बापू इस बात से थोड़े असहज हुए ... और तुरंत चर्चा को विश्राम देकर चल पड़े अपनी अंतिम मंजिल की और बेखबर , बेपरवाह ...!!

                       इधर बापू जितने बेखबर थे अपनी मौत से ... उधर बिड़ला हाउस में शाम की प्रार्थना सभा के लिए जमा पांच -छः सौ की भीड़ में तीन वे लोग भी आ चुके थे जो आज बापू की हत्या को अंजाम देने के बुरे इरादों से लैस थे ... उनकी बैचेनी बढ़ती जा रही थी ... बापू लेट हो रहे थे ...

                        बापू ने देरी की वजह से सभा स्थल तक जाने के लिए तेजी से अपने कदम उठाना शुरू किया ... बापू ने चलते हुए साथ चल रही आभा से चर्चा छेड़ी ... आभा, तू मुझे जानवरों का खाना देती हैं ... और हंस पड़े ... उनका इशारा सुबह दिए गाजर के जूस की तरफ था ... आभा बोली - " बा इसे घोड़ों का चारा कहती थी " ... गांधीजी ने विनोद करते हुए पूछा - " क्या मेरे लिए यह शान की बात नहीं हैं कि जिसे कोई नहीं चाहता उसे मैं चाहता हूँ ?

                       बापू को सभा स्थल तक पहुँचने के लिए अब चंद कदम ही उठाना शेष थे ... उनके कदम अब नर्म दूब पर पड़ रहे थे ... बापू ने बडबडाते हुए कहा मुझे आज देरी हो गयी हैं ... मुझे यहाँ ठीक 5.00 बजे पहुँच जाना चाहिए था ... देरी मुझे पसंद नहीं ...


                          अब उनके सामने पांच छोटी छोटी सीढियाँ थी जिसे उन्हौने जल्दी से पार कर लिया ... सामने खड़े लोग उनके चरणों में झुकने लगे ... बापू ने उनके अभिवादन का उत्तर देने के लिए अपने दोनों बाजु आभा और मनु के कन्धों से हटाकर हाथ जोड़ लिए ... तभी भीड़ को चीरकर एक व्यक्ति आगे निकल आया ... सभी को यूँ लगा की वह झुककर प्रणाम करना चाहता हैं ... देर हो रही हैं सोचकर मनु ने उसे रोकना चाहा ... उसने मनु का हाथ छिड़क दिया ... और धक्के से मनु गिर पड़ी ... अब वह व्यक्ति था और उसके सामने गाँधी केवल दो फुट के फासले पर रह गए थे ... उसने तुरंत अपनी पिस्तौल बापू को तरफ तान कर एक के बाद एक तीन गोलियां दाग़ दी ... पहली गोली लगी तब बापू खड़े रहे पर दूसरी लगी तब तक खून के धब्बे उनकी सफ़ेद चादर पर उमड़ आये थे ... अब वे गिरने लगे ... तीसरी गोली लगते ही वे जमीं पर गिरने लगे ... उनके मुंह पर अब " हे राम " ये शब्द तैर रहे थे ...


                     आजीवन अहिंसा के रास्तों के राही का सफ़र अब पूरा होने आया ... इसके पहले भी बापू की हत्या के पांच विफल प्रयास हुए थे ... और हर बार बापू ने उनमे पकडाए लोगों पर किसी तरह की ना तो शिकायत दर्ज करवाई और ना ही किसी तरह कार्यवाही के लिए कहा ... इसके पूर्व हुए असफल हत्या के प्रयास जिसमे बापू के ऊपर बम फेंककर हमला किया गया था ... जिसमें वे बच गए थे ... और उन्होंने कहा था ... जब भी कोई ऐसा प्रयास हो ... धमाका हो मैं आहात भी अगर हो जाऊ तो भी मुझे आहात करने वाले के प्रति मेरे मन में सद्भाव रहे ... और रहे मेरा चेहरा अविकल ...

                        प्रकृति ने उनकी यह अंतिम इच्छा भी पूरी की ... मृत्युं के तुरंत पहले उनका चेहरा शांत था और थे चेहरे पर करुणा के भाव ... उनके अपने सहधर्मी भाई ने आज उनके प्राण लिए थे ... हिन्दू पंथ के अति उच्च आदर्श वसुदैव कुटुम्बकम , कर्म के सिद्धांत और सहिष्णुता को सही मायनों में अगर किसी ने जिया हैं तो वे हमारे बापू ही थे ... और पहली बार वर्तमान इतिहास में किसी ने अपनी कथनी और करनी की गजब समानता से सारे विश्व के सामने हिन्दुपंथ की अति उच्च आदर्श वाली बातों को जमीं पर उतारते हुए साकार किया था ... पहली बार विश्व समुदाय ने देश और धर्म के संकुचित दायरों से बाहर निकलकर समान रूप से उन्हें अपनाया था ... महात्मा गाँधी के रूप में इंसानी मूल्यों का जीता जगाता प्रमाण सबके सामने था ... विश्व उनकी मौत पर स्तब्ध था ... अचंभित था ...

