मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

इंदिरा जी " एक शक्ति पुंज "


        इंदिरा गांधीजी ने अपनी जान देश की खातिर कुर्बान कर दी ... यूँ तो हर किसी के दिल में देश की खातिर कुर्बान होने का जज्बा हो सकता हैं ... पर मातृभूमि ऐसे पुन्य अवसर बिरले लोगों को ही देती हैं ... और वे लोग बिरले ही होते है , जो मातृभूमि की खातिर वक्त आने पर कुर्बान भी हो जाते हैं ...

         आज का दिन श्रीमती इंदिरा गांधीजी की वतन के लिए क़ुरबानी की याद दिलाता हैं ... इस अवसर पर आओ हम उनके बचपन की यादों के झरोखे से देखने की कोशिश करें कि इंदिरा जी में देश के प्रति प्रेम की नीव कितनी गहरी थी ... उनके दादा श्री मोतीलाल नेहरू , उनके पिता जवाहरलाल नेहरू , व् उनकी माता श्रीमती कमला नेहरू एक पूरी श्रंखला देश के प्रति समर्पण की भावनाओं से ओतप्रोत रहे ...

       किस्मत की धनी इंदिरा जी ने खुद को हासिल परिस्थितयों से बहुत कुछ सीखा और अपना एक मक़ाम , अपनी एक विशिष्ठ पहचान बनायीं ... न की केवल विरासत का उपभोग भर किया ... वरन विरासत को बहुत आगे बढाया ... देश को उन्हौने तब नेतृत्व दिया ... जब हमारे देश ने एक अति सौम्य और योग्य प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री जी को अचानक खो दिया ... तब उनकी नेतृत्व क्षमता इतनी उजागर नहीं थी ... और लोगों ने उन की नेतृत्व क्षमता पर संदेह किया था ... पर समय समय पर जो निर्णय उन्हौने जिस-जिस फौलादी ताकत और सहजता से लिए ... उसके लिए आज भी देश उन्हें एक शक्ति पुंज की तरह देखता हैं ...जब उन्होंने अपने पडौसी देश की समस्याओं पर संज्ञान लेकर उसकी मदद की थी ... तब इंदिरा जी का जो रूप सामने आया था ... उसे देख सारी दुनिया अचम्भित थी ... तब हमारे एक पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी साहब ने तो उन्हें दुर्गा की उपाधि से सम्बोधित कर इंदिरा जी का यथायोग्य मान बढाया था ...

           इसी शक्ति का एहसास उनके देश हित के कई निर्णयों में खूब झलकता है ... और मातृभूमि के प्रति अपने खून का आखरी कतरा भी वे न्योछावर कर पायें उनकी यह मनोकामना रही थी और योग्यता भी .... तभी भारत भूमि ने उन्हें यह अवसर भी दिया ... और उन्हौने यह कर भी दिखाया ... यही कथनी और करनी की समानता उन्हें शक्ति पुंज की उपमा से नवाजती हैं ... जो सर्वथा सही हैं ।

         आज भी जब जब देश के सामने कठिन और कटु स्थितियां आती है ... जन मानस में उनकी यादें तरोताज होकर यह एहसास दिलाती है की भारत भूमि की पहचान और उसकी उपयोगिता संसार को एक दिशा देने की हैं ... एक नेतृत्व देने की हैं ... जो अभी बरकरार ही नहीं हैं ... विपुल संभावनाओं से भरी हैं ...

                             इंदिरा जी " एक शक्ति पुंज " को नमन ...

जन जन का मंगल हो ।।

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

सबमें रावण क्यूँ दिखता हैं ... !!


मुआ ठीक से जला भी नहीं ?
ना सर फूटा न ठीक से धुंवा उठा  
न कोई तेज आवाज , न सनसनी !!
कल वो मर गया , कोई रोया तक नहीं ?

मन में विकारों का जखीरा लिए 
कब तक उस पर गुस्सा उतारेंगे 
कब अपनी ओर भी निहारेंगे ?
अपने चेहरों से नकली आवरण उतारेंगे  !!
 
