शुक्रवार, 28 जून 2013

अहो नेता ... !!!

              म. गांधीजी के पास दो चीजें थी " रीति और नीति " और इनको धरातल पर उतारने के लिए थी तीसरी अत्यंत महत्वपूर्ण चीज भी थी .. और वह थी .. " प्रतीति " याने अनुभवजन्य ज्ञान ... और इसी अनुभवजन्य ज्ञान ( आध्यात्मिक ज्ञान ) के बल पर वे देश काल की सीमाओं से परे आज सारे विश्व में जाने और समझे जाने वाले भारत भूमि के एक मात्र नेता हैं ... और भी कई नेता हुए हैं हमारे देश में , पर वे प्रदेश या बहुत हुआ तो देश की सीमाओं से परे नहीं जाने जा सके ... 


                किसी के पास अच्छी नीति होती हैं , तो किसी के पास भली रीति होती हैं ... पर प्रतीति सबके पास या तो होती नहीं या होती भी है तो आधी अधूरी ... वस्तुतः प्रतीति में रीति और निति का समावेश बहुत खूबसूरती से हो जाता हैं ... फिर भली नीति या समुचित रीति की चिंता नहीं करनी पड़ती हैं ... प्रतीति इन दोनों का धरातल पर अवतरण बड़ी सुगमता से कर देती हैं ...


             भारत जब भी विश्वगुरु था इसी प्रतीति के बल पर था ... और आगे भी जब भी विश्व गुरु कादर्जा पायेगा इसी प्रतीति को आगे करके ... भारत के पुनः अभ्युदय में निहित विश्वकल्याण के मंगल भावों की मानो म. गांधीजी ने जैसे आगे बढकर आगवानी की थी ... 


                उनकी इसी उदात्त भावनाओं का ही असर था कि उनकी मृत्यु पर सारा विश्व स्तब्ध हो गया था ... और उनकी हस्ती के आगे बिना औपचारिकता के नतमस्तक भी ... संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय में उस दिन झंडा झुक गया था ... बिना इसका विचार किये की म. गांधीजी कोई राजनयिक नहीं थे ... किसी देश के राष्ट्रपति नहीं थे ... प्रधानमत्री नहीं थे ... और ना ही थे किसी संप्रदाय के नेता ... न कोई समाजसुधारक ..ना विश्व विजेता ...


वस्तुतः वे सही मायनों में "नेता" थे ... 

बुधवार, 12 जून 2013

कुछ तो लोग कहेंगे .. !!!


            कुछ लोग सत्य पर बड़ा पत्थर रखकर उसे फिर तलाशते हैं ... और इस प्रयास में किसी दुसरे सत्य से जो की पहले सत्य के नीचे दबा हैं ... उसे ऊपर लाकर सत्य -सत्य के बीच भेद पैदा करके फिर खुद भी परेशां होते हैं ... और नाहक भ्रम पैदा करके फिर मज़े लेते हैं ... इसे सही शब्दों में कहे तो " फुट डालों और राज करो " ....की सड़ी -गली नीति ...


              फिर भी अगर किसी को इस क्रिया से रत्ती भर भी सुख या चैन मिले या मिला हो तो बेशक इसे जारी रखे ... पर हम सब जानते हैं ,  यूँ होता नहीं ....दूसरों को बांटकर,  बांटने वाला कब साबुत रह पाता हैं ... दूसरों को बांटने से पहले हम स्वयं बंट जाते हैं .... 

                सकारात्मकता के विरोधी दोगुनी मेहनत करते हैं ... 90 % मेहनत उनकी निंदा में जाती हैं ... 10 % वे खुद की तर्ज पर विकसित सकारात्मकता को जमीं पर उतरने में खर्च करते हैं ... और इस उहापोह में मात्र 5-6 % ही नतीजे उनके पक्ष में आते हैं ... और वह भी जब उनके भाग में कोई सद्पुरुष किस्मत से उनके साथ जुड़ता हैं तो ... या जुड़ा रह जाता है तो ... 

