रविवार, 22 फ़रवरी 2015

चलना तो पड़ेगा !

बुद्ध की देशना पूरी हुई । सभी बुद्ध का अभिवादन कर धीरे धीरे चले गए पर वो बैठा रहा । आज उसे बुद्ध से अपना प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा को शांत करना था । और सबके सामने प्रश्न पूछने में उसे संकोच हो रहा था ।

बुद्ध ने भी मन ही मन उसके जी में उठे तूफान को जैसे ताड लिया था । वो भी मैत्री और मुदिता से भरे चित्त से बैठे रहे ।

जब सब चले गए तो वो उठकर बुद्ध के नज़दीक आया और अभिवादन कर वही बैठ गया । बुद्ध ने मुस्कुराकर उसका हौसला बढ़ाया । दो पल सुस्ताकर वो बोलने लगा ।

भंते , मेरी एक जिज्ञासा है । आप सबको इतना समझाते हैं । भीड़ उमड़ी रहती हैं । पर मैं देखता हूँ  उनमें से कुछ तो पहले से बिलकुल बदल गए हैं, कुछ थोड़े बदले हैं , और कुछ को महाराज बिलकुल फर्क नही पड़ा । पहले जैसे थे वैसे आज भी हैं । जब आपकी शिक्षा भली हैं । सबको बराबर बांटते हैं तो सब पर एक सा असर क्यों नही होता ?

बुद्ध फिर मुस्कुराये और प्रतिप्रश्न किया । कहाँ के रहने वाले हो ?  वो बोला - श्रावस्ती का महाराज । बुद्ध बोले - तब तो यहाँ से श्रावस्ती तक का रास्ता खूब जानते होंगे ?   वो बोला - हाँ महाराज । बुद्ध ने फिर पूछा - कोई तुमसे पूछता है की श्रावस्ती जाने का रास्ता बता दो तो तुम ठीक से बता देते हो या छुपा लेते हो ?    वो तपाक से बोला - इसमें छुपाने का क्या खूब समझाकर बता देता हूँ । बुद्ध ने एक और प्रश्न किया - जब तुम भली तरह समझाकर बता देते हो तो सभी श्रावस्ती पहुंच जाते होंगे ?    अब वो बोल पड़ा - अरे महाराज जो चलेंगे नही,  बस रास्ता पूछेंगे तो भला कैसे श्रावस्ती तक पहुंच जायेंगे । जो चलेगा वही तो कहीं पहुंचेगा ।

अब बुद्ध मुस्कुरा रहे थे, और वो भी |||

मित्रों - म. गांधी भी सत्य के रस्ते चले और अपना एक मकाम बनाया । आज उन्हें उनके समर्थक ही नही विरोधी भी श्रद्धा से याद करते हैं । देश ही नही सारा विश्व उनसे प्रेरणा लेता हैं । उनके साथ उस समय में हज़ारों लोग भी चले और कइयों ने इंसानियत के लिए कई मकाम बनाये । जब हम किसी भली राह चलते हैं तो हमारा भी भला होता हैं और औरों को भी प्रेरणा मिलती ही हैं |||

सबका भला हो ।

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

विरोध की जरूरत ...

महात्मा गांधी लगातार देश में घूमकर अग्रेजों के खिलाफ अलख जगाते थे । पर जिस भी शहर में जाते उनका सामना लगभग हर जगह सबसे पहले उनके विरोधियों के विरोध से होता था । वे ससमय स्टेशन पहुंच कर गांधी का पुरजोर विरोध करते और उनके खिलाफ खूब उग्र नारे बाजी करते थे ।

गांधी और उनके कुछ साथी एकतरफ चुपचाप खड़े रहकर उनको वैसा करने का भरपूर मौका देते थे । जब वे थक जाते तब उनकी तरफ मुस्कुराकर हाथ हिलाते हुए अपने काम के लिए निकल जाते थे ।

इस तरह बिना विशेषप्रयास के उस शहर या गांव में उनके आगमन के बारे में सबको खबर मिल जाती थी ।

एक बार उनके किसी साथी ने उनसे पूछा बापू आपको इनपर गुस्सा क्यों नही आता तो बापू मुस्कुरा कर बोले - इनपर मुझे प्रेम आता हैं इतनी ऊर्जा ये मुझ जैसे फालतू आदमी पर खर्च करते हैं वर्ना मुझे कौन जानता की गांधी आया हैं ।

बापू तुम फिर आना मेरे देश |||

रविवार, 1 फ़रवरी 2015

युद्ध की भली नीति



                साम, दाम, दंड और भेद ये चार युद्ध की प्रमुख नीति होती हैं । ऐसा सामान्यतः माना जाता हैं । और इनका सन्तुलित प्रयोग कोई करें तो वो सफल होता हैं ।

                पर मित्रों - म.गांधी ने अंग्रेजो से लड़ते समय इनमें से किसी का भी रंच मात्र भी उपयोग नही किया । वे केवल सत्य के सहारे चले और अहिंसा को हथियार बनाया । इसलिए बंदूकों से लड़ने में माहिर अंग्रेज , हिंसा को हथियार बनाने वाली हुकूमत, अहिंसा से कैसे लड़ें यह समझ नही पाई और सत्य के प्रकाश में पस्त पड़ती गई । अहिंसा के हथियार को चलाने के लिए अभय नामक वस्तु की बड़ी जरूरत पड़ती हैं । अभय का आशय ये के खुद भी ना डरे और दुश्मन को भी ना डर लगें, वो भी निश्चिन्त हो के मेरे साथ छल नही होगा । यूँ होते ही दुश्मन का सीधे सत्य से सामना होता हैं ।

                मित्रों, सामदाम, दंड भेद की लढाई हर तरफ लड़ी जाती हैं पर इसमें हारने और जीतने वाले दोनों चैन से नही जी पाते हैं ।

                 और गांधी का जीवन देखों उन्हें कभी किसी से रंच मात्र भी डर नही लगा । आजीवन वे बिना सुरक्षा रहे और नोवाखली के सदी के भीषणतम दंगों में तो अकेले भी घूमें और जिन दंगों को सेना भी शांत नही कर पाई थी उन्हें शांत ही नही किया वहां सद्भाव की स्थापना भी की ।

                  गांधी का मार्ग मुश्किल नही बड़ा आसान हैं । किसी को आपसे भय ना लगे यूँ अपना व्यवहार रखो । सो बदले में आपको भी अभय ही मिलेगा इसका भरोसा रहे ।

क्योंकि "जैसे बीज वैसे फल" कुदरत का यह नियम तो है ही सबके साथ ।

सबका भला हो |||