गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

जब हम विश्व गुरु थे !!!


                 मितरो असहिष्णुता क्यों फैलती है ? अगर इस पर विचार करें तो पाएंगे की सम्प्रदाय ही इसके बढ़े कारण होते हैं । सम्प्रदाय अपना मुख्य काम समता प्रदाय करने की जगह विषमता प्रदाय अधिक करते हैं । आपसी सौजन्यता और सहिष्णुता ही हर तरह के विकास और उन्नति का बड़ा और प्रमुख आधार होता हैं । आओ जाने की तब हमारा लोक व्यवहार कैसा था ? जब हम विश्व गुरु थे ।

                       तो आओ मित्रों आज हम सम्राट असोक के एक शिलालेख ( गिरनार शीला द्वादस अभिलेख ) पर नज़र डालते हैं ।और समझने की कोशिश करते हैं क्यों उस कालखण्ड में हम विश्वगुरु थे । उस समय भी भारतवर्ष में 60 के आसपास सम्प्रदाय थे । पर असोक के सुराज में सभी में कमाल का बेलेंस था ।

गिरनार शिलालेख पर सम्राट असोक लिखवाता हैं :

1. देवनांप्रिय प्रियदर्शी राजा ( सम्राट असोक ) सब सम्प्रदायोंवालों, गृह त्यागियों तथा गृहस्थों का सम्मान करते हैं । ( वे ) दान और विविध प्रकार की अर्चना से उनका सम्मान करते हैं ।

2. किन्तु देवानां प्रिय दान अथवा अर्चना को उतना ( महत्वपूर्ण ) नही मानते जितना इसे की सब सम्प्रदायों में सार की वृद्धि हों ।

3. सार की वृद्धि अनेक प्रकार से होती हैं ।

4. किन्तु इसका मूल आधार यही हैं की वाणी पर नियंत्रण बना रहे । सो क्या ? कि बिना प्रसंग के अपने सम्प्रदाय की बड़ाई और अन्य सम्प्रदाय की निंदा ना हो अथवा प्रसंग विशेष में साधारण सी चर्चा हो ।

5. जिस किसी प्रसंग में अन्य सम्प्रदाय की प्रशंसा ही की जानी चाहिए ।

6. ऐसा करता हुआ व्यक्ति अपने सम्प्रदाय की उन्नति करता हैं और अन्य सम्प्रदायों पर भी उपकार करता हैं ।

7. इसके विपरीत करता हुआ व्यक्ति अपने सम्प्रदाय की हानि करता हैं और अन्य सम्प्रदायों पर भी अपकार करता हैं ।

8. क्योंकी जो कोई अपने सम्प्रदाय के प्रति आसक्ति होने के कारण कि कैसे मैं अपने सम्प्रदाय को प्रकाशित करूँ , अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और अन्य सम्प्रदाय की निंदा करने लगता हैं - वह ऐसा करता हुआ वास्तव में अपने सम्प्रदाय की खूब बढ़चढ़ कर हानि करता हैं ।

9. इसलिए मेलजोल ही उत्तम हैं । सो क्या ? कि लोग एक दूजे के धर्म ( अर्थात , धारण करने योग्य तत्व ) को सुने और सुनाये ।

मित्रों आजकल हो क्या रहा हैं हम ध्यान से देखें तो जो उपरोक्त शिलालेख में कहा गया है उसका बिलकुल उलट ही हो रहा हैं । अतः हमें सही लोकव्यवहार सीखना ही होगा ।

अगर हम म. गांधी के जीवन को देखें तो पाएंगे वे इस लोकव्यवहार में अधिक कुशल थे । उन्होने कभी किसी अन्य सम्प्रदाय की निंदा नही की , । हाँ अपने स्वयं के सम्प्रदाय की कमियों पर किसी प्रसंग विशेष में कभी कभार जब जरुरी हुआ कहा । मेलजोल को ही महत्व दिया । जब कभी जरुरी लगा दूसरों के सम्प्रदाय के सार तत्वों को ही महत्व दिया और सभी सम्प्रदायों के धारण करने योग्य गुणों को बखान ना करके करके उन्हें धारण करके भी दिखाया । तभी तो वे विश्व को भारतवर्ष के अतीत की झलक दिखला पाएं । और विश्व का उनमें कमाल का भरोसा जागा ।

सोमवार, 30 नवंबर 2015

" धर्म को धर्म ही रहने दो "



दुनिया का कोई धर्म हो शुरुआत में बहुत शुद्ध होता हैं । और उसके अनुयायी धर्म को कैसे धारण करे इसपर सारा जोर लगाते हैं । धर्म को जीवन का अंग बना लेते हैं । 

          जैसे सदाचार, शील और मन के विकारों से लड़ना तथा मन पर काबू पाना धर्म के मूल अंग है और लगभग सभी धर्मों के मूल अंग हैं । फिर धीरे धीरे धर्म धारण करने में शिथिलता आती जाती हैं । तो धर्म धारण करने से जो वास्तविक लाभ मिलते हैं उनसे हम वंचित होते जाते हैं । जब धर्म जीवन में नही उतरता तो लोग उसकी तरफ स्वभाविक आकर्षण खोते जाते है । उसके अनुयायियों की संख्या कम होने लगती हैं । अब उस उस धर्म के बड़े लोग या साफ कहें तो ठेकेदार चिंतित होते हैं । तो वे शार्टकट की तरफ आकृष्ट होते हैं । मानों जैसे धर्म को ओढ़ना सिखाते हैं । किसी भी चीज को ओढ़ना बड़ा आसान होता है ना इसीलिए बस कहते हैं अरे भाइयों इतना तो करो - ये ये तीज त्यौहार मना लो , ये ये व्रत उपवास रोजा या फ़ास्ट इत्यादि रख लो , इस इस तरह की वेश भूषा पहना करो , इस इस तरह के चिन्ह धारण करो , इस इस तरह की प्रार्थना करो । 

                     तो वे लोग देखते हैं की लोगों को या कहे उनके अनुयायियों को ये करना आसान लगता हैं । और वे सब आसानी से पहचाने जाते हैं कि अरे ये ये फलां फलां धर्म के लोग हैं । बाड़े बन्दी आसान होती हैं । पर मितरो ये तो शुद्ध दिखावा हुआ ना ? और दिखावे से भला कब धर्म जीवन में उतरा हैं । सो लोग अपने अपने मनों में टनों मैल लिए चलते हैं । और खूब भ्रम में रहते हैं देखों मैं कितना धर्मवान हूँ ना । परन्तु ये मन के मैल उसका लोक व्यवहार सुधरने नही देते और लोक व्यवहार असहिष्णुता, बैर भाव और घृणा द्वेष से भरा हो तो खुद भी दुखी रहते हैं और फिर दुःख अपने तक सिमित नही रखते औरों को भी बांटते हैं । दिखावे जोड़े तो जाते है भले के लिए पर धीरे धीरे ये ही प्रमुख हो जाते हैं और धर्म गौण हो जाता हैं । घर्म गौण हो जाता है फलदायी नही रहता । निष्प्राण और निस्तेज हो जाता हैं । 

