मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

वो दिन क्यूँ न आये ..?


वो दिन क्यूँ न आये ..?










             र किसी के जीवन में कुछ स्मृतियाँ अमिट होती हैं ... कभी धुंधला भी जाएँ अगर तो कारण- अकारण फिर ताज़ा हो आती हैं ...   जब कभी बिन बुलाये वो लौट-लौट आती रहती हैं / मानव मन के लिए संवेदनाओं की बड़ी अहमियत हैं ... हर इंसानी हरकत संवेदनाओं की लहरों पर दिन-रात तैरती रहती हैं ... संवेदनाओं की लहरों पर सवार हम कभी लहरों के सहारे तो कभी लहरों के विपरीत दो कदम आगे तो कभी चार कदम इधर-उधर होकर ही रह जाते हैं /

           इंसानी फितरत को कभी-कभी संगीत और नगमों की शक्ल में बड़ी खूबसूरती से तराशा और माला के रूप में पिरोया जाता रहा हैं ... गुजरे ज़माने की फिल्म " अनुराधा " का यह गीत लताजी की आवाज की अनुपम देन पंडित रविशंकर जी की संगीत रचना में एक सदाबहार कृति हैं ..."  जा जा के ऋतू लौट आये ... "  पर गजब के ठहराव के साथ लता जी का गाना ...  गीत को मानो ठुमक ठुमक कर आगे ले जाता हैं  ...  हर उम्दा कोशिश का अपना असर हर मौसम में,  हर उस घडी में सजीव हो उठता हैं जब मन रह-रह कर फिर पुरानी यादों की भूली बिसरी गलियों में लय बद्ध होकर संवेदनशील हो उठता हैं / बस यहीं पर विवेक का साथ बड़ा जरूरी बन पड़ता हैं ... यहीं बस यहीं आकर मन की गाड़ी मानो किसी अंधी गली में खो जाने को होती हैं ... तभी पुरानी यादें झिलमिल तारों सी राह रोशन करती हैं ...  हाँ तब  मन की बाती जलती रहे बुझने न पायें /


                  बीते दिन नहीं लौटते ... बीती यादें जरूर लौटती हैं ... मन फिर उसी तरह से झंकृत भी हो उठता हैं ... विवेक साथ  रहे तो पाते हैं की बदली परिस्थितियों में उन भूली बिसरी संवदनाओं की औकात अदनी सी होकर भी बड़ी उथल पुथल मचा सकती हैं ...और तभी एक सकारात्मक और सटीक निर्णय जीवन की दिशा बदल सकता हैं ... बस इतना हो कि मन की समता बनी रहे .. और यही समता बड़ी तेजी से भंवर में फंसी कश्ती को किनारे पर ले आती हैं /


वसंत-पतझड़ आते रहेंगे ... हर मौसम में समता बनी रहे ... 

भला  हो !! 

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

काहे न धीर धरे

काहे न धीर धरे ... ! 





                             मन और उसकी प्रकृति की थाह पाना बड़ा दुर्गम काम हैं ...मुआ मन  कभी हिमालय सी उचाईयों पर परवाज भरता हैं तो कभी सागर सी गहराइयों में गोते लगाता हैं ...और इस गीत में बड़ी मासूमियत से मन को धीरज रखने की सलाह रफ़ी साहब की धीर गंभीर और  सधी हुयी आवाज में बार-बार दी गयी हैं ... उस सलाह का असर होते न होते गीत समाप्त हो जाता हैं और आभास दे जाता हैं कि हमारी उंगली जो अभी अभी थामी गयी थी ... अचानक फिर छुड़ा ली गयी हैं  ...  " कोई न संग मरे "  ... अंतरे की इस लाइन पर तो मानों मन के आस-पास बुनी गयी सारी महफ़िल एक बारगी फिर वीराने के हवाले कर दी जाती हैं ... और यहीं आकर प्रदीप साहब शराब हलक से नीचे उतार जाते हैं ... और कई सवाल खड़े करके गीत समाप्त हो जाता हैं /                                                                   
                                  " मन धीरज रखे " ... इस गीत का अप्रतिम सन्देश हैं ... साथ ही साथ वह धीरज क्यों न रखे इस बात कि लम्बी फेहरिश्त मन का धीरज डांवाडोल करती रहती हैं ... साहिर साहब ने कुछ भी नहीं छुपाया पर हमें तो अपने काम की चीज ... अरे वही " सकारात्मकता"  को जो इस गीत के प्राण  हैं को मजबूती से पकड़ना हैं ... क्योंकि वही हमारे मंगल का कारण बनेगी /  

