सोमवार, 30 जुलाई 2012

भारी रणसज्जा का बोझ ...


 भारी रणसज्जा का बोझ ...


                      पिछले एक साल से हमारे देश में परिवर्तन का एक सुखद दौर चल पड़ा हैं ... जी हाँ हम अपने ही भ्रष्टाचार से इतने परेशां हो गए की उसके खिलाफ लडाई लड़ने की हड़बड़ी में हर संभव उपायों को आजमाने की जल्दी में दिखाई दिए ... पहले आवाज उठी और जोरों से अभूतपूर्व तेजी से उठी कि कड़ा कानून बनाओ ... और जल्दी से बनाओ ... यहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ  कानून बनाया जाय यहाँ तक तो ठीक था पर उसके अत्यंत कड़े और जल्दी बनाये जाने के पीछे कहीं देश में गलतफहमी फ़ैलाने की गलत इरादे भी नजर आ रहे थे ... सोंचे जरा कड़ा कानून अगर बेलगाम हुआ और हमारे नियंत्रण से बाहर निकल गया तो उसका बेजा इस्तेमाल सही और ईमानदारों को सताने और एक दुसरे को मोहरा बनाने में भी हो सकता हैं / शायद इसीलिए शुरू- शुरू में आये लोग धीरे धीरे यह भांप गए कि चाहे देर लगे पर सटीक कानून बनें / अन्ना आन्दोलन के दौरान आजकल तो मिडिया पर भी निशाने लगाये जा रहे हैं ... अन्ना आन्दोलन अपनी किसी कमी को कमी मानने को कतई राजी नहीं ... बडबोलापन और अहंकार का प्रदर्शन तो उनकी टीम में आम होता जा रहा हैं  ... सहिष्णुता का तो अब वहां नामों निशान नज़र नहीं आता /   अधीरता इस हद तक बढ़ चुकी हैं की छोटी बढ़ी हर घटना में बस उन्हें सरकारी हाथ की ही बू आती हैं / जब जन लोकपाल को बनाने वालों में ही सदाचरण का  इस कदर अभाव  होगा तो जनता का विश्वास उठाना तो लाज़मी हैही /
और वहीँ हो रहा हैं /

                         कड़े कानून तो भ्रष्टाचरण का एलोपैथिक इलाज हुआ ... असल फायदा और आराम तो हमें अपने आप को नैतिकता का दामन थामने को तैयार करने से होगा ... आज कितने कानून हैं ... बलात्कार , चोरी , और हत्या जैसे अपराधों पर लोगों को सजाएँ भी हो ही रही हैं ... पर देखो न कोई दिन खाली नहीं जाता ... हर रोज नित - नए  अपराधों कि फेहरिश्त सुबह-सुबह अख़बार घर पर दे जाता हैं /   

                               हम गाँधी जी को केवल संसार का सबसे महान इन्सान मानकर न रह जाएँ ... बल्कि उनकी बातों के अनुसार आचरण करते भी नजर आयें तभी शायद  सबके कल्याण का मार्ग खुलेगा ... अन्यथा दूसरों को भ्रष्ट कहने और अपने बुरे आचरण को छुपाने में ही बहुत सारा समय व्यर्थ गँवा देंगे /  महात्मा गांधीजी का एक विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ जो हमेशा कि तरह कालजयी हैं ... अमूल्य तो हैं ही / 


                           " हमारा राष्ट्र सच्चे अर्थ में आध्यात्मिक राष्ट्र उसी दिन होगा , जब हमारे पास सोने की अपेक्षा सत्य का भंडार अधिक होगा , धन और शक्ति के प्रदर्शन की अपेक्षा निर्भयता अधिक होगी और अपने प्रति प्रेम की अपेक्षा दूसरों के प्रति उदारता अधिक होगी / यदि हम केवल इतना ही करें की अपने घरों , मुहल्लों और मंदिरों में धन के आडम्बर का प्रवेश न होने देकर नैतिकता का वतावरण पैदा करें तो हम भारी रणसज्जा का बोझ उठायें बिना शत्रु  से . चाहे वह जितना भी भीषण क्यों न हों , निपट सकते हैं / " ..... महात्मा गाँधी

सोमवार, 23 जुलाई 2012

सम्राट असोक और उसका राज्य...