                  मितरो म. गांधी शुद्ध धर्मिक व्यक्ति थे । अगर आप ध्यान से देखें तो उन्होने कभी धर्म को ओढ़ा नही । उसका दिखावा नही किया । इसीलिए खुद भी धर्म से खूब लाभान्वित हुए और सारे जीवन सबको प्रेम और सद्भाव ही बांटते रहे । म. गांधी का अपने मन पर काबू था । और निरंतर वे मन को शुद्ध करते रहते थे । तभी तो किसी के भी प्रति उनके मन में दुर्भाव नही जग पाता था । तभी तो सबको उनसे अभय मिलता था । तभी वे सबको और सब उनको प्रेम कर पाते थे ।

सबका भला हो ।
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रविवार, 15 नवंबर 2015

गांधी की शक्ति

म. गांधी ने कभी तीन चार दल नही बनाये । माने अलग अलग नामों से । जिसमें कुछ हिंसा को अपनाते, और कुछ अ हिंसा का स्वांग रचते । कुछ लोगों को जाती धर्म के आधार पर बांटते और कुछ एकता का राग अलापते ।

उन्होंने बस अपना एक ही रस्ता चुना और भी सविनय अवज्ञा और सम्यक अहिंसा के साथ ।

इसी कारण उनकी शक्ति बंटी नही एक रही । वरना क्या होता उनका कोई एक दल लोगों को बांटता और एक जोड़ने का दिखावा करता तो फिर गांधी कैसे सफल होते और देश दुनिया में जाने जाते ।

दोस्तों बापू बड़े सजग रहते थे । दोगलेपन और उसे अपनाने वाले अपने साथियों पर कड़ी नज़र रखते थे । हम अगर ध्यान से देखें तो उन्होने अपने कई साथियों को लाख अच्छे होने के बावजूद भी जब देखा की उनका झुकाव भेदभाव की तरफ है या हिंसा की वकालत करते है को देर नही की अपने से दूर कर दिया ।

तो दोस्तों , इसी आधार पर गांधी की जन स्वीकार्यता बढ़ी और सम्पूर्ण विश्व में अपने आप फैली। लोगों का विश्वास उन पर बड़ा । अतः जो भी हमारे विचार हों उन पर कैसे दृढ़ रहना ये हमें बापू से सीखना चाहिए और नकलीपन और दोगलेपन से बचना चाहिए । चाहे हम छोटा काम कर रहे हों या बड़ा इससे कोई फर्क नही पड़ता । फर्क पड़ता हैं विश्वनीयता से । यही कारण है की आज भी हमारी विश्वसनीयता पर कोई ऊँगली उठाये तो बिना देरी हम गांधी और बुद्ध का भरोसा सबको देते हैं । और दुनिया हमारा मान रखती हैं ।

आज के हालातों में हम देखें तो पाएंगे दोगले लोग बहुत देर तक सफलता के शिखर पर नही रह पाते क्योंकि उनका दोगलापन और नकलीपन उन्हें शिखर से नीचे खिंच लाता हैं ।

बापू तुम फिर आना मेरे देश ।

रविवार, 8 नवंबर 2015

नया काम …


1947 में जब हम आज़ाद हो गए तो म. गांधीजी को एक नया काम मिल गया और वो था " हिन्दू मुस्लिम एकता का " काम । हमारे कौमी नेताओं के चलते दोनों समुदाय एक दूसरे के प्रति नफरत के शिकार होकर भटक गए थे ।

                    म. गांधी 28 अप्रैल 1947 अपनी शाम की प्रार्थना सभा में वे कहते है - "आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मुझे ऐसे पत्र मिलते रहते है , जिनमें मुझपर ये आरोप लगाया जाता है की मुसलमानों के मित्र का काम करके मैंने हिन्दू हितों को हानि पहुंचाई हैं । यदि मेरे 60 वर्षों के सार्वजनिक जीवनसे यह प्रत्यक्ष प्रमाण नही मिला तो मैं शब्दों से लोगों को यह विश्वास कैसे दिला सकता हूँ कि मुसलमानों का मित्र बननेकी कोशिश करके मैंने अपने को एक सच्चा हिन्दू ही सिद्ध किया हैं । और हिंदुओं की तथा हिन्दू धर्म की सच्ची सेवा की हैं । सभी धर्मों की सच्ची शिक्षा का सार यही है की सबकी सेवा करना और सबका मित्र बनना चाहिए और बिना भेदभाव ईश्वर की समग्र सृष्टि की सेवा के द्वारा ईश्वर की सेवा करनी चाहिए । यह पाठ मैंने अपनी माँ की गोद में सीखा था ।

                       अपने मित्रों के प्रति मित्रता का भाव रखना बहुत आसान है । परन्तु जो अपने को हमारे शत्रु समझते हों उनसे मित्रता करना ही सच्चे धर्म का सार हैं ।"

                          इस दिन बापू रात को 9:30 बजे ही सोने चले गए थे कारण उपवासों के चलते थोड़ी कमजोरी भी थी । पर अचानक रात में नींद खुली तो ध्यान आया की सोने से पहले सूत कताई का काम तो वे भूल गए थे सो उन्होने देर रात कुछ देर सूत काता और फिर सो गए ।

                             मितरो, भूल सुधार करने में म. गांधी एक क्षण की भी देरी नही करते थे ।।

बुधवार, 4 नवंबर 2015

सहिष्णुता का मोल समझे

हमारे देश में कितनी विविधतायें है देख कर अचरज होता है । ये विविधतायें ही हमारी असली ताकत हैं । इतनी विविधतायें किसी एक देश में संसार में और कहीं नही हैं ।

भारत की जनसंख्या का लगभग 13 से 18 प्रतिशत हिस्सा ऐसा भी है जो जनजातियों से हैं । ये जनजातियां सम्प्रदाय, उंच नीच , जात पात , पोथी पुराण , रीतिरिवाज , खानपान , पहनावा , दिखावा , धर्म की रक्षा , आधुनिक शिक्षा और संस्कृति से कहीं दूर अपनी ही दुनिया में मस्त रहती हैं ।