                     संसार का कोई ऐसा देश नहीं ... जहाँ उनके निधन पर शोक ना मनाया गया हो ... आज भी उनका दर्शन पहले से भी अधिक प्रासंगिक हैं ... आज भी कोई अगर थोडा सा भी उनके बताये रास्तों पर चले तो उसे जमाना देर नहीं करता गांधीवादी कहने में ...


गाँधी तुम फिर आना मेरे देश !!!


रविवार, 27 जनवरी 2013

आईने के सौ टुकड़े ...


कोई कहता हैं ..

   तोरा  मन दर्पण कहलाये ... 

और कोई गाता हैं 

     आईने के सौ टुकड़े हमने कर के देखे हैं 
एक में भी तनहा थे , सौ में भी अकेले हैं 


                आईने को केवल आइना ना समझ लिया जाएँ ... भाषा की,  शब्दों की अपनी सीमा होती हैं ... अगर ना होती तो इतने महान ग्रन्थ एक से बढ़कर एक हैं ... जो लगातार पढ़े जा रहे हैं ... सुने और सुनाये जा रहे हैं ... नीति वाक्य और कहानियों पर कहानियां कही जा रही हैं ... 

               अगर शब्दों की सीमा ना होती ... भाषा की मज़बूरियाँ ना होती ... तो सारा का सारा विश्व ना जाने कब से  संत होता ...  कबीरदास  साहब यह ना फरमाते की ... परम ज्ञानी गूंगा हो जाता हैं ... जैसे गुड का स्वाद बखान करना गूंगे के लिए कठिन हो जाता हैं ...

                यहाँ आइना ... " मन " का प्रतिक हैं ... और मन को निहारने की भी कला आनी चाहिए ... नहीं तो कोई दिन-रात , बरसो बरस  भी आईने के सामने क्यूँ न खड़ा रहे ...कबीरदास साहब सा निखरने से रहा .... सुकरात साहब जैसा बनने  से रहा ... .. गाँधी जैसा संवरने से रहा 

भला हो !!!

बुधवार, 23 जनवरी 2013

मोबाईल की सिम .. और घंटी






              भी कभी कोई बात उदाहरणों से खूब समझ आती हैं ... 

                कल हुआ यूँ की किसी ने एक प्रश्न पूछा ... क्या ईश्वर सब देखता हैं ?  ... और लगे हाथों यह कहने लगा ... यह बात फजूल हैं ,  समझ से परे हैं और नितान्त अवैज्ञानिक तो है ही .....

                मैं अवाक था ... मेरी जितनी समझ मुझे जान पड़ी वह नाकाफी लगी , उसके प्रश्न के आगे गौण लगी ... खैर जैसे-तैसे शुरुआत में समर्थन ही किया ताकि चर्चा जारी रहे ... तभी मोबाइल की घंटी बजी ... और इधर दिमाग में एक विचार कौंधा ...

                 मैं कहने लगा ... देखो भाई ... हम मनुष्य भी अब तो काफी एडवांस हो गए हैं ... अब देखों  ना इस मोबाइल की चिप और इसके IMI  no  .  की वजह से हम पर लगातार कोई नजर रख रहा है ... हमारी बातचीत , पल पल की हलचल इसमें  एक हद तक दर्ज हो जाती हैं ... और रोज इसके सुपरिणाम और दुष्परिणाम हमारे सामने उजागर हो ही रहे हैं ... 

                अब सोचो और इतना तो मानते ही होंगे की " ईश्वर " सबका बाप हैं ... हर मामले में ... और समझो वह भी इतना भी फुरसती नहीं की वहां  ऊपर आसमान में बैठा - बैठा दूरबीन लिए  सबको देखता रहे ... लगातार ... बिना आराम .... नहीं उसने भी हम सबके दिमाग में एक- एक ऐसी  ही चिप फिट कर रखी हैं ... जिसे थोड़ी देर के लिए " आत्मा " भी समझ लो ... अब वही चिप हमारी हर हरकत को दर्ज करती जाती हैं अथक ... और जब-तब जरुरत के हिसाब से हमारे मानसिक , वाचिक , और कायिक कर्मों के फल सही समय आने पर पके पकाए हमारे सामने परोस  देती हैं .... उसी चिप में बीज और वहीँ से वह फल उत्पन्न कर देती हैं हमारे शरीर पर , हमारी वाणी पर , हमारी काया पर ...