                                   धीरज और संतोष एक ही सिक्के के दो पहलु हैं ... और दोनों ही परम धन भी ! पर देखों न दोनों सुलभ और अनमोल होते हुए भी मानव मन की पकड़ से कोसो दूर हैं ... बेचारा मन यदाकदा गीतों में ... कहानियों में ... प्रवचनों में धीरज और संतोष की बातें करके ही रह जाता हैं ... कभी इन अनमोल और परम धनों की छाह उसे नसीब नहीं होती / कई अडचने हैं ... कई बाधाएं हैं ... जिनके चलते दुःख की गर्त में सदियों से डूबा मन अब ऊपर उठ सहज सुख की और जाने की प्राकृतिक शक्ति और युक्तियाँ भुला बैठा हैं /

                                   फिर भी प्रकाश हैं और कहीं दूर नहीं हमारे आसपास ही मौजूद हैं   ... हमें उसे चकाचौंध में नहीं दीपक की टिमटिमाती लौ में खोजना होगा / हाँ मेरा इशार एक बार फिर मन की और ही हैं जनाब ... हैं न हमारे बिलकुल नजदीक और हम हैं की उसकी ओर कितने बेरुखे से रहते हैं ... उसे ज़माने भर की सलाह और ढेरों कानून कायदों से लाद देते हैं ... उसका बोझ कम हो ... मन  अपने निर्मल कुदरती स्वभाव में लौटे इसका कोई जतन ही नहीं किया कभी .... बड़े बड़े सवाल जिनके जवाब आज तक किसी को नहीं मिले ... और जिन्हें मिले भी तो ऐसे की  हमें समझाए भी तो कैसे ... बस उन सवालों जैसे ... इस जीवन की डोर किसने थामी ?  इस रूप संसार को किसने बनाया ? 
                                            
                               हाँ बड़े बड़े सवालों का जवाब मिले यह हमारा कुदरती हक़ हैं ! ... पर बड़े बड़े सवालों के आसान हल भी हो सकते हैं इस बात पर हमारा जरा भी यकीं नहीं ! ... और यहीं पर हमारे इसी अविश्वास का फायदा बुरी लतों और बुरे मंसूबों से मौके की तलाश में बैठे ठगों ने खूब उठाया हैं / मन का जितना विस्तार बाहर-बाहर हैं उससे कई गुना ज्यादा हमारे अन्दर हैं और हमारे अन्दर ही छुपा हैं  सारे संसार का रहस्य / सुना नहीं क्या ... " मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे मैं तो तेरे पास में " 


                   सदियों पूर्व सिद्दार्थ गौतम के सामने भी यहीं जटिल सवाल था कि इतने उपदेश, इतने सुख साधन मानव को दुखों से पार क्यों नहीं ले जा पा रहे हैं ? ... इस सवाल के जवाब को पाने को बेताब उनका मन फिर लग गया उस समय के परंपरा गत साधनों को आजमाने में .... पर दुःख विमुक्ति कि राह उन्हें नहीं मिली ! ... फिर तो उन्हौने बड़े कठिन जतन से दुखों से विमुक्ति के परम मार्ग विपश्यना को पुनः खोज निकाला ... और इस मार्ग से उस समय के भारत और पडौसी देशों में करोड़ों लोगों का मंगल सधा ... सौभाग्य से उनकी खोज विपश्यना ( Vipassana ) आज भी हमें उस मौलिक स्वरुप में उपलब्ध हैं ....और आज भी विपश्यना साधना के वहीँ फल आते हैं जैसे सदियों पहले आते थे .....  मंगल हो !!

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शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

मैं तुझसे क्या मांगू ... ?

मैं तुझसे क्या मांगू ... ? 