कल कोई कह गया 
सभी में उसे रावन दिखता हैं।
मैं विस्मित था , बोला वहीँ बिकता है । 
वही रोज जिन्दा होता है
हमारे मन में 
फिर हमारे बोल में , फिर तन में 
अपना भला अगर चाहते हैं 
तो मारे उसे पैदा होते ही 
सबसे पहले मन में ।
तब जरुरत ही न आन पड़े 
मारने की उसे तन में
और फिर उर्जा लगे राम जैसे 
व्यक्तित्व के गठन में ।।  

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

आओ आज रावण जलाएं ..




मेरे अन्दर भी एक रावण  हैं,
और शायद तेरे भी ,
कुबूल करें तो सबके अन्दर वो हैं ।।

मेरे अन्दर वो हैं मैं नहीं मानता ,
तेरे अन्दर वो हैं तू नहीं मानता ,
सबके अन्दर वो है हर कोई है जानता।।

पर यह आपस का समझौता हैं ,
बुराई पर अच्छाई की विजय का 
उल्लास भर मनाओ।।

एक रावण  का पुतला  बनाओ,
उसे फिर जलाओ ,
ताकि हम सब वैसे ही रहे 
जैसे हम चाहते हैं रहना।।

दाग मेरे भी अच्छे हैं ,
और तेरे भी बुरे नहीं ,
कभी मैं तुझे टोकुं ,
कभी तू मुझे।।

बस साल में एक बार यह रस्म निभाए ,
रावण का एक पुतला बनाये ,
उसे जलाएं ,
और फिर आपस में खुश हो 
बधाईयाँ दे की पुरे साल 
दाग लगने और लगाने में डूब जाएँ ....


आओ आज रावण जलाएं 

हैप्पी दशहरा  , हप्पी दशहरा ।। 

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

वो जमाना अब कहाँ ...





        1973 की सुपर हिट फिल्म " दाग "का यह गीत आज भी जब सुनाई देता हैं, तो अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहता / यह उस दौर का गीत हैं जब शर्मीला टैगोर और राजेश खन्ना की जोड़ी एक के बाद एक सुपर हिट फ़िल्में दिए जा रही थी /


             भारतीय फिल्मों का सुनहरा इतिहास आकार ले रहा था ... आज जितनी भी फिल्में हमारे यहाँ दौड़ पा रही हैं उसकी सारी उर्जा का संचयन उन्ही दिनों में हुआ था ... नायक-नायिकाओं , निर्माता-निर्देशकों , गायक-संगीतकारों, पटकथा - संवाद - कहानीकारों, नगमानिगारों यहाँ तक की फिल्मों के चाहने वालों का भी मानो इस धरा पर एक स्वर्ण युग था । उन दिनों एक के बाद एक मुंबई की सरजमीं पर सितारों का जमघट सा लग गया था । श्वेत-श्याम फिल्मों का युग उन दिनों मानों अभी-अभी आये फिल्मों के रंगीन युग का भरपूर लुत्फ़ उठा रहा था ... आज भी प्रतिभा तो बहुत हैं पर सामंजस्य नहीं ... सब बिखरा-बिखरा सा जान पड़ता हैं /


                    फ़िल्मी दुनियां के उस स्वर्ण युग में निर्देशक यश चोपड़ा साहब का एक अदितीय योग दान रहा हैं ... मानव मन की एक अभिव्यक्ति निश्छल प्रेम और उसका तानाबाना , प्रेम में समर्पण और विश्वास का महत्त्व , प्रेम में सरलता और सरल प्रेम की असीमित पहुँच और उसकी गरिमा के विशाल दायरे .... आदि मानव गुणों का चित्रण करना निर्देशक यश चोपड़ा साहब का के ही बूते की बात थी ।

                  ये तो बात गुजरे ज़माने के चलन की थी ... पर देखियें ना आज भी ऐसा ही तो होता जा रहा हैं ...दूसरों के दिल पे क्या गुजरेगी इस बात पर अब कहाँ कोई सोचता हैं ...आजकल मुहब्बत भी एक व्यापार के सिवा क्या रह गयी हैं .... एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग ... सोचों ऐसा कब नहीं हुआ ... कडवी सच्चाई हैं ... हकीकत के बेहद करीब अक्सर एक नकली दुनिया बसा ही लेते हैं लोग /