              आधुनिक  भाषा में आधुनिक तकनीक के सहारे मेरा  जवाब सुन वह फिलहाल प्रभावित तो दिखा ... 

                   मैंने उससे कहा ... देखना ध्यान से यह चिप " गरम " हो जाती हैं ...जब जब हम मन में क्रोध जगाते  हैं ... या जब - जब हम निंदा में रत रहते हैं .... और उसकी  गर्मी साफ महसूस होती हैं ... यह चिप " शीतल " रहती हैं ... जब जब हम मन में सद्भाव जगाते हैं .... जब - जब हम सकारात्मक रहते हैं ... शायद इसी कारण  हमें सभी तरफ से क्रोध, निंदा , चुगली , गाली -गलौच , हिंसा , व्यभिचार , नशे पते से दूर रहने की सीख  लगातार मिलती रहती हैं ... कभी कभी तो बिन मांगे ही ... ताकि हमारा भविष्य ठीक रहे ,  हम ठीक रहे ... किसी पर एहसान के लिए नहीं स्वयं अपने भले के लिए ...  

                          यह जान लो यह चिप मानसिक कर्म पर अगर इतनी संवेदनशील हैं तो वाचिक और कायिक कर्म पर कितनी होगी ... साफ हैं 

                        अतः इस चिप को मैली मत करो ... और जो कुछ मैली हैं उसे डिलीट करो ... यह दोनों बात मिल कर ही पूर्ण धर्म हुआ ...

                        एक बार भगवान् बुद्ध के पास एक बुढिया  मायी आई ... और निवेदन किया ... मुझे सरल - सरल शब्दों में धर्म समझाए महाराज ... मैं भी समझना चाहती हूँ ... भगवान् ने कहा धर्म समझना बड़ा सरल हैं ... सुनो मायी तुम भी सुनो ... 

   1) सभी अकुशल कर्मों से ( मानसिक,  वाचिक, शारीरिक ) दूर रहना धर्म हैं ...

    2)  सभी कुशल कर्मों से ( मानसिक,  वाचिक, शारीरिक ) के संग्रह को बढ़ाना  ( सकारात्मक होकर जीना ) धर्म हैं ... 

    3) मन को निर्मल करते रहना ( मन के मैल डिलीट करते रहना )... धर्म हैं 

                            पूर्ण धर्म हैं 

                                                     भला हो !!!



सोमवार, 21 जनवरी 2013

अपने मालिक आप क्यूँ न बने ...


                बकी छोडो जिसने अपने घर , अपने परिवेश या कहीं भी जब भी कुछ लुटा है ... बुरे कर्मों के दुष्फल उसे मिले हैं .... और मिल रहे हैं .... और मिलेंगे .... करनी के फल टल  नहीं सकते .... और इसी को होनी कहते हैं 


                     हमें जब फल मिलते हैं ....तब उनकी ओर  ध्यान रहे की निश्चय ही हमारे पूर्व कर्मों के फल हैं ....अगर हम यूँ नहीं करते तो ... हम एक तरह से कर्म के नियम की अनदेखी करते हैं .... और हमारे  मन में वर्तमान फलों के प्रति अनजाने में ढेर सारा द्वेष भरकर जाने-अनजाने फिर बार-बार  द्वेष के बीज बोते ही जाते हैं ... रुकते नहीं ... और धीरे धीरे यह आदत बन जाती हैं 

                   अब भविष्य में फिर कैसे फल मिलेंगे ... यह फिर किसी से छुपा नहीं रहता .

                     द्वेष में डूबा मानव , मन ही मन कहीं ना कहीं अपने भविष्य के प्रति आशंकित हो उठता हैं ... और फिर मन में सद्भाव जगाने की जगह गलती से फिर द्वेष के बीज  बोता जाता हैं ...  यूँ सिलसिला ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता ... और वैसे फल आयेंगे ही जैसे कर्म किये थे ... अतः दुनिया का सर्वश्रेष्ट ज्ञान हासिल होते हुए भी उसका अनुपालन नहीं कर सकने के कारण दुखों से घिरा रहता हैं ... कोरा ज्ञान काम नहीं आता .

