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शनिवार, 25 मई 2013

धन्य हुई वैशाख पूर्णिमा ...

                  वैशाख पूर्णिमा बुद्ध जयंती का परम पावन अवसर / आज से 2558 वर्ष पहले की वैशाख पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ गौतम ने परम सत्य की खोज की थी ... परम सत्य जिसकी खोज से सिद्धार्थ गौतम ने अपनी स्वयं की बोधि को ही जागृत नहीं किया अपितु जीवन के अंतिम क्षण तक उस परम सत्य को जनसाधारण के बीच अत्यंत करुण चित्त से बांटते ही रहे ... परम सत्य जिस पर चलकर फिर उस समय के भारत के और अनेकों पडौसी देशों के करोड़ों - करोड़ों लोगों का प्रत्यक्ष मंगल सधा ... लोगों का वास्तविक कल्याण हुआ /


                        भगवान बुद्ध के जीवन में पूर्णिमा का बड़ा महत्व रहा हैं ... जिसमें वैशाख पूर्णिमा का तो  'त्रिविध ' दुर्लभ महत्त्व हैं ... वैशाख पूर्णिमा के ही दिन सिद्धार्थ गौतम का जन्म हुआ ... वैशाख पूर्णिमा के ही दिन सिद्धार्थ गौतम को बोधि वृक्ष के नीचे परम सत्य का बोध जागा और वेबुद्ध कहलाये ... और फिर वैशाख पूर्णिमा के ही दिन स्वयं की पूर्व घोषणा के अनुसार उन्हें महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ /

                               भगवान बुद्ध और प्रकृति का गहन नाता रहा .. भगवान बुद्ध प्रकृति के परम रहस्य को जान गए थे ... और आजीवन वे प्रकृति के निकट ही रहे ... राजकुमार होते हुए भी उनका जन्म महलों में नहीं अपितु प्रकृति की गोद में , जंगल में शाल-वृक्ष की छाया में हुआ / बोधी की खोज में छः सालों तक प्रकृति के अति निकट रहकर तप करते रहे ... और फिर बोधी मिली तो वह भी प्रकृति की छाया में बोधी वृक्ष के तले ... अस्सी वर्षों की पकी हुए आयु में जब जीवन की घडी आई तो वह भी वैशाख पूर्णिमा का ही दिन था और थी प्रकृति की गोद , जुड़वां शाल वृक्षों की छाया तले / जीवन की तीनों बड़ी घटनाओं का वैशाख पूर्णिमा को ही घटित होना बड़ा विलक्षण और अप्रतिम संयोग हैं /


                           आजकल हर कोई सत्य की बात करता हैं ...सत्य की तरफदारी में कई बड़े और भरी-भरकम जुमले भी सुनता और सुनाता हैं .. " सत्य परेशान हो सकता हैं पराजित नहीं " ..." सांच को आंच नहीं " ... " सत्य की हमेशा विजय होती हैं "... " सत्य बड़ा बलवान हैं "., " सत्य ही ईश्वर हैं " ....आदि आदि / परन्तु आदमी लौकिक सत्य की भी केवल बातें ही करके रह जाता हैं /

                      असल में मानव सत्य की राह से दूरी बनाकर चलना ही ज्यादातर पसंद करता हैं ... लौकिक सत्य अक्सर विवाद का कारण भी बन जाते हैं ... क्योंकि लौकिक सत्य को हम आँखों से देखकर , कानों से सुनकर , चखकर , छूकर या सूंघकर जान पाते हैं , और इस उहापोह में हर इन्सान का अपना-अपना नजरिया सत्य को भिन्नता प्रदान कर देता हैं ...फिर तो हर इन्सान को उसका कहा सत्य पत्थर की लकीर सदृश लगने लगता हैं /

                               लौकिक सत्य की भिन्न भिन्न परिभाषाएं हमेशा विवादों को जन्म देती हैं / हर कोई अपने अपने सत्य की जानकारी को दुसरे की जानकारी से जोड़कर नहीं अपितु तोड़ मरोड़कर ही पेश करता हैं / इसीलिए सिद्धार्थ गौतम ने उस समय के उपलब्ध ज्ञान से असंतुष्ट होकर परम सत्य की खोज आरम्भ कर दी .. वे कुदरत के हर नियम को जानना चाहते थे ... वे जानना चाहते थे मानव दुखी क्यों होता हैं ? दुखों से नितांत विमुक्त होने की क्या राह हैं ? 


                             सिद्धार्थ गौतम की सत्य की खोज पूर्ण हुयी वैशाख पूर्णिमा की उस रात जब वे यह दृड़ संकल्प के साथ बोधि वृक्ष के तले बैठे की अब प्रकृति के सारे रहस्यों को जानकर ही उठूँगा ... और उनकी खोज आखिर पूरी हुयी और भगवान ने पाया कि लौकिक सत्य कि जानकारी और उसके व्यवहार से कहीं अधिक कल्याणकारी होता हैं परमार्थ सत्य को जानना ... उन्हौने अनुभव किया की परमार्थ सत्य हमेशा एकसा रहता हैं ... और जिसने परमार्थ सत्य के दर्शन कर लिए उसका चित्त शांत हो जाता हैं ... उसके दुःख दूर हो जाते हैं / सिद्दार्थ गौतम बस इसी खोज में थे की कोई ऐसा मार्ग मिले जिसपर चलकर हम दुखों से परम मुक्त हो सके ... उन्हौने अनुभव किया की सत्य को वस्तुतः लौकिक क्षेत्र से कहीं अधिक अपने अंतर्मन की गहराइयों में खोजने की जरुरत हैं / 

                                भगवान की यह खोज की ... दुःख हैं ! .. दुखों का कारण हैं ! ... दुखों का निवारण हैं ! ...और दुखों से नितान्त विमुक्ति का उपाय हैं ! अध्यात्म के क्षेत्र की सर्वोच्च खोज हैं / भगवान को बोधि की प्राप्ति के उपरांत उनके प्रथम उद्गार बड़े प्रेरणा दायक हैं ... " अनेक जन्मों तक बिना रुके संसार में दौड़ता रहा ! ( इस काया रूपी ) घर बनाए वाले की खोज करते हुए पुनः पुनः दुखमय जन्म में पड़ता रहा / हे गृह्कारक ! अब तू देख लिया गया हैं ! अब तू पुनः घर नहीं बना सकेगा ! तेरी सारी कड़ियाँ भग्न हो गयी हैं / घर का शिखर भी विश्रंखलित हो गया हैं / चित्त संस्कार रहित हो गया हैं , तृष्णा का समूल नाश हो गया हैं / " सारे जीवन भगवान जन साधारण के बीच इस विद्या को बांटते रहे की कैसे कोई दुखों से पार पा सकता हैं ... दुःख कहाँ बनता हैं ... और जहाँ बनता हैं वहीं हमें रोक लगाना होगी ... अन्यथा अज्ञान वश दुखों का पहाड़ सा हम अपने आगे खड़ा करते ही जा रहे हैं /

                              भगवान ने सिखाया की जो घटना जैसे हो रही हैं उसे ठीक उसी रूप में बिना प्रतिक्रिया किये देखना होगा ... तभी नयें संस्कार नहीं बनेगे ... और पुराने भव संस्कारों की उदीरणा होगी / और उनकी यही शिक्षा " विपश्यना " कहलाई .