              होना तो यही चाहिए कि हम उस उपरवाले से  कुछ न मांगे बस सच के पथ पर लगन से,  निष्ठा से,  परिश्रम के बल चलते चले जाएँ   ... पर ऐसा कहाँ कर पाते हैं ? ... बिना मांगे एक पल भी नहीं गुजरता ,  एक कदम नहीं बढ़ता / यही भिखमंगन प्रवृत्ति इस कदर सर्वत्र फैली हुई हैं कि प्रकृति के शास्वत नियम और कर्म फलों के असाधारण और अद्वितीय सिद्धांत की हर दम अवहेलना करते हुए अपना सारा बहुमूल्य जीवन बर्बाद कर ही देते हैं / बहुधा और अतिश्योक्ति न हो तो हमेशा ही अपनी इस भिखमंगन आदत के चलते हम इस या उस बाबा के द्वारा बहुविध प्रलोभनों में उलझा ही दिए जाते हैं / लगभग हर संप्रदाय ने इस दूषित प्रवृत्ति को न चाहकर भी आश्रय ही दिया हैं / ईश्वर अगर हैं तो ...  और अगर नहीं भी हैं तो ...  कर्म फल का सिद्धांत तो वहीं का वहीं रहता हैं ...  " जैसे कर्म वैसे फल "  ... वो नहीं बदलता / फिर हमें सबसे ज्यादा सतर्क ... वर्तमान कर्म करते हुए रहना चाहिए ... कर्म ही हमारे सच्चे बंधू हैं ... सच्चे मित्र हैं ...असल  सहारा हैं /

                         ईश्वर ने अगर बनाया होगा तो पहले कर्म का सिद्धांत बनाया होगा पीछे की होगी तो की होगी इस संसार की रचना / उसे पूरा अंदेशा रहा होगा कि लोग अपने ही बुरे कर्मों के फलों के उदय के समय अधीर होकर उनसे बचने का हर संभव प्रयत्न करेंगे ही और लगे हाथों डबडबायी आखों और कातर कंठ से दया की याचना करने में सारी ताकत  झोंक देंगे ...  निहायत असंभव हैं कर्म फल का सिद्धांत पलटना /  हमारा वर्त्तमान हमारे पूर्व के कर्मों की संतान हैं ... जब अच्छे दिन आये तो यह विचार मन में रहे की हमारे किन्ही अच्छे कर्मों के फलों के उदय समय आन पड़ा हैं ... एवम उन क्षणों का उपयोग नए और सम्यक कर्मों को करने में बीते ... और जब आये विपत तो मन धीरज से उन फलों को भुगते और उन विपदा भरें क्षणों में भी हर संभव सम्यक कर्म हो इस हेतु सजग रहे / 


                         यह गीत एक और बात हमारे सामने बड़ी खूबसूरती से ...  धीरे से ... बड़ी ही सफाई यह रखता हैं की अपना राम तो रोम-रोम में बसा हुआ हैं ... ठीक ही कहा गया हैं ... इस गहन भेद की बात समझने के लिए हमें रोम -रोम तक पैठ बनानी ही होगी ... और रोम-रोम तक पैठ बने इस हेतु शुद्ध सम्यक मार्ग की खोज करना ही होगी ... जो हमें परावलम्बी नहीं अध्यात्म के क्षेत्र में स्वावलंबी बनाये /...  कौन पिता यह चाहेगा की ... उसकी अपनी संतान उसके ही सामने कातर कंठ से रो-रो कर दिन-रात भीख मांगती नज़र आये ... फिर भगवान जिसे हम परम-पिता कहते हैं ...  को हम कब अपने पुरुषार्थ से !... अपनी निष्ठां से !... अपनी लगन से !...  उसके बताये हुए रास्तों पर सचमुच चलकर दिखायेंगे ... अपने कल्याण के लिए ... और साथ ही साथ सबके भले के लिए / 

                                                                                                                       
                          " नीलकमल "  फिल्म का यह गीत आशाजी की विविधताओं से भरपूर, झरने सी कलकल निनाद सी निहायत कर्णप्रिय कृति हैं / वहीदा जी का भावप्रवण अभिनय निहायत सादगी भरा हैं ...  वे फ्रेम दर फ्रेम " मैं तुझसे क्या मांगू " बस इसी एक भाव की प्रधानता को मुखर करती जाती हैं ....   गीत अपनी समाप्ति तक मन की गहराइयों तक इस बात के महत्त्व को स्थापित करने की अपनेतई भरसक कोशिश करता ही हैं ...  की मांगने की बीमारी से उबरें ... किसी की हम पर किरपा अगर होगी तो हमारी अपनी किरपा ही होगी ... कोई अगर हमारा साथ देगा तो वे हमारे अपने कर्म ही अपने साथ होंगे ..... मंगल हो !!!


कुदरत का कानून है ,  सब पर लागू होय /
मैले मन दुखिया रहे , निरमल सुखिया होय //

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मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

वो दिन क्यूँ न आये ..?

वो दिन क्यूँ न आये ..?