                   लता जी आवाज इस गीत में अपना पुरजोर असर दिखाती हुई आसमान की बुलंदियों से सीधे कानों पर उतरती सी जान पड़ती हैं ... शर्मीला जी का सरल-सधा अभिनय गीत में जान फूंकता जाता हैं ... नगमानिगार साहिर साहब इस गीत की एक-एक लाइन एक-एक शब्द को इस तरह से पिरोते जाते हैं कि... वो जमाना अब कहाँ जो अह-ले दिल को रास था ... तक आते आते सारी पीड़ा को सुखद अंत तक ले जाने की भरसक कोशिशों के बाद दिल को धडकता हुआ बस हौले से छोड़ देते हैं / जरूर सुने गुजरे ज़माने का यह गीत .... शायद कहीं किसी मोड़ से आती कोई आवाज आपको भी सुनाई दे जाएँ ... आपकी प्रतिक्रिया आपकी मुस्कराहट से ... आपकी यादों के झरोखों से होती हुई साफ दिखाई पड़ रही हैं ....


चाहत सर्द न पड़ जाये ... हार जाएँ न लगन ....

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

कोई लाख करें चतुराई ...


                          हम अगर ध्यान से देखे और  जिम्मेवारी से आकलन करें तो हम सभी अपने हालातों के लिए 100 % खुद ही जिम्मेवार होते हैं ...( और अगर ऐसा  नहीं हो , तो गीता का सनातन नियम " जैसे कर्म वैसे फल " अपना अस्तित्व ही  खो देगा ... जो की असंभव हैं )

                         जैसे जैसे अनुभव बढ़ता जाता हैं ... या इन्सान सकारात्मक होकर सोचता हैं ... वैसे वैसे अपने आप को हर बात के लिए जिम्मेवार मानने का प्रतिशत 0- से 25 फिर 50 फिर और ज्यादा बढता जाता हैं ... अराजकता जब फैलती हैं ... जब हम अपने आप को 0 % और दूसरों को एकदम 100 % जिम्मेवार मानते हैं या मानने का प्रयास शुरू करते हैं ... पर इससे जनमानस में गहरा असंतोष उपजता हैं ... और वह इस तरह के इंसानों को प्रथम दृष्टया मसीहा मान लेती हैं ... पर अंततः  ... निराशा के गर्त में ही इस तरह के लोग चले जाते हैं ... और इस तरह की मानसिकता के लोग अपनी ईमानदारी या शुचिता को भी प्रचार का हिस्सा बनाकर अपना हित साधते हैं और कई कई युवाओं को गुमराह कर फिर परिदृश्य से गायब हो जाते हैं ...   

                       ईमानदारी एक निहायत निजी सदगुण हैं ... और इसका प्रदर्शन तो बिलकुल ही नहीं होना चाहिए ... इसकी खुशबु अपने आप फैलती हैं ... और फूलों की खुशबु की तरह हवा की दिशा में ही नहीं आठों दिशाओं में बेरोकटोक फैलती हैं ....  विनम्रता के साथ ईमानदारी का गहरा रिश्ता इसे और महकाता  हैं ... और इसकी पहुँच का विस्तार करता हैं ... 


                    अगर हमारे युवा ... आजकल जो गांधीवाद के नाम पर आदोलन के फैशन पर ना  जाएँ ... और महात्मा गाँधी को जानने का स्वयं प्रयास करें ...  तो हमारे युवा पाएंगे की उनके  हौसलों को जैसे नए पर लग गए हों  ... और उनकी दृष्टी समग्रता की ओर बढेगी ... न की संकुचित होकर ... निराशा की अंधी सुरंग में दौड़ लगाएगी /




                      

                    1957 की  फिल्म " चांदनी पूजा " का यह गीत कवि प्रदीप की यह ओजस्वी रचना है और आपके सहयोग को प्रस्तुत हैं ... 