                    कहने का आशय हैं ... इस तरह से मानव स्वस्थ प्रतिस्पर्धा से विमुख होकर अपनी उर्जा की बड़ी मात्रा द्वेष दूषित कार्यों में लगाता हैं ... और उम्मीद करता हैं की सुफल क्यूँ नहीं आते ? ... और अपने आसपास किसी में उसके सद्कर्मों के सुफल आते देख इर्ष्या की जलन के बीज बोता हैं , और यूँ इस तरह निंदा कर्म करने वालों के समूह से अनायास ही  समरस होता जाता हैं ... यूँ अपने आस पास द्वेष दूषित लोगों के समूह में बढोतरी होते देख उस पर ही गर्व  करने लगता हैं ... फिर अंत कहाँ भाई ... जैसे कर्म वैसे फल उस समूह को भी मिलते ही हैं ... इतिहास गवाह हैं ... फिर भी कर्मों के सिद्धांत को ऊपर-ऊपर से मनाता तो हैं ... पर उसका पालन नहीं करता ... और अपने सिद्धांतो पर नाज ज़माने भर का करता हैं ... पर अमल नहीं करने से स्वयं भी दुखी-संतापित होता रहता हैं ... और जो उसके पास होता हैं ... वहीँ दूसरों में भी बांटता रहता हैं ... यूँ दुखों का  दुश्चक्र उसका पीछा नहीं छोड़ता जिस तरह से गाड़ी में जुते  बैल की तरह गाड़ी उसका पीछा नहीं छोडती ...

                  इसके विपरीत याने सद्भाव मन में जगाता हुआ व्यक्ति सद्भावना के फलों से सराबोर रहता हैं ... अपने पूर्व  के  सद्भावना के फलों के कारण वह प्रकाश में जन्म लेता हैं ... और प्रकाश की ओर  ही आगे बढ़ता हैं ... ज्यूँ हमारी परछाई हमारे साथ -साथ चलती हैं .... सद्भावना के फल भी इसी तरह साथ हो जाते हैं ...

                   किसी  व्यक्ति का कोई नाम हो , वह कहीं भी जन्मा हो  , हमें यूँ लगता है की उसके नाम से या उसके जन्म लेने की स्थिति से वह अकारण ही जरुरत से ज्यादा पा रहा हैं ... पर ऐसा  नहीं होता ... कर्मों के फल यथोचित ही मिलते हैं ना कम ना ज्यादा ...

                   यही कारण है की कोई नाम हो , कहीं जन्मा हो ....चाहे सुन्दर और लोकप्रिय नाम हो  या हो उन्नत परिवार की माँ की कोख ..... या हो असुंदर और अलोकप्रिय नाम या हो  या हो अकिंचन माँ की कोख कोई फर्क नहीं पड़ता .... 

                  गांधीजी के जन्म से कहीं नहीं लगता था की सोने का चम्मच लेकर पैदा हुए थे ... पर अपने पूर्व संचित प्रकाश के कर्मों की वजह से और इस जन्म में भी प्रकाश के ही  कर्म करते हुए उन्हौने वह स्थिति हासिल की ही जहाँ से जमाना उसने आज भी मार्गदर्शन लेता हैं ...

                   और किसी-किसी ने अपने पूर्व कर्मों की वजह से भली  और कुशल स्थितियों में जन्म लेकर आगे और उन्नति की ही हैं ... जैसे नेहरूजी ... जिनकी भूरी भूरी प्रसंशा हमारे अटल जी भी करते ही रहे हैं ... और स्वयं अटल जी भी एक उदाहरण  हैं की किसी तरह विपरीत परिस्थितियों में भी उनके कर्मों के फलों के फलस्वरूप वे उंचाईयों को हासिल हुए ...

                दुनियां में चार तरह के लोग होते हैं 

              1) वे लोग जो वर्तमान में अन्धकार में हैं पर अपने कर्म यूँ कर रहे है की प्रकाश की ओर  बढ़ते जा रहे हैं 

                2) वे लोग जो वर्तमान में अन्धकार में हैं पर अपने कर्म यूँ कर रहे है की फिर अन्धकार की ओर बढ़ते जा रहे हैं 

               3) वे लोग जो वर्तमान में प्रकाश में हैं पर अपने कर्म यूँ कर रहे है की फिर अन्धकार की ओर  बढ़ते जा रहे हैं 

             4) वे लोग जो वर्तमान में प्रकाश में हैं पर अपने कर्म यूँ कर रहे है की फिर प्रकाश की ओर बढ़ते जा रहे हैं 

हम अपनी स्थिति चुने अपने मालिक आप बने 

भगवत गीता जी को केवल माने ही नहीं उस पर अमल तो करें ... केवल मानने से कभी किसी को आज तक कुछ भी हासिल नहीं हुआ .... भला हो