             र किसी के जीवन में कुछ स्मृतियाँ अमिट होती हैं ... कभी धुंधला भी जाएँ अगर तो कारण- अकारण फिर ताज़ा हो आती हैं ...   जब कभी बिन बुलाये वो लौट-लौट आती रहती हैं / मानव मन के लिए संवेदनाओं की बड़ी अहमियत हैं ... हर इंसानी हरकत संवेदनाओं की लहरों पर दिन-रात तैरती रहती हैं ... संवेदनाओं की लहरों पर सवार हम कभी लहरों के सहारे तो कभी लहरों के विपरीत दो कदम आगे तो कभी चार कदम इधर-उधर होकर ही रह जाते हैं /

           इंसानी फितरत को कभी-कभी संगीत और नगमों की शक्ल में बड़ी खूबसूरती से तराशा और माला के रूप में पिरोया जाता रहा हैं ... गुजरे ज़माने की फिल्म " अनुराधा " का यह गीत लताजी की आवाज की अनुपम देन पंडित रविशंकर जी की संगीत रचना में एक सदाबहार कृति हैं ..."  जा जा के ऋतू लौट आये ... "  पर गजब के ठहराव के साथ लता जी का गाना ...  गीत का ह्रदय स्थल हैं ...  हर उम्दा कोशिश का अपना असर हर मौसम में,  हर उस घडी में सजीव हो उठता हैं जब मन रह-रह कर फिर पुरानी यादों की भूली बिसरी गलियों में लय बद्ध होकर संवेदनशील हो उठता हैं / बस यहीं पर विवेक का साथ बड़ा जरूरी बन पड़ता हैं ... यहीं बस यहीं आकर मन की गाड़ी मानो किसी अंधी गली में खो जाने को होती हैं ... तभी पुरानी यादें झिलमिल तारों सी राह रोशन करती हैं ...  हाँ तब  मन की बाती जलती रहे बुझने न पायें /


                  बीते दिन नहीं लौटते ... बीती यादें जरूर लौटती हैं ... मन फिर उसी तरह से झंकृत भी हो उठता हैं ... विवेक साथ  रहे तो पाते हैं की बदली परिस्थितियों में उन भूली बिसरी संवदनाओं की औकात अदनी सी होकर भी बड़ी उथल पुथल मचा सकती हैं ...और तभी एक सकारात्मक और सटीक निर्णय जीवन की दिशा बदल सकता हैं ... बस जरूरत होती हैं मन की समता बनी रहे .. और यह समता बड़ी तेजी से भंवर में फंसी कश्ती को किनारे पर ले आती हैं /


वसंत-पतझड़ आते रहेंगे ... हर मौसम में समता बनी रहे ... 

भला  हो !! 

  
    


सोमवार, 9 अप्रैल 2012

गुजरे ज़माने का चलन ...


गुजरे ज़माने का चलन ...  





           1973 की सुपर हिट फिल्म " दाग " का यह गीत आज भी जब सुनाई देता हैं,   तो अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहता / यह उस दौर का गीत हैं जब शर्मीला टैगोर और राजेश खन्ना की जोड़ी तब के दौर में एक के बाद एक सुपर हिट फ़िल्में दिए जा रही थी /  भारतीय फिल्मों का सुनहरा इतिहास आकार ले रहा था ... आज जितनी भी फिल्में हमारे यहाँ दौड़ पा  रही हैं उसकी सारी उर्जा का संचयन उन्ही दिनों में हुआ था ... नायक-नायिकाओं , निर्माता-निर्देशकों , गायक-संगीतकारों, पटकथा - संवाद - कहानीकारों, नगमानिगारों यहाँ तक की फिल्मों के चाहने वालों का भी मानो इस धरा पर एक स्वर्ण युग था /  उन दिनों एक के बाद एक मुंबई की सरजमीं पर सितारों का जमघट सा लग गया था / श्वेत-श्याम फिल्मों का युग उन दिनों मानों अभी-अभी आये फिल्मों के रंगीन युग का भरपूर लुत्फ़ उठा रहा था ...  आज भी प्रतिभा तो बहुत हैं पर सामंजस्य नहीं ... सब बिखरा-बिखरा सा जान पड़ता हैं /

                   
                   ये तो बात गुजरे ज़माने के चलन की थी ...  पर देखियें ना आज भी ऐसा ही तो होता जा रहा हैं ... दूसरों के दिल पे क्या गुजरेगी इस बात पर अब कहाँ कोई सोचता हैं ... आजकल मुहब्बत भी एक व्यापार के सिवा क्या रह गयी हैं .... एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग ... सोचों ऐसा कब नहीं हुआ ... कडवी सच्चाई हैं ... हकीकत के बेहद करीब ... एक नकली दुनिया बसा ही लेते हैं लोग /