                   हमारे वर्तमान कर्म ही भविष्य बनाते हैं ... और आज जहाँ हम हैं यह पूर्व कर्मों का ही प्रताप हैं ... यह भाव हमें सकारात्मकता से भर भर देते हैं ... 

                  आप शायद सहमत न होंगे ... और सहमति का कोई आग्रह भी नहीं ....  फिर भी आपकी प्रतिक्रिया का आना स्वागत योग्य हैं / 

भला हो /// 

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

कोई समझाए ... ???

              



















                               जो भगवान को केवल माने वो आस्तिक .... ??   या जो भगवान के बनाये कानून ... यानि कर्म के सिद्धांत में आस्था ही न रखे उस पर चलने को कोशिश भी करें वो आस्तिक .... ? 
दूसरा यह की ....

              अगर भगवान है .... तो फिर वह ऊपर वर्णित किस तरह के भक्त को देखकर खुश होगा ....

               पहला वो ... जो उसकी कहीं  बातों को मानता तो हैं पर उन पर अमल नहीं करता हैं ... औरे भगवान  की खुशामद में लीन  रहता है 

               या दूसरा वो जो उसकी बातों  को मानता ही नहीं उनपर चलता भी हैं ... पर खुशामद से कोसों दूर रहता हैं /

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

जवाब मिले तो ... अगला सवाल करें ?





                        नकारात्मकता में ख़ुशी तलाशना हमारा राष्ट्रिय रोग बना दिया गया हैं ... 


             सीता जी पर जब सवाल दागा गया था ... तब भी सवाल करने वाले पर लोग मोहित हो गये थे ... खुलकर सवालिए पर कुछ न कर सके और फिर राम जी को अग्नि परीक्षा लेनी पड़ी .... और सीताजी को देनी पड़ी ... और नतीजे सामने थे /


            सवाल करने वाले तब भी वहीं के वहीं रहे .... समय बदल गया ... राजा बदल गये ... और हम कहानियां सुनते और गाते रह गये 


          सवाल करने वाले हमेशा वहीं खड़े रहते हैं .... 


                             और उत्तर लिखने वाले ही आगे बढते हैं ... क्योंकि सवाल करने वाला ... किसी भी हद तक केवल सवाल ही करता हैं ... उसे जवाब में कभी रूचि नहीं होती ... वह उकसाता हैं की जवाब मिले तो वह अगला सवाल करें ... फिर अगला सवाल करें .... तभी अपने सवालों पर ख़ामोशी उसे कचोटती हैं ... वह अधीरता होकर आननफानन में सभी को नकारता हैं ... हाथ पांव पटकता हैं ... किसी जिद्दी बच्चे की मानिंद सड़क पर लोट जाता हैं ... अपने ही धरने को लपेटता हैं ... अपनी रीति बदलता हैं अपनी नीति बदलता हैं ... वह अधीर हो उठता हैं .... ऐसे शरारती बच्चे पर कोई हो अगर वह बच्चे के हर वार पर वार करें ... उसी के लहजे में सवाल करें जवाब करें तो लोग उस बच्चे को नहीं उस बड़े को ही टोकेंगे , बड़े को ही रोकेंगे .... अतः ख़ामोशी ही उसका इलाज हैं ... ख़ामोशी ही उसे उजागर करेगी ... खामोशी ही उसे उसके असली स्वरूप में लाएगी ... देखना एक दिन वह भी आएगा ... 


                  कल हम सब ने देखा वह कितना अधीर और अभद्र था ... सोचे जरा ..?? 


                 कल तक वो जिनसे सवाल कर रहा था ... आज उनको ( अपने सवालों के जवाब न मिलने पर ) ही सिरे से बदजुबानी करते हुए नकार रहा था ... सत्य के सविनय आग्रह की धज्जियाँ उड़ा रहा था ... 


               चिल्लाने का इलाज ख़ामोशी हैं ... यही उचित हैं ... यही समुचित हैं / 


              समय बीत जाता हैं .... सवालिया वहीं का वहीं रह जाता हैं .... और अपने काम , अपनी करनी से , जवाब देने वाला आगे बढ जाता हैं ... कुदरत का कानून हैं भाई /


                  सत्याग्रह, दुराग्रह न बन जायें संभालो यारों ... !!! 