             वैसे नकारात्मकता से कभी - कभी कोई सद्पुरुष तो जुड़ते हैं या जुड़े है  ... पर बंजर जमीं उनकी उत्पादकता को जज्ब कर जाती हैं ....66 / 6 साल मिलना इसका उत्कृष्ट और उजाला नमूना हैं ... और उस गोत्र का एक मात्र सद्पुरुष शिखर तक पहुंचा वह भी अपनी भलमनसाहत के बल पर ... फिर भी नकारात्मकता इतनी सर पर हावी हो जाती है की बार-बार के स्पष्ट नतीजों पर भी उसका " शक " करना जारी रहता हैं ... जैसे जुआरी ... बखूबी जनता है की वह जुआ खेलकर धनवान नहीं बन सकता ... या आज तक जुआ खेलकर कोई धनवान नहीं बना ... फिर भी तेज गति नतीजों की लालच में वह कब मानता हैं ... नहीं मानता ना .. ?

               इसी क्रम में लाल बहादुर हों , सरदार पटेल हों उनके आदर्श तो म. गांधीजी ही रहे अब किसी के आदर्श और उसमें फर्क के बीज बोना यह दर्शाता है की जो उसके आदर्शों का ही क़त्ल कर सकता हैं वह उसका भी कब कर बैठे यह सन्देश तो जाता ही हैं ना ... और यहीं आकर नकारात्मकता की अतुलनीय  मेहनत हमेशा बेकार जाती हैं ... हाथ कुछ नहीं मिलता ... लोग यूँ ही नहीं बंजर भूमि को छोड़ देते हैं ... वर्ना जमीं तो जमीं हैं ... 

              जब हम विकार ग्रस्त होते हैं तो दूसरों की विकारहीनता को महसूस नहीं कर सकते .... एक और उदहारण से समझे .... लोहा- लोहा होता हैं ... भारत का हो या अमेरिका का ... हम  जानते ही है ,  अमेरिका या इतर यूरोपीय देश धातुओं की शुद्धता के लाभ लेना आज से नहीं सदियों से जानते हैं ...... और आज से नहीं सदियों से वह इस तकनीक को अपना कर अपना सामान बनाते हैं और विश्व को बेंचते हैं ... जबकि भारत के पास लोहा बहुत होकर भी वह कुछ खास नहीं कर पाता हैं ... शुद्दता मायने रखती हैं ... भारत ने मन की शुद्धता और उसके प्रयोगों को अपना लक्ष्य बनाया था ... म. गांधीजी के पास भी यह तकनीक थी ... वे भी इस राह के राही थे ... और तभी उन्हें स्थायी और उजली हस्ती के रूप में आज भारत से ज्यादा विश्व जानता हैं ...

शुक्रवार, 7 जून 2013

प्रकाश का विकास ...


              भौतिक विकास तो अंतहीन हैं ... मनुष्य को अपनी सुख - सुविधाओं की अंतहीन लालसा होती हैं ... उसे मिलने वाली हर नयी सुविधा को वह लाजवाब बोलता हैं ... और तत्क्षण पीछे मिली सुविधा को हिकारत की नज़र से देखने से भी नहीं चुकता ... कई बार तो नयी सुविधा देने वाला मानव ही अपना माल बेचने के चक्कर में पुरानी सुविधा को नाकारा साबित करता हैं ... 

                      यूँ करना व्यापार की नज़र से सही भी हैं ... पर मानव मन में असंतोष के बीज खूब गहरे बो जाता हैं ... अब सवाल फिर मुंह बाये खड़ा हैं की फिर क्या करे ? ... विकास को नकार दें ... और अविकसित और जाहिल बनकर जीवन जिए ...!!! 

                      नहीं .. नहीं .. मेरा आशय यूँ भी नहीं हैं ...जब जितना - जितना जरुरी हो उतना विकास जरुर हो पर हाँ हम विकास के गुलाम बनकर ना रह जाएँ ...और विकास को सब कुछ ना मान बैठे ... हमारे परिश्रम का बड़ा भाग " दिलों में प्रकाश के लिए खर्च हो ..." ..... फिर चाहे विकास कम ही क्यों ना हो ... या बहुत अधिक क्यूँ ना हो ....मन की बैचैनी नहीं बढ़ पायेगी ... वह संतुलन में रहेगी ... जीवन संतुलित रहेगा ... और कम या ज्यादा विकास बेमानी हो जायेगा ...

                  मन का प्रकाश यानि आध्यात्मिक विकास ... यह बहुत जरुरी हैं हमारे लिए ... देखों ना राजकुमार सिद्धार्थ गौतम के जीवन में भौतिक विकास की अति थी फिर भी उन्हें आध्यात्मिक विकास जरुरी लगा ... उन्हौने उसकी सर्वोच्च अवस्था को पाया ... और सारे जीवन करुण चित्त से , मुक्त हस्त से जनसाधारण को बांटते रहे ... 



