ईमानदारी निहायत व्यक्तिगत सद्गुण हैं .... इसका प्रदर्शन दम्भ जागने का कारण होता हैं … और दम्भ से ईमानदारी के सद्गुण को ग्रहण लगता हैं। ईमानदारी हर स्थिति में कारगर होती हैं … बस धैर्य कि कमी और शार्टकट की लालच हमें इस पर विश्वास से वंचित करती हैं … फलस्वरूप हम खिचड़ी ईमानदार बनकर रह जाते हैं … वस्तुतः दोगलापन यहीं से पनपता हैं।
ईमानदारी की सीमाएं नहीं … यह शुरुआत में वाणी की ईमानदारी से शुरू होकर कर्म कि ईमानदारी और फिर विकसित होकर मनसा ईमानदारी तक जाती हैं। ईमानदारी का प्रदर्शन क्यूँ नहीं होना चाहिए इसके मूल में वस्तुतः मन में दम्भ के विकसित होने के बीजों का अनायास पड़ जाना ही हैं। गांधीजी ने कभी भी अपनी ईमानदारी को सार्वजानिक रूप से प्रचारित या उसका बखान नहीं किया … फिर भी हम सभी उनकी इस खूबी को स्वीकार करते हैं … वस्तुतः ईमानदारी एक वैसा सद्गुण हैं जिसकी खुशबु हवा कि दिशा में ही नहीं आठो दिशाओं में बिना किसी प्रयास के सर्वत्र सामान रूप से फैलती हैं । ज़िन्दगी मेरे घर आना !!!
ईमानदारी का अनंत विकास सम्भव हैं … यहाँ तक की पैगम्बर मुहम्मद साहब से किसी ने पूछ कि मुसलमान किसे कहे, तो उन्होने सुझाया कि जो मुकम्मल ईमान को पा जाये वो मुसलमान हुआ।
ईमानदारी का सद्गुण हमें किसी को बेईमान कहने का अधिकार भी नहीं देता … क्यूंकि यह निहायत व्यक्तिगत गुण जो हैं। । किसी को बेईमान साबित करने के लिए समाज में कई व्यवस्थाएं हैं … और कुदरत कहे या ईश्वर या कोई नाम दें उनका अपना सटीक विधान भी हैं ही -- " जैसे कर्म ठीक वैसे फल " .... जिनमें कुदरत कुछ फल या कभी- कभी पुरे फल सामाजिक व्यवस्थाओं के ज़रिये दे देती हैं … कुछ फल समय पाकर पकते हैं … जो मिलना ही हैं … उनसे किसी दशा में छुटकारा नहीं।
अब ईमानदारी जब व्यक्तिगत सद्गुण हुआ तो उसके फल खुद उसको धारण करने वाले को मिलते हैं … फिर भी उसके आसपास जिसका जितना दायरा हो लोग लाभान्वित होते ही हैं .... अब कोई ईमानदार हुआ और उसकी बात किसी ने नहीं मानी … तो इसे उसकी ईमानदारी की विफलता मान लेना सर्वथा गलत हैं … भाई " होनी" या नियति भी अपनी जगह हैं … और उस समय के हालत जिनको समाज कि दिशा , समाज कि सामूहिक सोच , समाज के सामूहिक कर्मशीलता की गति , समाज कि स्थितियां तय करती हैं … अगर उस समाज के पास उस समय कोई भला मानुस हुआ और उसके प्रभाव से कुछ स्थितियां और बिग़डने से बची तो यह हम पर उसका उपकार ही माने।
भगवान् बुद्ध के समय उस समय के दो पड़ौसी देश आपसे में लड़ने के लिए पन्द्र्ह बार आमने सामने हुए थे और हर बार बुद्ध कि समझाइश पर युद्ध टाला गया था। .... और जब सोलहवीं बार फिर वे युद्ध करने पर उतारू हुए तब बुद्ध भी वहाँ उन्हें रोकने नहीं गए - शायद इसीलिए कि उस समय के समाज के सामूहिक कर्मों कि गति उसे उसी दिशा में ले जाने के लिए मज़बूर थी।
हमने म. गांधी का कहा नहीं माना -- और बंटवारे को राजी हुए , इसमें बापू का भला क्या दोष ? , उनकी ईमानदारी का भला क्या विरोध ? , इसमें उनकी भला क्या विफलता ?
सोचो उस मुस्लिम बहुल इलाके को हम उस समय के विकराल सांप्रदायिक वैमनस्य के बीच कैसे संभाल पाते भला , जबकि आज इतनी शिक्षा , इतने प्रोग्रेस के बाद भी हम सम्प्रदायवाद की विनाशकारी खरपतवार से आये दिन दो चार होते ही हैं। प्रेम से हिलमिल रहे इसकी समझ अब तक विकसित नहीं कर पाएं हैं।
हम यह माने कि उस समय जब देश आज़ाद हुआ जो हम सबके भले के लिए जो होनी थी वो ही घटित हुयी … अब हम दिखा दें की लोकतंत्र सम्प्रदायवाद से मुक्त रहकर ही अधिक टिकाऊ और सबल रह सकता हैं --- जबकि हमारे सामने इस तरह का उदाहरण भी है कि कोई राष्ट्र संप्रदाय कि नींव पर बना हो और वह हमसे अब तक अधिक पिछड़ा और संघर्ष रत हो।
आओ ईमानदारी से डरे नहीं उसे बस अपनाएं अपना समझकर।
केवल विरोध के लिए विरोध ना करें - धैर्य से आगे आगे बढे, धीरे - धीरे ही सही ईमानदारी को अपनाएं - एकदम चुपचाप - हौले हौले - असीम प्रेम से , अभूतपूर्व विश्वास से कि बेईमानी के फलों से ईमानदारी के फल कहीं अधिक भले होंगे ही।
ईमानदारी ही असल जिंदगी हैं !! और ज़िन्दगी मेरे घर आना।
सबका भला हो !!!