इनके परिवेश को सुरक्षित संरक्षित करने के लिए सरकार भी कई कदम उठाती हैं । नीरव जंगलों में, भौतिकता से दूर सुदूर पहाड़ी अंचलों ये सभ्यता अपनी तरह से अपनी दुनिया में जीती हैं और वो भी बिना शिकवा शिकायत के । बिना शोर के ।

कभी-कभी लगता हैं अगर ये लोग हमारी शहरी सभ्यता में रूचि लें तो शायद अचरज करेंगे की हम लोग किस तरह से खानपान के लिए , संप्रदाय की रक्षा की चिंता और उंच नीच के लिए दिन रात लड़ते झगड़ते और सभ्य होने के फेर में असभ्यता की गला काट प्रतियोगिता में उलझे रहते हैं ।

भला हुआ की ये जनजातियां सम्प्रदायवाद से दूर, जातपात से दूर, विकास से दूर, सुविधाओं से दूर अपना जीवन गुजार कर हमें आइना दिखाती रहती हैं ।

आओ हिलमिल रहे । अपने से अधिक दूसरों की चिंता करें ।सहिष्णुता का मोल समझे । जियो और जीने दो के सन्देश की महत्ता समझे ।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

इंदु बनी इंदिरा


थोड़े से मेकअप के बाद इंदिरा जी ने अपनी साड़ी की तहों को ठीक किया और मेकअप मेन का शुक्रिया अदा किया और चल दी अपने घर से लगे कार्यालय की तरफ कोई दो सौ मीटर का फासला तय करते ही उनका एक विदेशी न्यूज एजेंसी के साथ इंटरव्यू का प्रोग्राम निश्चित था । दीवाली की रात बीत चुकी थी पर अभी भी पटाखों की आवाज कभी-कभी वातावरण में गूंज उठती थी । दूसरी तरफ इंटरव्यू स्थल पर लॉन की भी साफ सफाई लगभग पूरी हो चुकी थी ।

इंदिराजी सधे हुए पर तेज कदमों से आगे बढ़ रही थी । वे तय कार्यक्रम से कुछ मिनिट लेट थी । तभी सामने आफिस की सुरक्षा चौकी पड़ी उसमें उनके पसन्दीदा दो सिक्ख जवान तैनात थे । उन्हें सामने देख इंदिराजी मुस्कुरा उठी और उनसे "नमस्ते" कहा । तभी एक सिक्ख जवान ने अपनी पिस्तौल से उन पर एक के बाद एक तीन गोलियां दाग दी । उसके बाद दूसरे ने तो उन पर धड़ाधड़ सैकड़ों गोलियां दागी । इंदिरा जी के बूढ़े पर मज़बूत निर्भय शरीर से रक्त फुट पड़ा । आज जैसे उनका संकल्प पूरा होने को आया था । उनकी इच्छा थी उनके खून का एक एक कतरा देश के काम आये । और आज उन गुमराह सिक्ख युवकों के गुस्से को एक तरह से निकालने के लिए उनका खून बड़ी तेजी से बह रहा था । दोनों सिक्ख जवान इस दुष्कृत्य को करने के बाद भागे नही, शांत रहे क्योंकि एक माँ ने उनके गुस्से को उनसे अलग कर दिया था ।

दरअसल जब कोई समुदाय सम्प्रदाय के आधार पर उन्माद से भर उठता है तो वो अपने ही सम्प्रदाय का सबसे पहले और सबसे बड़ा अहित करता हैं । पंजाब भी कुछ इसी तरह के रस्ते पर था । ऐसे में गुमराह समाज को सही रस्ते पर लाने के पीछे मंशा यही होती है की सब हिलमिल रहे और आतंक की जगह शांति का राज हो । बाद में हम देखते है की इंदिरा जी के कुछ कड़े कदम पंजाब में सुख और शांति के लिए अभूतपूर्व हिम्मतवाले और कारगर कदम रहे भले जिसके लिए उन्हें अपनी जान भी गंवानी पड़ी ।

मितरो,  वो माँ सचमुच बड़ी बहादुर होती हैं जो अपनी भटकी हुई सन्तान को भले रस्ते लाने के लिए कड़े फैसले लेने से भी नही हिचकती है पर उन सबके पीछे उस माँ का अपनी सन्तान के प्रति अतुलनीय भरोसा और प्रेम ही रहता हैं । और उसे ये ख़ौफ़ नही सताता की अपनी सन्तान के लिए उसके कड़े फैसले से उसकी ही जान पर भी खतरा आ सकता हैं । इंदिरा जी ने उन सिक्ख युवकों पर खूब भरोसा किया था जैसे कोई माँ अपनी सन्तान पर करती हैं ।

जो हो,  बचपन में अपनी सुरक्षा को लेकर डरने वाली इंदु अब इंदिरा बन चुकी थी । और हम देखते है अपने किसी सूबे की खुशहाली  लिए उन्होने अपने प्राण भी न्योछावर कर दिए थे और अपने पिता की सीख को जमीन पर उतार दिया था की केवल अपनी सुरक्षा के बारें में ही नही सोचो अपने साथ सबकी सुरक्षा की चिंता करो । और ये बात इंदु से तब कही थी जब वो पहाड़ी रास्तों पर दौड़ती कार में बैठी-बैठी डर रही थी और कार से उतरने की जिद कर रही थी ।

इंदिरा जी ने एक नही कई कड़े फैसले लिए जो देश हित के मामलों में अभूतपूर्व और बेमिसाल रहे । उन्होने देश हित से आगे बढ़कर पड़ौसी देश बंगला देश के हित सुख के लिए भी वो कदम उठाये जिनकी आज कल्पना भी नही की जा सकती हैं ।

भारत को गर्व है अपनी बहादुर स्त्री शक्ति पर । इंदिरा गांधीजी की स्मृति को सादर नमन ।

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

गांधीजी की ऐश ट्रे !!!


गांधीजी की ऐश ट्रे !!!

हिंदुस्तानी प्रचारसभा की बैठक गोबर लिपि जमींन पर सेवाग्राम की गांधी कुटी में चल रही थी । कुर्सियों के आभाव में सभी जमीन पर बैठे थे । काका साहेब कालेलकर, पं. सुन्दरलाल, डॉ ताराचन्द, श्रीमनन्नारायन और स्वयं बापू । इस मीटिंग के तुरन्त बाद मौलाना आज़ाद के साथ गांधीजी की एक जरुरी मीटिंग थी । अतः अगली मीटिंग से जरा पहले बापू अपनी जगह से उठे और एक कुर्सी मंगवाई तथा एक छोटी तिपाही स्वयं ले आये । फिर एक आले में रखा मिटटी का छोटा पात्र उस तिपाही पर रख दिया ।

चल रही मीटिंग में से किसी ने बापू से पूछ लिया कि ये कुर्सी और तिपाही क्यों लगाई । तब बापू ने हंसकर कहा " मौलाना आने वाले है ना उन्हें जमीन पर बैठने की आदत नही हैं । ये सारा प्रबन्ध उन्ही के लिए हैं ।

और वह मिटटी का छोटा पात्र किस लिए है ? फिर प्रश्न आया ।

ओह' उसका पूछते है ? वह ऐश पॉट हैं । फिर गांधी ने उन्मुक्त हंसी बिखेरते हुए पूछा । क्यों ? कैसी है कल्पना ?