" तलवार के बल पर सम्राट अशोक कलिंग पर विजय पा चूका था ... हिंसा और उसका तांडव जो उसके फैलाया था उसके परिणाम उसके सामने थे ...हिंसा के रास्ते हल नहीं निकलते .. डंडे के बल पर हम प्रजा के दिलों पर राज नहीं कर सकते .... ऐसी  समझाईश इस लढाई से पहले उसके अनुभवी सलाहकार  उसे एक नहीं कई बार दे चुके  थे....परन्तु वह अपनी हट पर कायम रहा ...  लोकतंत्र ना होने के कारण वह अपनी मर्जी का मालिक था और कलिंग का युद्ध टाला न जा सका था /


            युद्ध की विभीषिका देख सम्राट अशोक का  ह्रदय आत्मग्लानी से भर उठा ... पश्चाताप की अग्नि उसके दिल में धधक उठी .. वह सही मायनों में अपनी प्रजा की भलाई के लिए तड़पने लगा ... उसे यह बात समझ में आ गयी की हम अपने मन के विकारों के कारण ही दुखों में पड़ते है ... जिसका मन प्रेम और करुणा से भरा है वह हिंसा से विरत ही रहता है और जिसका मन क्रोध और वैमनष्य से ओतप्रोत है वह न चाहकर भी हिंसा और अपराध में पड़ ही जाता है ... सदाचार, प्रेम और करुणा के उपदेशों से मन के विकारों पर एक झीना - सा पर्दा ही पड़ता है ....डर कर मानव-मन मौके का इंतजार ही करता है ...  मन के विकार मौका मिलते ही फिर उभर आते है ..और जीवन में कड़वाहट घोल देते है /  यह मामूली सी बात उसे अब बहुत महत्व की  जान पड़ी / 


          पहले पहल तो उसने राजतंत्र को ठीक से चलाने के लिए कड़े कानून बनाये ..और उनके पालन को सुनिश्चित करने के लिए अधिकारी नियुक्त किये ...पर उसने देखा की कड़े कानून और सजाओं का डर भी वह प्रभाव नहीं ला पा रहा है  ..जो वह चाहता था .. वह चाहता था उसका राज,  सुराज की मिशाल बने,  जनता की बीच सद्भाव और प्रेम बड़े, लोग स्वभावतः ईमानदार और आदर्श नागरिक बने, प्रशासन की सारी ताकत और समय जो अपराध नियंत्रण और कानून लागु करवाने में जाया होती है ..उसका सदुपयोग प्रजा की भलाई में कैसे काम आये ... इस हेतु वह आतुर हो उठा / 


          उसका सौभाग्य जागा ...कहीं से यह सलाह मिली की राजन ऐसे उपाय है जिससे हमारे मन के विकार मिटाये जा सकते है .. विकारों से ऊपर - ऊपर नहीं जड़ों तक छुटकारा पाया जा सकता है ...मन के विकार जैसे लालच, घृणा , वासना और द्वेष इत्यादि से मुक्त होता मन स्वभावतः सदाचार और सहिष्णुता की ओर अग्रसर होने लगता  है /



           यह सुझाव उसके गले तो उतरा पर अपनी प्रजा को जिसे वह अपनी संतान के तुल्य मानने लगा था ..काफी सतर्क था ...इस उपाय को प्रजा पर लागु करने से पहले वह खुद इस राह पर चलकर देखना चाहता था,  ताकि अपनी प्रजा को वह स्वयं अनुभव करके देखा हुआ रास्ता दे पाए ..कही कोई उलझन  न रहे / पर इस हेतु समय की दरकार थी ..विपश्यना साधना रूपी उपाय को आजमाने के लिए उस समय करीब ३०० दिनों का समय लगता था .. राजतन्त्र में जहाँ आये दिन षड़यंत्र और समस्याएं आती है यह कैसे संभव होगा ?   पर वह किसी भी कीमत पर प्रजा की भलाई के लिए यह खतरा मोल लेने को तैयार था /  उन दिनों राजस्थान के बैराठ में विपश्यना का एक सुप्रसिद्ध केंद्र था /  वह वहाँ गया और ३०० दिनों के बाद अपनी राजधानी लौटा ...मन के विकारों का जो बोझ लेकर वह गया था ...उस बोझ के उतर जाने पर वह आश्वश्त था की यह उपाय  उसकी अपनी प्रजा की वास्तविक भलाई के लिए प्रभावी सिद्ध होगा /  अब उसने अपनी प्रजा  के लिए विपश्यना के केंद्र बनवाये और वहाँ  जाने के लिए अपने परिवार, मंत्रियों , शासन के अधिकारीयों , कर्मचारियों  और प्रजा  को प्रेरित करने लगा / धीरे - धीरे इसके परिणाम आने लगे / सम्राट अशोक का शासन सुराज में बदलने लगा ...इसकी भूरी भूरी प्रशंसा व्हेनसांग और अनेकों चीनी यात्रियों ने अपने संस्मरणों में की है / 