                                   लता जी की आवाज इस गीत में अपना पुरजोर असर दिखाती हुई आसमान की बुलंदियों से सीधे कानों पर उतरती सी जान पड़ती हैं ... शर्मीला जी का सरल-सधा अभिनय गीत में जान फूंकता जाता हैं ... नगमानिगार साहिर साहब इस गीत की एक-एक लाइन एक-एक शब्द को इस तरह से पिरोते जाते हैं कि... वो जमाना अब कहाँ जो अह-ले  दिल को रास था ... तक आते आते सारी पीड़ा को सुखद अंत तक ले जाने की भरसक कोशिशों के बाद दिल को धडकता हुआ बस हौले से छोड़ देते हैं / जरूर सुने गुजरे ज़माने का यह गीत .... शायद कहीं किसी मोड़ से आती कोई आवाज आपको भी सुनाई दे जाएँ ... आपकी प्रतिक्रिया आपकी मुस्कराहट से ... आपकी यादों के झरोखों से होती हुई साफ दिखाई पड़ रही हैं .... चाहत सर्द न पड़ जाये ... हार जाएँ न लगन ....  फिर मिलेंगे ... शुभ रात्रि  /


शनिवार, 7 अप्रैल 2012

थामे नैतिकता का हाथ ...

थामे नैतिकता का हाथ ...


                      पिछले एक साल से हमारे देश में परिवर्तन का एक सुखद दौर चल पड़ा हैं ... जी हाँ हम अपने ही भ्रष्टाचार से इतने परेशां हो गए की उसके खिलाफ लडाई लड़ने की हड़बड़ी में हर संभव उपायों को आजमाने की जल्दी में दिखाई दिए ... पहले आवाज उठी और जोरों से अभूतपूर्व तेजी से उठी कि कड़ा कानून बनाओ ... और जल्दी से बनाओ ... यहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ  कानून बनाया जाय यहाँ तक तो ठीक था पर उसके अत्यंत कड़े और जल्दी बनाये जाने के पीछे कहीं देश में गलतफहमी फ़ैलाने की गलत इरादे भी नजर आ रहे थे ... सोंचे जरा कड़ा कानून अगर बेलगाम हुआ और हमारे नियंत्रण से बाहर निकल गया तो उसका बेजा इस्तेमाल सही और ईमानदारों को सताने और एक दुसरे को मोहरा बनाने में भी हो सकता हैं / शायद इसीलिए शुरू शुरू में आये लोग धीरे धीरे यह भांप गए कि चाहे देर लगे पर सटीक कानून बनें / 


                          पर भाई यह तो भ्रष्टाचरण का एलोपैथिक इलाज हुआ ... असल फायदा और आराम तो हमें अपने आप को नैतिकता का दामन थामने को तैयार करने से होगा ... आज कितने कानून हैं ... बलात्कार , चोरी , और हत्या जैसे अपराधों पर लोगों को सजाएँ भी हो ही रही हैं ... पर देखो न कोई दिन खाली नहीं जाता ... हर रोज नित - नए  अपराधों कि फेहरिश्त सुबह-सुबह अख़बार घर पर दे जाता हैं /   



                               हम गाँधी जी को केवल संसार का सबसे महान इन्सान मानकर न रह जाएँ ... बल्कि उनकी बातों के अनुसार आचरण करते भी नजर आयें तभी शायद  सबके कल्याण का मार्ग खुलेगा ... अन्यथा दूसरों को भ्रष्ट कहने और अपने बुरे आचरण को छुपाने में ही बहुत सारा समय व्यर्थ गँवा देंगे /  महात्मा गांधीजी का एक विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ जो हमेशा कि तरह कालजयी हैं ... अमूल्य तो हैं ही / 


                           " हमारा राष्ट्र सच्चे अर्थ में आध्यात्मिक राष्ट्र उसी दिन होगा , जब हमारे पास सोने की अपेक्षा सत्य का भंडार अधिक होगा , धन और शक्ति के प्रदर्शन की अपेक्षा निर्भयता अधिक होगी और अपने प्रति प्रेम की अपेक्षा दूसरों के प्रति उदारता अधिक होगी / यदि हम केवल इतना ही करें की अपने घरों , मुहल्लों और मंदिरों में धन के आडम्बर का प्रवेश न होने देकर नैतिकता का वतावरण पैदा करें तो हम भारी रणसज्जा का बोझ उठायें बिना शत्रु  से . चाहे वह जितना भी भीषण क्यों न हों , निपट सकते हैं / " ..... महात्मा गाँधी