                                                     भला हो !!!!


सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

हमें अपने ऊपर भरोसा रहे ...



     निराशा के माहौल में यह जरुरी हैं सफलता और असफलता का मूल्यांकन जरुरी हैं ... 

        पहला ....खुद को इतना बुलंद करो की सफलता खुद आपके पास आये ... और आपका साथ चाहे ... ( इसमें भी आदर्श स्थिति यह हो की उस स्थिति में भी आपको उसके वरण का मोह न हो ... ) ... खुद को बुलन्द करने से मेरा स्पष्ट आशय हैं ... खुद के सुधार की प्रक्रिया को अत्याधिक महत्त्व पूर्ण मानना ...  यानि ...  हम अपना नैतिक बल , मानसिक बल , और फिर सबसे जरुरी आध्यात्मिक बल इतना बढ़ाएं की ... सही मायनों में बुलदियों पर पहुँच सके ... अब यहाँ पूर्ण बुलंदी तक ही पहुंचे और तभी सामाजिक जिम्मेवारी ले यह भी हो सकता हैं और यह निहायत जरुरी भी नहीं ... पर जिस किसी भी स्थिति में हों  ... आत्मसुधार न रुके ... वह हमेशा प्राथमिकता पर  रहे ... इस तरह समझबुझ के साथ जीवन यात्रा जारी रहे ... तो यकीं माने हमारी कोई कोशिश बेजा नहीं जाती ... सफलता जन्म जन्मान्तरों तक हमारा पीछा करती हैं ... ( धयान से देखे तो हम जिन्हें कोसते हैं ... इस बात पर की क्यों वे आगे की कतारों में खड़े रहकर हमारा हक लुट ले जाते हैं ... या जिन्होंने कम संघर्ष में ज्यादा पाया हैं ... उन्हें हम इसी श्रेणी में रखे की उनके पूर्व कर्मों का धक्का इतना ज्यादा होता हैं की उनके प्रताप से कुदरती तौर पर आगे खड़े होते हैं ... उनके प्रति  यह सोच अगर विक्सित हो तो हम .... बेवजह जलन की पीड़ा से बच कर ... तेजी से आत्म सुधार की ओर बड़ जाते हैं ... और फिर सफलता यूँ साथ चलती हैं ... ज्यूँ हमारी परछाई हमेशा हमारे साथ रहती हैं /

               अन्यथा यही से सफलता की ओर बढने का दूसरा रास्ता .... कठिन रास्ता शुरु होता हैं ... यथा  

                दूसरी राह यह की .... जो फ़िलहाल सफल हैं ... उसके पीछे हाथ धोकर पड़ जाओ ... उसे गिराओ ... और इस बात को युद्ध की तरह एक सनक सवार करके करो ... और यहाँ तक की उसे धर्म युद्ध की संज्ञा से भी सुशोभित करने में तनिक भी देरी न करो ... युद्ध के लिए बनी कहावतों को ... खूब प्रचारित करो ... यथा ... युद्ध में साम -दाम -दंड -भेद सब जायज हैं ... रोना धोना , चीखना चिल्लाना , भीड़ तंत्र का दुरुपयोग , घेराव , जाने क्या क्या ... .... पर इस राह को जितना हम आसान समझते हैं ... वो वास्तव में उतनी ही दुरूह साबित होती हैं ... हमारा नैतिक बल जो अभी कमजोर हैं ... और कमजोर होता जाता हैं ... मनोबल जो अभी बड़ा नहीं हैं ... असफलता पर खीज में और घटता जाता हैं ... आध्यात्मिक बल जो बेचारा अभी ठीक से उगा भी नहीं हैं ... मसल दिया जाता हैं ... फिर असफलता यूँ पीछे पड़ जाती हैं ... ज्यूँ बैल के पीछे गाड़ी /

                  हम अगर जरा गौर से देखें तो हर असफल व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के पीछे यह बात स्पष्ट नजर आएगी ही ... और वर्तमान में भी इन्ही दो रास्तो के राही हमारे आसपास चल ही रहे हैं ... एक शोर मचाते हुए ... और दूजे खामोश ... 