       

                           आज जब फिर से गाँधी  जी ( Gandhi ) और उनके अहिंसक आन्दोलनों  की हम केवल चर्चा ही नहीं कर रहे हैं ... उन पर चलकर भी देखा जा रहा है ... ऐसे में अगर दुसरें सुधर जाय... मैं तो ठीक हूँ ...की जगह सुधार की पहल पहले हमारी और से हो .... अभी कल कहीं से सुना कि " पहला पत्थर भ्रष्टाचारियों पर वो फेंके जिसने कोई पाप नहीं किया हो ... तब तो समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज ही नहीं उठेगी "...एक हद तक सही है पर  नकारात्मकता से भरी हुई है .... पर अगर इसे यूँ कहा जाये कि उस पर पहला पत्थर उस पर मारा जाये जो पापी हमारे सबसे पास हो ... तो शायद हमारी नज़र हम पर शायद सबसे पहले पड़ेगी ... और किसी पर पत्थर फेंकने की नौबत ही न आएगी ... और असोक ने दोनों काम किये.... पर सफल तो वह दुसरे सकारात्मक विचार को क्रियाशील करके ही हुआ ...तभी तो वह  अपने एक प्रसिद्ध शिलालेख में लिखता है  -  " मनुष्यों में जो धर्म की बढोतरी हुयी है वह दो प्रकार से हुयी है - धर्म के नियमों से और विपश्यना ध्यान करने  से / और इनमे धर्म के नियमों से कम और विपश्यना ध्यान करने से कहीं अधिक हुयी है / "  और विपश्यना ध्यान स्वयं के भले कि अनुपम साधना है ...क्योंकि अपनी भलाई मैं सबकी भलाई समायी हुई है / visit- www.vridhamma.org  

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

उज्जैन का पुरातन स्तूप ...


उज्जैन का पुरातन स्तूप ...




                   तथागत कि रुपकाया के अस्थि अवशेष को यूँ स्तूपों में निधान कर सुरक्षित रखने का एक अन्य लाभ यह भी होता है कि उनके एक हाड़-मांस वाले ऐतिहासिक महापुरुष होने कि सच्चाई का प्रमाण चिरकाल तक स्वतः सिद्ध रहता है / उन्हें एक काल्पनिक पौराणिक व्यक्ति मानने का भ्रम दूर होता है / यही नहीं सहस्त्रों वर्षों तक जनसाधारण को तथागत के प्रति कृतज्ञता भरे श्रद्धा सुमन चढाते रहने का पुण्य अवसर मिलता रहता है / 

                इसके अतिरिक्त साधक लोगों को उस अद्भुत रुपकाया के अस्थि अवशेषों से निरंतर प्रस्फुटित होती हुई निर्मल निस्पृहता कि धर्म तरंगों  के सानिध्य में तप-साधना करने का ठोस लाभ मिलता रहता है इसी तारतम्य में उस समय के भारत में तथा आस-पास के पडौसी देशों में  स्तूपों कि एक श्रंखला सी बनती गयी... सम्राट अशोक का उज्जैन से गहरा नाता था अतः मध्यप्रदेश में भी अनेकों स्तूपों का निर्माण होना पाया जाता है पर उज्जैन स्थित स्तूप अपनी निर्माण शैली के कारण सबसे अलग है / 

                  
               यह मिटटी से बना है एवं आज तक अपने पुरातन स्वरूप में कायम है / शंकु आकार का यह स्तूप अपने गोलाकार आधार पर 444  फुट है एवं शिखर कि ऊँचाई लगभग 111  फुट है, जो आसपास एक चौकोर आधार पर चारों ओर 40 फुट  चौड़ी कम गहरी नहर-नुमा संरचना से घिरा हुआ है / संभवतः इसी नहर- नुमा नाली कि मिटटी से इसे बनाया गया होगा  / इस स्तूप में कहते है भगवान बुद्ध का एक दांत,  उनके उपयोग में आने वाला आसन  सन्नहित है / इस विलक्षण स्तूप के समीप ही एक अन्य स्तूप भी इसी तरह से बना हुआ है पर आकार प्रकार में कही अधिक छोटा है /