             जिस पर आज गर्व करते नहीं अघाते हैं हम ...  उस काल खंड का भारत ही " विश्व गुरु "  कहलाया ... उस काल खंड का भारत ही " सोने की चिड़िया " कहलाया  ...


सबका भला हो !!!

गुरुवार, 6 जून 2013

निंदा एक नशा ...!!!




                 दुखों से घिरा रहना भी एक प्रवृत्ति बन जाता हैं ... लत बन जाता हैं ... आदत-सी हो जाती हैं .... दुखों से बाहर निकलने का कोई मार्ग हैं ... यह ठीक से पता हो ... तब भी .... कोई - कोई दुखों से इस कदर मुहब्बत कर बैठता हैं कि उससे बाहर निकलने की बात कहो तो चिढ उठता हैं ... खीज उठता हैं .... 

                 जैसे किसी को खुजली हो या कोई नशे की लत ही हो ... और कोई भला मानुष उसे समझाए की खुजली करने से बढती हैं या नशा नुक्सान देह होता हैं ... और कभी - कभी खून भी निकल आता हैं या जान पर भी बन आती हैं ... 
तब भी ...

              कभी बेहोशी में और हमेशा तो होशो-हवास में खुजली के नशे की आदत से लाचार होकर वह खुजली करने का काम कर ही जाता हैं ... या किसी दीगर नशे के अभिभूत हो ही जाता हैं ... बिना अपने नुक्सान की परवाह किये 

                      वैसे ही निंदा भी एक नशा हैं ... जितना हो सके व्यक्तिगत निंदा से बचे ... 


              आओ जाने म. गांधीजी ने कभी भी किसी की व्यक्तिगत निंदा नहीं की ... इस बारें में हमारा युवा स्वयं तहकीकात करके भी इस बात की पुष्टि कर सकता हैं ... 

निंदा से बचे ... निंदा आपसी सद्भाव पर घातक वार करती हैं और बैर के बीज जाने अनजाने हमारे अन्तर में बो जाती हैं ... और जैसे बीज वैसे फल यह बात तो अटल हैं ही ... सभी जानते हैं ... और उससे अधिक दिलोजान से मानते हैं 

                               गाँधी तुम फिर आना मेरे देश !!!

बुधवार, 5 जून 2013

हमसे का भूल हुई ... ?


      मसे का भूल हुई ... जो ये सजा हमका मिली ...?

कभी कभी यूँ भी वक्त आता है जब यूँ लगता हैं की भलाई का फल बुराई मिल रहा हैं ... और मन कुछ उदास होकर ही नहीं रहता ... वह निराशा के भंवर गोते पर गोते लगाता हैं ... और भलाई के कामों पर से उसका जैसे भरोसा ही उठता जाता हैं ...

                 यही वह वक्त होता है जब नकारात्मकता को हमारे अन्दर हावी होने के स्वर्णिम अवसर मिलते हैं ... और ऐसे में लगे हाथ हम दूसरों पर इल्जाम भी लगा देते हैं ... के ये सब उनके ही कारण हो रहा हैं ... और नकारात्मक बातों पर हमारा विश्वास और गहराता जाता हैं .. ... दरअसल यह हमारी भारी गलतफहमी के ही कारण होता है की हम बुरे फलों को हमारे भलाई के फल समझ बैठते हैं ... और भलाई के फलों का इन्तेजार नहीं कर पाते हैं ... हम क्या कोई भी असल में वही काटता हैं जो जो हमने बोये हैं ... बीजों की तासीर और उनकी फल दे सकने की क्षमता के अनुसार उनके फल आगे पीछे आते रहते हैं 

                " फल भले कामों के भले ही आयेंगे और बुरे कामो के बुरे ही " यह भरोसा रहे ... और कोशिश रहे की हमसे बुरे काम हो ही ना ... इस हेतु मन पर अपना अधिकार हो ... और मैला मन हम हो सके उतना - उतना निर्मल करते जाए ... क्योंकि निर्मल मन बुरा काम कर नहीं सकता ... और हमारा जीवन सुन्दर और बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की राह चल पड़ता हैं ... और मन यह भरोसा पाता हैं की हमसे कोई भूल ना हो जाय ...

              
 जरुर सुने यह गीत पर थोडा सकारात्मक होकर ... तब ही तो बात बनेगी ... भला हो !!!