जो लोग मौलाना आज़ाद की धूम्रपान की लत से परिचित थे उस ऐश पाट का रहस्य तुरंत समझ गए ।

मितरो म. गांधी जिस किसी को एकबार अपना मान लेते थे फिर किस तरह उसे पूरा अपनाते थे और वो भी बिना अपनी बात थोपे हुए । याने दूसरों की वैचारिक स्वतंत्रता और आदतों का कितना बारीक़ ध्यान रखते थे की उनके साथी असहज ना महसूस करें । इसीलिए तो वे अपने साथ विभिन्न सम्प्रदायों, वर्णों, जातियों और बोली भाषा और देश विदेश के प्रतिभावान , तेजस्वी और गुणी स्त्री पुरुषों को अपने साथ जोड़ सकें और वो भी अक्षुण्ण भरोसे के साथ ।

बापू तुम फिर आना मेरे देश !!!

सोमवार, 21 सितंबर 2015

" Wow कित्ती बड़ी "



                          बुद्ध ने स्वयं व्यक्तिपूजा को कभी प्रोत्साहन नही दिया । जब जब भी कोई उनसे पूछता की भगवान सुझाये हमें की हम किस तरह से आपकी वन्दना करें , तब तब वे यही समझाते की किसी भी अपने आराध्य के सगुण अपने अंदर उतारने से अधिक उत्तम कोई वन्दना नही होती उस आराध्य की । इसलिए बुद्ध के जीवनकाल में उनकी कोई मूर्ति नही बनी लोग वस्तुतः बुद्ध के गुणों को ही धारण करते थे और इस तरह बुद्ध के अनुयायी बनते थे । और बुद्ध के बताये मार्ग पर चलकर बुद्ध बनते रहे थे । उस समय लाखो करोड़ों लोग अरहन्त की अवस्था तक की ऊंचाइयों पर पहुंचे थे ।

                      पर कालांतर में बुद्ध के बाद धीरे धीरे बुद्ध की वास्तविक शिक्षा को प्रमाद वश ना जारी रखकर केवल बुद्ध के गुणगान की तरफ झुकने लगे । गुणगान करना भी बुरा नही होता पर इससे किसी में भी वे बदलाव नही आते जिन जिन गुणों के कारण उसके आराध्य जाने जाते हैं । और जब लोग देखते है की इनकी कथनी और करनी में अंतर हैं सो उस उस आराध्य की शिक्षा कमजोर पड़ने ही लगती हैं । फिर उस कमजोर होती शिक्षा को भक्त लोग बाहरी दिखावों से, रंग वेश भूषा पहनावे से, रंगो और प्रतीकों से और उनके प्रदर्शन से बलपूर्वक बनाये रखने का प्रयत्न करते हैं । और फिर इस तरह की कोशिश करते समूह कभी कभी नही सर्वदा एक दूजे से टकरा भी उठते हैं । बहस करते है किसकी कितनी पुरातन मूर्ति या कौन कितना पुराना इत्यादि सांप्रदायिक विषयों में उलझकर इंसान धर्म के सार को भुलाकर निस्सार में ही उलझकर रह जाता है और वो भी इस गुमान में की उस सा धार्मिक और कोई नही !

                   फ़िलहाल तो आओ मितरो,  भारत के बाहर स्थित इस ऊँची और विशाल बुद्ध प्रतिमा को देखें और सोचें की क्या खूबी रही होगी इस भारत के सपूत में जो सारी दुनिया में लोग इन्हें श्रद्धा से देखते हैं और क्या मैं इनके सद्गुण अपने अंदर उतार सकता हूँ ?

   सदगुरु तुम मिलते नही,
धर्मगंग के तीर ।
तो बस गंगा पूजता,
पी नही पाता नीर ।।

सोमवार, 7 सितंबर 2015

पत्थरो में दर्ज इतिहास ...

बुद्ध और उनकी शिक्षा भारत से लुप्त होने से पहले खूब तेजी से लोगों पर अपना असर छोड़ने लगी । जैसे दिया बुझने से पहले अपनी रौशनी बढ़ा देता हैं । पर बुद्ध  की शिक्षा बुद्ध के जाने के बाद  लगभग 500 वर्षों तक विश्व जन कल्याण करती रही ।

किसी भी शिक्षा के दो मुख्य पहलु होते हैं । एक बौद्धिक और दूजा व्यवहारिक । बुद्ध का जोर शिक्षा के व्यवहारिक पक्ष पर अधिक था । वे कहते थे व्यवहारिक पक्ष मज़बूत होगा तभी लोगों को आकर्षित करेगा । मेरी शिक्षा से लोगों का जीवन बदलता है वे सुखी और शांत होते है तो लोग सहज इसकी तरफ आकर्षित होंगे । परन्तु कालांतर में व्यवहारिक पक्ष कमजोर होने लगा और बौद्धिक पक्ष पर ही लोग ज्यादा ध्यान देने लगे । इससे हुआ ये की लोग चर्चा तो बहुत करते थे पर उसका पालन नही करने से उनमें कोई बदलाव नही आता था उलटे अधिक कट्टर और असहिष्णु होने लगे । विवाद बढ़ते गए । व्यवहारिक पक्ष कमजोर होने से बुद्ध की शिक्षा के वो परिणाम नही मिलने लगे जिनकी आशा की जाती थी । अतः उनकी शिक्षा बहुत भली होने के बावजूद कमजोर पड़ने लगी । और कमजोर पड़ती शिक्षा लुप्तता की ओर तेजी से अग्रसर हुई ।

फिर भी जहाँ- जहाँ बुद्ध की शिक्षा गयी वहां वहां वो पत्थरो में अवश्य दर्ज होती रही । महाराष्ट्र की आध्यात्म के रूप में उर्वरा भूमि पर तो बुद्ध के काल का इतिहास पत्थरों पर खूब लिखा गया और यहाँ- वहां बड़ी मात्रा में बिखरा पड़ा हैं । और हर्ष की बात है की द्वितीय बुद्ध शासन भी विश्व में खूब फैले इसका आधार भी महाराष्ट्र ही बना हैं ।