                 2400  वर्षों से ज्यादा समय गुजरते- गुजरते अब  यह विस्मृत सा एवं उपेक्षित है पर असाधारण है .. उज्जैन रेलवे स्टेशन से 5-6 किलोमीटर दूर  ठीक  कर्क रेखा पर  स्थित यह स्तूप आजकल वैश्य टेकरी के नाम से जाना जाता है ... शायद यह उस समय के उज्जैन नगर के किसी धनाड्य सेठ ने भगवान के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रगट करने के कारण बनवाया हो या भगवान गौतम बुद्ध के पहले हुए भगवान वेस्सभु बुद्ध का इस स्तूप से कोई सम्बन्ध रहा हो यह खोज का विषय है .. इसके इतिहास कि पड़ताल होनी चाहिए एवं इसका संरक्षण तथा विकास भी  /

बुधवार, 18 जुलाई 2012

चैन आये मेरे दिल को दुआ कीजिये ...

चै ये मेरे दि को दु कीजिये ..


 






                सुर ताल और लय इन तीनों का सुमधुर योग संगीत को जन्म देता हैं ...  और जब मनोभावों को शब्द मिलते हैं /  ... तो संगीत जैसे बोल पड़ता हैं जब कोई उस संगीत कि अभिव्यक्ति अपने अभिनय से करता हैं... फिर तो उस संगीत में जैसे जान पड़ जाती हैं .. इस तरह वो अपनी बेहतरीन अभिव्यक्ति के द्वारा सारा मामला अपने हक़ में करने कि असीम संभावनाएं रखता हैं /  ... बस कुछ ऐसी ही बात बन जाती थी,  जब सत्तर के उस दशक में राजेश खन्ना साहब सुनहले परदे पर आते थे /  किसी कलाकार की लोगों के दिलों में किस कदर जगह बन जाती हैं , उसके सारे प्रतिमान राजेश खन्ना साहब के हक में जाते हैं ...    किशोर दा अगर नहीं होते तो यकीं माने हमारे काका ( राजेश खन्ना साहब ) फिर बेजुबान होते या काका " काका " नहीं होते ... खैर " जिंदगी के सफ़र में गुजर जाते हैं जो मक़ाम वो फिर नहीं आते ... बाद में चाहे भेजो हजारों हजारों सलाम वे फिर नहीं आते "  इसलिए दोस्तों जिन्दगी को खूबसूरती से जीना आ जाएँ ! ... तो फिर आँचल का एक तार बहुत होता हैं चाक जिगर सीने के लिए ... !!! किशोर दा की यादों को नमन ... सलाम !!! 

                                                         1972  की सुपर हिट  फिल्म  " मेरे जीवन साथी " के इस यह गीत में राजेश खन्ना साहब जैसे सहज और सधे अभिनय के दम पर अपने चाहने वालों से यही दुआ के लिए अर्ज कर रहे हैं की " चैन आये मेरे दिल को दुआ कीजिये ".

राजेश खन्ना साहब ने जैसे उस युग को  दर्द और पीड़ा की अभिव्यक्ति से निकाल कर रोमांस के रुपहले युग में ले जाकर उसे फिर खूब विस्तार दिया . सत्तर के दशक का वो युग और उस युग के सिनेमा ने देश को एक खुशनुमा जिंदगी जीने के एहसास को बुलंदियां दी. आज भी रेडियो पर , टीवी पर दिन में न जाने कितनी बार उनके गीतों को सुना जाता हैं ... राजेश खन्ना साहब अब जब अपनी अनन्त की यात्रा पर निकल पड़े हैं ... दिल कह पड़ता हैं .... दुआ हैं ... आपके दिल को चैन -ओ - सुकून मिले .


गुरुवार, 12 जुलाई 2012

धीरज बड़े काम की चीज हैं ...



धीरज बड़े काम की चीज हैं ...