              और फिर हम संदेह न करे 

          कुदरत हमेशा ... सज्जनों को ही तरजीह देती हैं ... और यही उसे सुहाता हैं ... भला हो !!! 

             " दो रास्ते " ... फिल्म का यह गीत ...  मेरी बात पर कोई साम्य  नहीं रखती पर हाँ .. इस गीत की यह लाइन जरुर ध्यान देने लायक हैं ... अपने मुक्कदर पर किसी हर किसी को भरोसा करना ही होगा ... और वर्तमान कर्मों पर ध्यान देना ही होगा ... 

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

जिंदगी एक कटी पतंग ..?







                 कटी पतंग का जीवन फिर हवाओं के रुख और उसको लुटने वालों पर निर्भर होकर रह जाता हैं ... ठीक वैसे ही हमारी सब की जिंदगी सांसों की डोर से बंधी रहती हैं ... जन्म से लेकर जीवन के अंत तक बस इसी साँस की डोर के आसरे जीवन के अस्तित्व का संघर्ष चलता रहता हैं / ठीक मृत्यु के समय भी साँस की रफ़्तार से ही अंदाजा लगाया जाता हैं ... कि ...  कितनी सांसे बाकि हैं ... और तभी साँस कि डोर टूट जाती हैं ... मृत्यु हो जाती हैं ... लो कट गयी जीवन कि पतंग ... पर उसके बाद भी जीवन रूपी पतंग लुटती नहीं ... वह फिर किसी अन्य साँस डोर से जुड़ कर आकाश में फिर पहले की तरह उड़ने लगती हैं ... और नए जीवन के लुटेरे के संग फिर आसमान में तन जाती हैं / 

               जीवन के रहते भी कभी कभी निराशा के झंझावत इतने उमड़-घुमड़ कर उठते हैं कि सहन शक्ति जवाब देने लगती हैं ... सांसे उखड़-उखड़ जाती हैं ... मन जैसे शरीर का साथ छोड़ने लगता हैं ... जीवन की पतंग उखड़ती -पिछड़ती सांसों के आगे पस्त हो जाती हैं ... वह यह मान कर कि,  अब कटी तब कटी , संघर्ष छोड़ नाउम्मीदी के तूफानों में झोके खाती हैं ... पर तभी ऐसे हालातों में कुशल पतंगबाज डोर में थोड़ी डील दिया करता हैं ... 

               कभी कभी पतंग कट जाएँ ऐसे बुरे इरादों से पेच डालने वालों की बदनीयती के समय भी ... वह डोर की डील का ही सहारा लेता हैं या सुसमय जान फिर डोर एक साँस मैं खींचता हैं ... और अक्सर ऐसे हालातों में सटीक निर्णय पतंग को झंझावातों से ऊपर उठाकर एक बार फिर बुलदियों पर ले जाते हैं /  जैसे पतंग बाजी मैं डोर का वैसे ही जीवन में सांसों का कमाल का महत्त्व हैं ... इसलिए सांसों और हमारे जीवन कि तरगों का सम्बन्ध जानना हमारा फर्ज हैं ... ताकि जीवन जीना आ जाएँ !!

              1970 ' कि सुपर हिट फिल्म " कटी पतंग " का यह गीत आनंद बक्षी साहब कि एक संजीदा रचना हैं ... राहुल देव बर्मन साहब कि सटीक मौसुकी और राजेश खन्ना साहब और आशा पारेख जी का सजीव अभिनय इस गीत के प्राण हैं / नैराश्य के गहन भावों को बड़ी नजाकत से दोनों ने बखूबी अभिनीत किया है ... और संगीत की महीन डोर सी लता जी की आवाज इस गीत रूपी पतंग को आसमानी बुलदियों तक बेरोकटोक ले ...  सपनो के देवता को अपनी भावांजलि अर्पण करके ही उमंगो के मुकाम तक जाती हैं /