ऐसा ही एक स्थान है "कार्ला" और  वहां की विश्व प्रसिद्द गुफाएं । मुख्य चैत्यगृह आकार में सबसे बड़ा और प्रस्तर पिलरों की बड़ी संख्या से सुसज्जित हैं तथा छत को कमानीदार लकड़ी के पटियों से सहारा दिया है । सारा कौशल विस्मित करता हैं और प्रेरित तथा रोमांचित भी कि भले हमने बुद्ध की शिक्षा को खो देने की गलती की पर पत्थरों में दर्ज इतिहास हमारे साथ अडिग खड़ा रहा । 1909 में अंग्रेज हुकूमत ने इसे विश्व धरोहर के रूप में मान दिया और संरक्षित किया ।

सोमवार, 3 अगस्त 2015

" जिसका कोई नही "

लावारिस " फ़िल्म का यह गीत निराशा के दौर में कमाल की आशा का संचार करने में रामबाण से कम नही हैं ।

बात गहरी कही गयी है पर हल्के फुल्के अंदाज में । " आदमी सौ बार टूटकर जुड़ा है यारों " - ये आध्यात्मिक जगत की बड़ी सच्चाई हैं । और पास कोई नही होता या साथ कोई नही होता तब भी इंसान खुद तो होता ही हैं । उसका आत्म तो होता ही हैं । उसका स्व तो होता ही हैं । बस डूबते को और क्या लगता है एक तिनका का सहारा ही काफी होता हैं ।

सुने किशोर की मस्तमौला आवाज में ये गीत और देखें निराशा के बादल हटने लगते हैं । आशा का संचार होने लगता हैं ।

Watch "Jiska Koi Nahin Uska Tu Khuda Hai Yaaro - Kishore Kumar - Laawaris (1981) - HD" on YouTube - https://youtu.be/f3FQ5xj_5bc

" सीधी ऊँगली से घी नही निकलता "

क बहुप्रचलित कहावत हैं । और साम- दाम-दंड- भेद में अत्यधिक विश्वास रखने वाले अपनी करतूतों को जस्टिफाई करने में इसका सहारा अवश्य लेते है । पर जब इसी बात का सहारा उनका विरोधी लें तो परम नैतिकता को ओढ़ लेते हैं । इससे शुरूआती सफलता तो मिलती हैं पर दोगलापन उजागर हो जाता है । विश्वसनीयता घटती जाती हैं ।


मित्रों - संसार के सबसे लोकप्रिय जननेता म. गांधी " साम-दाम-दंड और भेद " की घटिया नीति से सर्वथा दूर रहे । चंपारण की उनकी प्रथम लढाई में ही उन्हें उल्लेखनीय जीत हासिल हुई थी । नील की खेती करने वाले अंग्रेज कारोबारियों के चुंगुल में वहां के किसान बुरी तरह जकड़े हुए थे । अंग्रेज जज , अंग्रेजी अदालतें , अंग्रेजी कानून और अंग्रेज ही पुलिस थी । घोर विपरीत स्थितियां थी । उन स्थितियों में सत्य और अहिंसा के सहारे अंग्रेज सरकार को मजबूर कर देना की वो अपने फायदे के कायदे को वापस ले ले सोचना भी आसान नही था ।


पर बापू ने असीमित धैर्य, असीमित करुणा और असीमित मैत्री का सहारा लिया , साम दाम दंड भेद की घटिया नीति पर नही चलें और सफल हुए ।


आशय ये के घी सीधी ऊँगली से भी निकल सकता है , बस सत्य की आंच थोड़ी सी और अहं का झुकाव ही तो घी के पात्र को देना होता है और सहज साफ सुथरा और निरापद घी मिल जाता हैं । फिर चाहो तो पूरा पात्र खाली कर दो । और बापू ने यही तो किया सारा देश अंग्रेज मुक्त हुआ । सबने देखा ।


बापू , तुम फिर आना मेरे देश |||

रविवार, 14 जून 2015

हिसाब दो ,,,

          हिसाब मांगने का भी अजीब रिवाज है । बड़ी आसानी से कोई भी किसी से भी हिसाब मांग लेता हैं । और आजकल की अपनी किन्ही उपलब्धियों पर कुटिल मुस्कान बिखरते हुए बड़े अहम भाव से पूछने लगता है, क्या किया तुमने अब तक ?

            ठीक इसी पल वो ये भूल जाता है की सवाल पूछने की काबिलियत के आधार के पीछे भी जिससे सवाल पूछ रहा है उसकी मेहनत तो नही है ?  पर दुनिया सवाल पूछने वाले की तरफ अधिक आकर्षित सहज ही हो उठती है । क्योंकि मानव मन की यह सहज प्रवृत्ति हैं ।

            ऐसे सवालों का एक ही सटीक जवाब हो सकता है कि सवाल पूछने वाले से ही प्रतिप्रश्न पूछा जाय या उसे ये देखने के लिए कहा जाय की समान स्थितियों में और किसने कैसा परफार्म किया है ?

            हम जब आज़ाद हुए, तब हमारे आगे-पीछे कई और देश भी आज़ाद हुए । कोई धार्मिक राज्य बना तो कोई पंथ निरपेक्ष , कहीं लोकतंत्र चुना गया तो कहीं राजतन्त् / सैनिक तंत्र । फिर भी अगर ध्यान से देखेंगे तो सामाजिक हों या आर्थिक हों , वैज्ञानिक हों या तकनीकी हो , शिक्षा हो या स्वास्थ्य हो, लगभग सभी क्षेत्रों मे तमाम विषमताओं जैसे साम्प्रदायिकता और जातिवाद की विषमताओं के बाद भी हमने सर्वाधिक और गर्व दे सकें ऐसी उपलब्धियां पाई हैं ।

            आओ, नैतिक बल के महत्व और ईमानदारी की निति पर शालीन और विनम्र रहकर अधिकाधिक चल सकें इसका प्रयास करें । आखिर ये ही तो सबका "आधार" हैं ।
सबका भला हो ।






गुरुवार, 11 जून 2015

विश्व गुरु होने से पहले

भारत एक तरह से विश्व का प्रतिबिम्ब हैं । विविधतायें इसकी खूबी है । विश्व के लगभग हर धर्म और सम्प्रदायों की यहाँ ब्रांचेज हैं । इस भूमि पर ही उत्पन्न हुए कई धर्म और उनके सम्प्रदाय अरबों खरबों सालों से इस धरा पर हैं । सभी सम्प्रदाय अपने आप को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं और सभी लगभग कई मुद्दों पर एक दूसरे से विभिन्न मत रखते हैं । दुनियां भर की छुआछूत, जातिगत समाज की कुव्यवस्था और गरीबी तथा वैभव की खाइयां होते हुए भी इंसान इंसान के बीच सद्भाव कैसे कायम रहे इसकी अद्भुत मिसालें हैं । बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक होने के फायदे है तो नुकसान भी हैं । 