                             मन और उसकी प्रकृति की थाह पाना बड़ा दुर्गम काम हैं ...मुआ मन  कभी हिमालय सी उचाईयों पर परवाज भरता हैं तो कभी सागर सी गहराइयों में गोते लगाता हैं ...और इस गीत में बड़ी मासूमियत से मन को धीरज रखने की सलाह रफ़ी साहब की धीर गंभीर और  सधी हुयी आवाज में बार-बार दी गयी हैं ... उस सलाह का असर होते न होते गीत समाप्त हो जाता हैं और आभास दे जाता हैं कि हमारी उंगली जो अभी अभी थामी गयी थी ... अचानक फिर छुड़ा ली गयी हैं  ...  " कोई न संग मरे "  ... अंतरे की इस लाइन पर तो मानों मन के आस-पास बुनी गयी सारी महफ़िल एक बारगी फिर वीराने के हवाले कर दी जाती हैं ... और यहीं आकर प्रदीप साहब शराब हलक से नीचे उतार जाते हैं ... और कई सवाल खड़े करके गीत समाप्त हो जाता हैं /                                                                   
                                  " मन धीरज रखे " ... इस गीत का अप्रतिम सन्देश हैं ... साथ ही साथ वह धीरज क्यों न रखे इस बात कि लम्बी फेहरिश्त मन का धीरज डांवाडोल करती रहती हैं ... साहिर साहब ने कुछ भी नहीं छुपाया पर हमें तो अपने काम की चीज ... अरे वही " सकारात्मकता"  को जो इस गीत के प्राण  हैं को मजबूती से पकड़ना हैं ... क्योंकि वही हमारे मंगल का कारण बनेगी /  

                                   धीरज और संतोष एक ही सिक्के के दो पहलु हैं ... और दोनों ही परम धन भी ! पर देखों न दोनों सुलभ और अनमोल होते हुए भी मानव मन की पकड़ से कोसो दूर हैं ... बेचारा मन यदाकदा गीतों में ... कहानियों में ... प्रवचनों में धीरज और संतोष की बातें करके ही रह जाता हैं ... कभी इन अनमोल और परम धनों की छाह उसे नसीब नहीं होती / कई अडचने हैं ... कई बाधाएं हैं ... जिनके चलते दुःख की गर्त में सदियों से डूबा मन अब ऊपर उठ सहज सुख की और जाने की प्राकृतिक शक्ति और युक्तियाँ भुला बैठा हैं /

                                   फिर भी प्रकाश हैं और कहीं दूर नहीं हमारे आसपास ही मौजूद हैं   ... हमें उसे चकाचौंध में नहीं दीपक की टिमटिमाती लौ में खोजना होगा / हाँ मेरा इशार एक बार फिर मन की और ही हैं जनाब ... हैं न हमारे बिलकुल नजदीक और हम हैं की उसकी ओर कितने बेरुखे से रहते हैं ... उसे ज़माने भर की सलाह और ढेरों कानून कायदों से लाद देते हैं ... उसका बोझ कम हो ... मन  अपने निर्मल कुदरती स्वभाव में लौटे इसका कोई जतन ही नहीं किया कभी .... बड़े बड़े सवाल जिनके जवाब आज तक किसी को नहीं मिले ... और जिन्हें मिले भी तो ऐसे की  हमें समझाए भी तो कैसे ... बस उन सवालों जैसे ... इस जीवन की डोर किसने थामी ?  इस रूप संसार को किसने बनाया ? 
                                            
                               हाँ बड़े बड़े सवालों का जवाब मिले यह हमारा कुदरती हक़ हैं ! ... पर बड़े बड़े सवालों के आसान हल भी हो सकते हैं इस बात पर हमारा जरा भी यकीं नहीं ! ... और यहीं पर हमारे इसी अविश्वास का फायदा बुरी लतों और बुरे मंसूबों से मौके की तलाश में बैठे ठगों ने खूब उठाया हैं / मन का जितना विस्तार बाहर-बाहर हैं उससे कई गुना ज्यादा हमारे अन्दर हैं और हमारे अन्दर ही छुपा हैं  सारे संसार का रहस्य / सुना नहीं क्या ... " मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे मैं तो तेरे पास में " 


                   सदियों पूर्व सिद्दार्थ गौतम के सामने भी यहीं जटिल सवाल था कि इतने उपदेश, इतने सुख साधन मानव को दुखों से पार क्यों नहीं ले जा पा रहे हैं ? ... इस सवाल के जवाब को पाने को बेताब उनका मन फिर लग गया उस समय के परंपरा गत साधनों को आजमाने में .... पर दुःख विमुक्ति कि राह उन्हें नहीं मिली ! ... फिर तो उन्हौने बड़े कठिन जतन से दुखों से विमुक्ति के परम मार्ग विपश्यना को पुनः खोज निकाला ... और इस मार्ग से उस समय के भारत और पडौसी देशों में करोड़ों लोगों का मंगल सधा ... सौभाग्य से उनकी खोज विपश्यना ( Vipassana ) आज भी हमें उस मौलिक स्वरुप में उपलब्ध हैं ....और आज भी विपश्यना साधना के वहीँ फल आते हैं जैसे सदियों पहले आते थे .....  मंगल हो !!

