शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

गण- तंत्र और विपश्यना


गण- तंत्र और   "  विपश्यना  "

                    
                                 ण- तंत्र जन-जन से बनता है....एवं जन-जन से चुने हुए नायक यानि गण इस तंत्र को आगे बढ़ाते है..पर गौर से देखा जाय तो मन यानि जन - मानस अधिनायक होकर उभरता है...हर जगह अपना प्रभाव दिखलाता है ...आजकल अनुचित आचरण और  भ्रष्ट आचरण की समस्या पर लगातार हल्ला बोला जा रहा है.. यहाँ हों या वहां यह समस्या ऊपर से नीचे तक, शहर से गाँव तक, संसद से चौपाल तक, पक्ष से विपक्ष तक  सहज देखी जा सकती है.. मानव मन सदाचार की उचाईयों को कहाँ तक छू सकता है, एक संतुलित और निर्मल मन किस कदर सारे विश्व के जनमानस पर छा जाता है  इसकी  बानगी कभी-कभी देखने में आती है, इसकी भूरी-भूरी प्रशंसा सारा विश्व यदा-कदा  करता ही रहता है (  महात्मा गांधीजी को टाईम्स पत्रिका ने अब तक के महानतम व्याक्तियो से एक चुना ही ) . हमारा गणतंत्र, हमारा समाज, एक-एक व्यक्ति से मिलकर बनता है. व्यक्ति-व्यक्ति का मन मिलकर जन - मानस बनता है, अतः मानस का सुधार अति आवश्यक है..पेड़ का सुधार करना है तो उसकी जड़ों का सुधार करना ही होगा.


                                         कोई भी शासक हो उसका सपना होता है की उसके राज्य में सुराज हो, प्रजा सुखी हो, हर तरफ शांति हो, परतु बहुत थोड़े ही सुराज की इन उचाईयों को छू पाते है. ऐसे ही हमारे  देश के एक महान शासक अशोक ने भी यही सपना संजोया था एवं उसमे उसे महती सफलता भी मिली. वस्तुतः उसने सुराज की जड़ों तक पहुँच बनायीं थी..चीनी यात्रियों के विषद वृतांतों से पता चलता है,  जिनमें वे यहाँ के लोगो की संस्कृति और सभ्यता की भूरी-भूरी प्रसंशा करते हैं , और लिखते है की कैसे वे शांति,  सम्रद्धि और आपसी  सद्भाव का जीवन जीते थे. देहली-तोपरा स्तम्भ पर उत्कीर्ण अपने एक सुविख्यात अभिलेख में अशोक अपने शासनकाल में किये गए उपायों की विस्तृत समीक्षा करता है. 


                                          अभिलेख की शब्दावली में उसके व्यक्तित्व की अनुपम झांकी देखने को मिलती है. उसका कहना है की मेरे पूर्ववर्ती राजाओं, शासकों ने भी मेरे ही सामान यह कामना की थी की प्रजा का उत्थान हो , परन्तु वे इसमें सफल नहीं हुए जबकि मैंने सफलता का मुंह देखा. मुझे लगा की धर्म का यानि मन को निर्मल करने का अभ्यास मुझे स्वयं करना होगा और तब लोग इसका अनुसरण करेंगे और अपने आप को ऊपर उठाएंगे.  इसी लक्ष्य को सामने रखकर मैंने धर्म यानि मन को निर्मल बनाने के नियम बनाये और अनेकों धर्म निर्देश दिए. वह अभिलेख में लिखता है कि मैंने निझ्ती ( आंतरिक ध्यान , विपश्यना ) का सहारा लिया. सुराज का पुष्ट होना इन्ही दो बातों से सुनिश्चित हुआ ...पहला कड़े - नियम और दूसरा लोगों में  मन-शुद्धि कि साधना के प्रति लगाव. वह आगे कहता है इन दो बातों में से धर्म के नियमों से कम, वरन मनशुद्धि कि साधना से लोगों को बहुत कुछ प्राप्त हुआ