                         कभी विश्वगुरु होने का गुरुर है तो आधुनिक टेक्नोलोजी विश्व से हासिल करने की आतुरता भी हैं , लालच भी हैं । समृद्ध इतिहास है तो उस इतिहास से अनभिज्ञता भी हैं ।  कई वैज्ञानिक अविष्कारों कर सकने का मिथ्या अभिमान भी है तो कई खूबियों के जन्म दाता होने का पता भी नही । विश्व को एक कुटुंब बना देने की विशाल योजना है तो उसकी कोई दिशा नही । कई धर्मों का अविष्कारक होकर भी अभी तक धर्म का मर्म ना समझपाने की घोर लापरवाही भी भावी विश्व गुरु की एक खूबी हैं ।

                         इसीलिए इसकी विविधतायें ही इसकी खूबी हैं । जो विश्व को आइना दिखाते रहती हैं । कुछ ना होकर भी कैसे सब कुछ होने का गर्व किया जाय । कैसे आपस में लड़ते हुए भी जिया जाय । कैसे घोर सामाजिक और सांप्रदायिक विषमताओं में भी जियो और जीने दो को अपनाया जाय ।

                                  वर्तमान में तो भावी विश्व गुरु की विश्व को यही देन हैं ।
सबका भला हो |||

गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

कमजोर की आवाज बनें ..

कमजोर वर्ग की आवाज उठाने वाले को ताकतवर और दबंग मुर्ख कहकर नज़रअंदाज करते दिखें तो समझो उसकी आवाज से दबंगों में बेचैनी हैं ।

और यही बैचेनी जल्द बौखलाहट में तब्दील होकर दबंगो की कमजोरियों को उजागर करती जाती हैं ।

मित्रों म. गांधी भी चंपारण में किसानों की आवाज बने थे । अंग्रेजों ने पहले पहल गांधी का मज़ाक बनाया फिर भी गांधी को सविनय आन्दोलनरत देखकर बौखलाए पर गांधी डटे रहे फिर अंततः किसानों की जीत हुई । इस तरह विनय , धैर्य , सच से लबरेज निरंतरता के आगे दबंग और गर्वीले तथा गांठ गठीले अंग्रेज पस्त पड़ते गए ।

कमजोर की आवाज बनना लोकतंत्र की राह में दुरूह पर करणीय कर्तव्य हैं ।

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

भीड़ तेरा हो भला ...

आओ,  वर्तमान परिवेश के सन्दर्भ में म. गांधी को समझना और फिर अपनी सोच की दिशा तय करना बहुत जरुरी कदम हैं ।

आजकल के बहुसंख्य नेता और हम भीड़ की मात्रा से अपनी सफलता को तौलते है और इस चक्कर में अपने पहनावे तथा बोलने चलने की अदाकारी और कभी कभी तो स्टंट पर भी खूब ध्यान देते हैं । वस्तुतः ऐसा वे मज़बूरी में करते हैं क्योंकि हम जनता भी भीड़ की मात्रा से ही किसी के भले और बुरे होने का अंदाज लगाते हैं ।

मित्रों जैसी जनता वैसे ही नेता बने तो क्या ख़ाक नेतृत्व मिलेगा । जबकि म. गांधी इसके विपरीत थे । वे पहनावे दिखावे और भीड़ के मोह से परे भीतर बाहर से एकदम सादा इंसान थे । इस सदी के भीषणतम दंगे 1947 जो बंगाल के नोवाखलि में हुए थे जब उन दंगो से उबारने के लिए गांधी वहां नेतृत्व के लिए जाने लगे तो सरकार ने भी उन्हें मना किया और उनके कुछ साथी भी घबरा गए । पर वे अपने निहत्थे 11 साथियों और अपनी बूढी काया को लेकर निडर मन और सत्य के बल पर आखिर वहां चले ही गए । और आश्चर्यजनक ठंग से दंगे शांत हुए लोग आपस में फिर एक हुए ।

निष्कर्ष ये के भीड़ को महत्व मत दो । हो सके उतना भीड़ से परहेज करो तभी शायद हम भला और योग्य नेता अपने आप को दे सकेंगे ।

सबका भला हो ।

रविवार, 22 फ़रवरी 2015

चलना तो पड़ेगा !

बुद्ध की देशना पूरी हुई । सभी बुद्ध का अभिवादन कर धीरे धीरे चले गए पर वो बैठा रहा । आज उसे बुद्ध से अपना प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा को शांत करना था । और सबके सामने प्रश्न पूछने में उसे संकोच हो रहा था ।

बुद्ध ने भी मन ही मन उसके जी में उठे तूफान को जैसे ताड लिया था । वो भी मैत्री और मुदिता से भरे चित्त से बैठे रहे ।

जब सब चले गए तो वो उठकर बुद्ध के नज़दीक आया और अभिवादन कर वही बैठ गया । बुद्ध ने मुस्कुराकर उसका हौसला बढ़ाया । दो पल सुस्ताकर वो बोलने लगा ।

भंते , मेरी एक जिज्ञासा है । आप सबको इतना समझाते हैं । भीड़ उमड़ी रहती हैं । पर मैं देखता हूँ  उनमें से कुछ तो पहले से बिलकुल बदल गए हैं, कुछ थोड़े बदले हैं , और कुछ को महाराज बिलकुल फर्क नही पड़ा । पहले जैसे थे वैसे आज भी हैं । जब आपकी शिक्षा भली हैं । सबको बराबर बांटते हैं तो सब पर एक सा असर क्यों नही होता ?

बुद्ध फिर मुस्कुराये और प्रतिप्रश्न किया । कहाँ के रहने वाले हो ?  वो बोला - श्रावस्ती का महाराज । बुद्ध बोले - तब तो यहाँ से श्रावस्ती तक का रास्ता खूब जानते होंगे ?   वो बोला - हाँ महाराज । बुद्ध ने फिर पूछा - कोई तुमसे पूछता है की श्रावस्ती जाने का रास्ता बता दो तो तुम ठीक से बता देते हो या छुपा लेते हो ?    वो तपाक से बोला - इसमें छुपाने का क्या खूब समझाकर बता देता हूँ । बुद्ध ने एक और प्रश्न किया - जब तुम भली तरह समझाकर बता देते हो तो सभी श्रावस्ती पहुंच जाते होंगे ?    अब वो बोल पड़ा - अरे महाराज जो चलेंगे नही,  बस रास्ता पूछेंगे तो भला कैसे श्रावस्ती तक पहुंच जायेंगे । जो चलेगा वही तो कहीं पहुंचेगा ।

अब बुद्ध मुस्कुरा रहे थे, और वो भी |||

मित्रों - म. गांधी भी सत्य के रस्ते चले और अपना एक मकाम बनाया । आज उन्हें उनके समर्थक ही नही विरोधी भी श्रद्धा से याद करते हैं । देश ही नही सारा विश्व उनसे प्रेरणा लेता हैं । उनके साथ उस समय में हज़ारों लोग भी चले और कइयों ने इंसानियत के लिए कई मकाम बनाये । जब हम किसी भली राह चलते हैं तो हमारा भी भला होता हैं और औरों को भी प्रेरणा मिलती ही हैं |||

सबका भला हो ।

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

विरोध की जरूरत ...