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मंगलवार, 10 जुलाई 2012

एक पुल है कि बनता नहीं ... !!


एक पुल है कि बनता नहीं ... !!

              बड़ी इच्छा शक्ति और उत्साह से एक बड़ा समारोह करके उस पुल का शिलान्यास हुआ ... पैसों कि कमी उसके निर्माण में आड़े नहीं आये इसके पुख्ता इन्तेजाम हुए ... पुल निर्माण में माहिर ठेकेदारों को बुलाया गया ... एक अच्छे गुणवंत ठेकेदार का चयन हुआ ... योग्य इंजिनियर इस काम में लगे ... कोई कोर - कसर बाकि न रहे इस हेतु आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल का विचार हुआ ... बड़ी-बड़ी मशीनें आई ... निर्माण में गुणवत्ता कि कसमें खायी ... हल्ला गुल्ला हुआ ... निर्माण में बाधा न पहुंचे इस हेतु जनता कि आवाजाही को बाधित किया ... क्या क्या न किया पर पुल हैं कि बनता नहीं ? 

                     पांच - छः साल हुए इस बात को ... उसके निर्माण कि खबरें जब आना शुरू हुयी थी ... मेरे पिता अख़बारों में इस खबर को पढ़कर बहुत खुश हो जाया करते थे ... और मैं था कि बचपन में सुने किस्से कहानियों से बनी धारणा से  आगे अपनी सोच को टस से मस करने को राजी नहीं था . बचपने में जब मैं छुट्टियों में मामा के घर जाता,  तो वहां बहने वाली नदी में स्नान का लुत्फ़ उठाना हम बच्चों का प्रिय शगल होता . .. नदी स्नान के बाद भी कहाँ सीधे घर जाते !! ... वहीँ नदी पर बने पुल और उसके किस्से कहानियों की दावत उड़ती ... तभी कोई सबकों तिलस्मी हावभावों से चौकाकर यह कहता की ... कान देकर सुनों !... मैंने सुना हैं ! ... और ये एकदम सच्ची हैं !!  ... ये पुल बड़ी मुश्किलों से बना हैं ... यह तो बनता और बार बार गिर जाता ... फिर इसे बलि देना पड़ी ... जितने खम्बे उतने इनसानों की बलि खाकर इसका एक- एक पाया खड़ा हुआ हैं ... और हम सब बच्चे अजीब से रोमांच में डूब जाते ... फिर तो बार बार हर कोई बलि की घटनाओं को अपने ठंग से कहता ... पर मजाल हैं कोई बोरियत हो ... अमूमन हमेशा नदी , उसका पुल ..और पुल की मांगी बलि के किस्से जैसे हमारे लिए आजकल के टीवी धारावाहिकों  से थे .

               वैसे मैं क्या हम सब इस क्षेत्र के रहवासी भूल चुके हैं कि यहाँ कोई पुल भी बन रहा हैं ... उसके पास से निकल भी जाएँ तो नजरें उधर नहीं जाती ... जैसे सबने अब तय मान लिया हैं की ... यह पुल नहीं बन सकता... पर आज उस पुल से जुडी खबर ने याद दिलाया तो याद आये  ... वहीं बचपन का नदी स्नान ... वही पुल ... और वही किस्से ... पर बलि ... ना बाबा ना ... ये पुल ना बने तो ना बने ... इसके अधूरे निर्माण को किसी खंडहर की तरह विकसित किया जाएँ ... क्योंकि वे बलि नहीं मांगते... जीर्ण - शीर्ण होकर भी ... धुल धूसरित होकर भी लुभाते तो हैं ... कुछ पलों के लिए ही सही ... सपनों की नईदुनिया में ले जाते तो हैं .