महात्मा गांधी लगातार देश में घूमकर अग्रेजों के खिलाफ अलख जगाते थे । पर जिस भी शहर में जाते उनका सामना लगभग हर जगह सबसे पहले उनके विरोधियों के विरोध से होता था । वे ससमय स्टेशन पहुंच कर गांधी का पुरजोर विरोध करते और उनके खिलाफ खूब उग्र नारे बाजी करते थे ।

गांधी और उनके कुछ साथी एकतरफ चुपचाप खड़े रहकर उनको वैसा करने का भरपूर मौका देते थे । जब वे थक जाते तब उनकी तरफ मुस्कुराकर हाथ हिलाते हुए अपने काम के लिए निकल जाते थे ।

इस तरह बिना विशेषप्रयास के उस शहर या गांव में उनके आगमन के बारे में सबको खबर मिल जाती थी ।

एक बार उनके किसी साथी ने उनसे पूछा बापू आपको इनपर गुस्सा क्यों नही आता तो बापू मुस्कुरा कर बोले - इनपर मुझे प्रेम आता हैं इतनी ऊर्जा ये मुझ जैसे फालतू आदमी पर खर्च करते हैं वर्ना मुझे कौन जानता की गांधी आया हैं ।

बापू तुम फिर आना मेरे देश |||

रविवार, 1 फ़रवरी 2015

युद्ध की भली नीति



                साम, दाम, दंड और भेद ये चार युद्ध की प्रमुख नीति होती हैं । ऐसा सामान्यतः माना जाता हैं । और इनका सन्तुलित प्रयोग कोई करें तो वो सफल होता हैं ।

                पर मित्रों - म.गांधी ने अंग्रेजो से लड़ते समय इनमें से किसी का भी रंच मात्र भी उपयोग नही किया । वे केवल सत्य के सहारे चले और अहिंसा को हथियार बनाया । इसलिए बंदूकों से लड़ने में माहिर अंग्रेज , हिंसा को हथियार बनाने वाली हुकूमत, अहिंसा से कैसे लड़ें यह समझ नही पाई और सत्य के प्रकाश में पस्त पड़ती गई । अहिंसा के हथियार को चलाने के लिए अभय नामक वस्तु की बड़ी जरूरत पड़ती हैं । अभय का आशय ये के खुद भी ना डरे और दुश्मन को भी ना डर लगें, वो भी निश्चिन्त हो के मेरे साथ छल नही होगा । यूँ होते ही दुश्मन का सीधे सत्य से सामना होता हैं ।

                मित्रों, सामदाम, दंड भेद की लढाई हर तरफ लड़ी जाती हैं पर इसमें हारने और जीतने वाले दोनों चैन से नही जी पाते हैं ।

                 और गांधी का जीवन देखों उन्हें कभी किसी से रंच मात्र भी डर नही लगा । आजीवन वे बिना सुरक्षा रहे और नोवाखली के सदी के भीषणतम दंगों में तो अकेले भी घूमें और जिन दंगों को सेना भी शांत नही कर पाई थी उन्हें शांत ही नही किया वहां सद्भाव की स्थापना भी की ।

                  गांधी का मार्ग मुश्किल नही बड़ा आसान हैं । किसी को आपसे भय ना लगे यूँ अपना व्यवहार रखो । सो बदले में आपको भी अभय ही मिलेगा इसका भरोसा रहे ।

क्योंकि "जैसे बीज वैसे फल" कुदरत का यह नियम तो है ही सबके साथ ।

सबका भला हो |||

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

5:17 PM - महाप्रयाण की बेला

          30 जनवरी 1948 , शाम का वक्त कोई साढ़े चार बजे होंगे ... बापू के सामने उनके शाम का भोजन रख दिया गया ... बकरी का दूध , उबली हुई तरकारी , मौसंबी , ग्वारपाठे का रस मिला अदरक , नींबू और घी का काढ़ा ... बस इतना ही ... !!

          बापू ने अपना अंतिम भोजन सरदार पटेल के साथ बातचीत करते हुए ... धरती पर बैठकर , खुले आसमान के नीचे , प्रकृति की गोद में ग्रहण किया ...तब वे अपने महाप्रयाण से वे केवल 37 मिनिट दूर थे ... और देशहित पर सरदार पटेल के साथ कुछ जरुरी बातचीत जारी थी ... जिसके चलते रोजाना उनकी तयशुदा प्रार्थना - सभा को 17 मिनिट की देरी हो चुकी थी ... समय के निहायत पाबंद बापू इस बात से थोड़े असहज हुए ... और तुरंत चर्चा को विश्राम देकर चल पड़े अपनी अंतिम मंजिल की ओर  बेखबर , बेपरवाह ...!!

                       इधर बापू जितने बेखबर थे अपनी मौत से ... उधर बिड़ला हाउस में शाम की प्रार्थना सभा के लिए जमा पांच -छः सौ की भीड़ में तीन वे लोग भी आ चुके थे जो आज बापू की हत्या को अंजाम देने के बुरे इरादों से लैस थे ... उनकी बैचेनी बढ़ती जा रही थी ... बापू लेट हो रहे थे ...

                        बापू ने देरी की वजह से सभा स्थल तक जाने के लिए तेजी से अपने कदम उठाना शुरू किया ... बापू ने चलते हुए साथ चल रही आभा से चर्चा छेड़ी ... आभा, तू मुझे जानवरों का खाना देती हैं ... और हंस पड़े ... उनका इशारा सुबह दिए गाजर के जूस की तरफ था ... आभा बोली - " बा इसे घोड़ों का चारा कहती थी " ... गांधीजी ने विनोद करते हुए पूछा - " क्या मेरे लिए यह शान की बात नहीं हैं कि जिसे कोई नहीं चाहता उसे मैं चाहता हूँ ?

                       बापू को सभा स्थल तक पहुँचने के लिए अब चंद कदम ही उठाना शेष थे ... उनके कदम अब नर्म दूब पर पड़ रहे थे ... बापू ने बडबडाते हुए कहा मुझे आज देरी हो गयी हैं  ... मुझे यहाँ ठीक 5.00 बजे पहुँच जाना चाहिए था ... देरी मुझे पसंद नहीं ...


                          अब उनके सामने पांच छोटी छोटी सीढियाँ थी जिसे उन्हौने जल्दी से पार कर लिया ... सामने खड़े लोग उनके चरणों में झुकने लगे ... बापू ने उनके अभिवादन का उत्तर देने के लिए अपने दोनों बाजु आभा और मनु के कन्धों से हटाकर हाथ जोड़ लिए ... तभी भीड़ को चीरकर एक व्यक्ति आगे निकल आया ... सभी को यूँ लगा की वह झुककर प्रणाम करना चाहता हैं ... देर हो रही हैं सोचकर मनु ने उसे रोकना चाहा ... उसने मनु का हाथ छिड़क दिया ... और धक्के से मनु गिर पड़ी ... अब वह व्यक्ति था और उसके सामने गाँधी केवल दो फुट के फासले पर रह गए थे ... उसने तुरंत अपनी पिस्तौल बापू को तरफ तान कर एक के बाद एक तीन गोलियां दाग़ दी ... पहली गोली लगी तब बापू खड़े रहे पर दूसरी लगी तब तक खून के धब्बे उनकी सफ़ेद चादर पर उमड़ आये थे ... अब वे गिरने लगे ... तीसरी गोली लगते ही वे जमीं पर गिरने लगे ... उनके मुंह पर अब " हे राम " ये शब्द तैर रहे थे।  तीन अग्नि गोलियां उनकी कृशकाय काया को भेद चुकीं थीं।  उनका  डेढ़ पसली का कमजोर बूढ़ा  शरीर नजदीक से मारी गई दो गोलियों को अपने अंदर रोकने में सफल हुआ था और एक गोली उनके शरीर को भेद बाहर निकल कर सफ़ेद शॉल में उलझ कर रह गई थी। 


                     आजीवन अहिंसा के रास्तों के राही का सफ़र अब पूरा होने आया ... इसके पहले भी बापू की हत्या के पांच विफल प्रयास हुए थे ... और हर बार बापू ने उनमे पकडाए लोगों पर किसी तरह की ना तो शिकायत दर्ज करवाई और ना ही किसी तरह कार्यवाही के लिए कहा ... इसके पूर्व हुए असफल हत्या के प्रयास जिसमे बापू के ऊपर बम फेंककर हमला किया गया था ... जिसमें वे बच गए थे ... और उन्होंने कहा था ... जब भी कोई ऐसा प्रयास हो ... धमाका हो मैं आहात भी अगर हो जाऊ तो भी मुझे आहात करने वाले के प्रति मेरे मन में सद्भाव रहे ... और रहे मेरा चेहरा अविकल । 

                        प्रकृति ने उनकी यह अंतिम इच्छा भी पूरी की ... मृत्युं के तुरंत पहले उनका चेहरा शांत था और थे चेहरे पर करुणा के भाव ... उनके अपने सहधर्मी भाई ने आज उनके प्राण लिए थे ... हिन्दू पंथ के अति उच्च आदर्श वसुदैव कुटुम्बकम , कर्म के सिद्धांत और सहिष्णुता को सही मायनों में अगर किसी ने जिया हैं तो वे हमारे बापू ही थे ... और पहली बार वर्तमान इतिहास में किसी ने अपनी कथनी और करनी की गजब समानता से सारे विश्व के सामने हिन्दुपंथ की अति उच्च आदर्श वाली बातों को जमीं पर उतारते हुए साकार किया था ... पहली बार विश्व समुदाय ने देश और धर्म के संकुचित दायरों से बाहर निकलकर समान रूप से उन्हें अपनाया था ... महात्मा गाँधी के रूप में इंसानी मूल्यों का जीता जगाता प्रमाण सबके सामने था ... विश्व उनकी मौत पर स्तब्ध था ... अचंभित था । 

                     संसार का कोई ऐसा देश नहीं ... जहाँ उनके निधन पर शोक ना मनाया गया हो ... आज भी उनका दर्शन पहले से भी अधिक प्रासंगिक हैं ... आज भी कोई अगर थोडा सा भी उनके बताये रास्तों पर चले तो उसे जमाना देर नहीं करता गांधीवादी कहने में । 


गाँधी तुम फिर आना मेरे देश !!!

बुधवार, 14 जनवरी 2015

भावी विश्व गुरु ...


भारत एक तरह से विश्व का प्रतिबिम्ब हैं । विविधतायें इसकी खूबी है । विश्व के लगभग हर धर्म और सम्प्रदायों की यहाँ ब्रांचेज हैं । इस भूमि पर ही उत्पन्न हुए कई धर्म और उनके सम्प्रदाय अरबों खरबों सालों से इस धरा पर हैं । सभी सम्प्रदाय अपने आप को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं और सभी लगभग कई मुद्दों पर एक दूसरे से विभिन्न मत रखते हैं । दुनियां भर की छुआछूत, जातिगत समाज की कुव्यवस्था और गरीबी तथा वैभव की खाइयां होते हुए भी इंसान इंसान के बीच सद्भाव कैसे कायम रहे इसकी अद्भुत मिसालें हैं । बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक होने के फायदे है तो नुकसान भी हैं ।

                         कभी विश्वगुरु होने का गुरुर है तो आधुनिक टेक्नोलोजी विश्व से हासिल करने की आतुरता भी हैं , लालच भी हैं । समृद्ध इतिहास है तो उस इतिहास से अनभिज्ञता भी हैं ।  कई वैज्ञानिक अविष्कारों कर सकने का मिथ्या अभिमान भी है तो कई खूबियों के जन्म दाता होने का पता भी नही । विश्व को एक कुटुंब बना देने की विशाल योजना है तो उसकी कोई दिशा नही । कई धर्मों का अविष्कारक होकर भी अभी तक धर्म का मर्म ना समझपाने की घोर लापरवाही भी भावी विश्व गुरु की एक खूबी हैं ।

                         इसीलिए इसकी विविधतायें ही इसकी खूबी हैं । जो विश्व को आइना दिखाते रहती हैं । कुछ ना होकर भी कैसे सब कुछ होने का गर्व किया जाय । कैसे आपस में लड़ते हुए भी जिया जाय । कैसे घोर सामाजिक और सांप्रदायिक विषमताओं में भी जियो और जीने दो को अपनाया जाय ।

                                  वर्तमान में तो भावी विश्व गुरु की विश्व को यही देन हैं ।
सबका भला हो |||