         मानो या ना मानो ... सच कहता हूँ !!  ... पुल निर्माण में हम बड़े फिसड्डी हैं ... और दीवारें बनाने   में उतने ही माहिर .... हमने जातियां बनायीं ... पर जाति-पाती के बीच पुल नहीं बना पायें ... हमने उंच - नीच बनायीं  .. पर उंच -नीच के  बीच पुल नहीं बना पायें ... हमने सम्प्रदाय  बनाये ... पर उनके  बीच फिर पुल नहीं बना . हमने सरहदे बनायीं पर पुल बनाना फिर नहीं आया . यहाँ तक की हमने बड़े-बड़े धर्मों की खोज की पर उनके बीच निस्सार को परें कर सार नहीं खोज पायें ... वे आपस में एक हो पायें ... कहीं कोई पुल बन जाएँ .... पर हाँ ...  यहाँ हमने एक काम जरूर किया ... जिसने भी कभी इन्सान - इन्सान के बीच पुल बनने की कोशिश की ... कहीं पुल बन जाएँ इस इरादे से .... उसकी बलि जरूर ली ... कुछ भी हो उनका बलिदान काम आयें ... पुल जरूर बन जाएँ ... पुल जरूर बन जाएँ .
   

सोमवार, 2 जुलाई 2012

जड़े सुधरेंगी जब, लाभ होगा तब ...


जड़े सुधरेंगी जब, लाभ होगा तब ...



                  जकल एक ही शोर चारों  तरफ है , भ्रष्टाचार...भ्रष्टाचार, पर गहराई से विचार करे तो मात्र शोर मचाने से कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं होगा, बल्कि ज्यूँ - ज्यूँ भ्रष्टाचार  उजागर होते जायेंगे त्यूं-त्यूं भ्रष्टाचार   से बचने - बचाने के नए - नए  तरीके विकसित होते ही जाना हैं  ..मानो मर्ज बढता ही गया ज्यूँ - ज्यूँ दवा  की .  इसका मतलब यह भी नहीं कि भ्रष्टाचार के दानव को यूँ  ही पनपने दिया जाय ..नहीं...  एक तरफ तो उस पर वार हो जिससे वाचिक एवं कायिक स्तर  पर भ्रष्ट आचरण से लोग बचे रहे, वहीँ  दूसरी तरफ हमें प्रत्येक  को उसकी जड़ों का भी सुधार करना होगा,  जिससे मानसिक स्तर पर जब - जब मन के  विकार जैसे लालच, वासना , हिंसा इत्यादि बुरे  आचरण के लिए उकसाए तब तब उनका शमन हो / 


          प्रारंभ में यूँ लगता है जैसे अच्छा आचरण करके हम औरों पर एहसान करते हैं , पर गहराइयों से जानेंगे तो मालूम होने लगेगा हम ऐसा करके स्वयं का सर्वाधिक भला करते है / ईमानदारी का संज्ञान दुनिया देर -सबेर लेती ही हैं...यहाँ तक की बेईमान भी इमानदारों की तलाश में रहते हैं /

                  सभी अपने मन कि कमजोरियों के गुलाम है ..कहीं  न कहीं  मन ही हमारी कमजोरियों कि वकालत भी करने लगता है ....ठीक है.... फिर भी हम मन को ही मन से सुधारने का काम भी  कर सकते हैं  ..यह संभव है विपश्यना साधना के अभ्यास से .... सुने गए ज्ञान से भला होता है ..सुन कर समझे  गए ज्ञान से भी भला होता है ..... पर इन सबसे ज्यादा भला तो सुन और समझकर बात को अपने  आचरण में उतारने से होता है . .. ऐसा होता है... इसीलिए भारतीय रेलवे बोर्ड ने अपने आदेश क्रमांक - ई ( टी आर जी ) २००५ ( ११) ९३ नई - दिल्ली  दिनांक २०.११.२००७  के द्वारा  अपने कर्मचरियों को विपश्यना के १० दिवसीय शिविरों में भाग लेने के लिए विशेष आकस्मिक अवकाश की  सुविधा  दी है .


                  संप्रदाय विहीन,  सबके अपनाने योग्य विपश्यना के ये १० दिवसीय शिविर निःशुल्क होते है..ऐसे शिविर पुराने साधकों  के द्वारा, आने वाले भावी साधकों  के लिए शुद्ध चित्त से दिए गये  दान से संचालित होते है .  भावी शिविरों कि जानकारी विपश्यना की  वेब साईटwww.vridhamma.org से प्राप्त  कि जा सकती है .