गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

मेरी जुबां से सुनिए ... !!!

       मेशा सत्य का गुणगान बड़े जोर-शोर से किया जाता हैं ... " सत्य " ऐसा होता हैं ... " सत्य " वैसा होता हैं ... बताता कोई नहीं हैं " सत्य " क्या हैं ...? 

          बस वाणी का सत्य ही सत्य होता तो " ईश्वर " कब से सबको बड़ी आसानी मिल गया होता ... एक बार सत्य बोलता कोई और लो " ईश्वर " उसके सामने हाज़िर ... पर नहीं होता ना ... और फिर हार - हुराकर वही झूठ बोलने में इन्सान जुट ही जाता हैं ... ना ?

       असल बात हैं ... और वहीँ जिम्मेवार भी हैं ... वह है हमारी सुनने की क्षमता ... जो बोला जाता हैं ... उसे सुनना फिर भी आसान हैं ... पर जो बोला  ही नहीं जाता ... उसे सुनना कितना कठिन होगा ...समझ रहे हैं , ना ? 

           ..  और " सत्य " की राह ठीक वहीँ से शुरू होती हैं ... हाँ ... वहीँ से ... अक्सर सुनते हैं कि ... दिल की आवाज सुनो !!  ... दिल की आवाज सुनो !!! ... हाँ भाई ... दिल में वो हर वो बात सबसे पहले उठती हैं ... जो - जो जुबां पर आती हैं .... अब वहां कोई ऐसी - वैसी बात उठे जिसे जुबां पर लाना ठीक नहीं होगा ... तब अगर विवेक साथ रहे तो हम अपने आप को रोक सकते हैं ... अन्यथा नहीं भी रुकते कभी ... पर दिलों की हर आवाज सुनी जाती हैं ... हम उसे बोले या ना बोले ... और सचमुच सत्य वहीँ से बड़ा मतलब रखता हैं ... पूर्ण शुद्ध व्यक्ति फिर "बुद्ध" होता हैं ... उसके दिल में भी कभी गलत आवाज नहीं उठती ... उसके दिल में रंच मात्र भी किसी प्रकार का गुनाह फिर आरम्भ नहीं होता ... वाणी और काया की तो बात ही क्या ...

वाचिक कर्म सुधार लें , कायिक कर्म सुधार । 
मनसा कर्म सुधार लें , यही धर्म का सार ।। 

                      
  सुने यह ग़ज़ल ... खुबसूरत हैं ... और बड़ी सहज तो है ही ... सुप्रभात ...मिलते रहेंगे !!!



सोमवार, 22 अप्रैल 2013

आओ दुआ करें ...


   ... जब शुभकामनाओं की उमंग और तरंग ( दुआएं ) दिलों से झूम कर उठती है ... तो फिर चाहे ... कहीं उठ रही हो ... वे उमंगें और तरंगे दुनिया - जहान में उस उस तरह की तरंगो और उमंगो से समरस हो ही जाती हैं ... 

                  आखिर जिन्दगी है क्या ? ... बस एहसासों की लम्बी अनवरत श्रंखला ही तो हैं ... सभी ने यह महसूस किया ही होगा ... कभी मन यूँ ही प्रफुल्लित रहता हैं ... और कभी यूँ लगता है जैसे बेवजा उदास हैं ... यह सब यूँ ही नहीं होता ... उमंग या उदासी की तरंगो से उस उस समय हमारे मनों का समरस हो जाना ही तो हैं ... 

      सुनकर देखे यह गीत ... यह गीत ... गजब की काबिलियत रखता हैं ... एक नहीं कई बार यह कुदरती जादूगरी से हमें और हमारे मन को अनायास छू जाता हैं ... हौले हौले ... आहिस्ता अहिस्ता ... दुआएं / मंगलकामनाएं बेरोकटोक मीलों का सफ़र पल में यूँ तय करती है जैसे सूरज की किरण ... या हवाएं .... बस यहाँ से वहां तक "चाहो " के सायें ही तो हैं ... पल - पल उजाले और पल-पल अँधेरे हमारी महसूस करने की क्षमता की अग्नि परीक्षाएं ही तो हैं ... 


                    1973 की फिल्म " प्रेम पर्वत " का यह गीत लता जी की आवाज में सुमधुर झरनों की ताजगी सा कितनी सुलभ आज़ादी से जयदेव साहब की संगीत रचना में  जाँ -निसार-अख्तर साहब की भली सोच को  इतना कर्णप्रिय बना देता हैं की पूरा गीत ख़त्म होने को आता ... पर मन वहीँ कहीं खोया सा ... धीरे - धीरे अल्हड़ सा यादों की पगडंडियों पर रुके रुके कदमों से चलता हुआ ... दो कदम आगे .. चार कदम पीछे बस सरकता हैं ... और दिल बस सबके भले की दुवाएं ही करता है ... 

आओ दुआ करें ... सबका मंगल हो !!!

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

कानून बेचारा ... !!!


            ड़ा कानून नहीं बनता तो उसकी कमी खलती ... सो बन गया ... फिर भी अकेली दिल्ली ही नहीं सारे देश में बलात्कार की घटनाएँ बढ़ रही हैं ... एक बात और ... कड़े कानून , चौकस व्यवस्थाएं और सारे  तामझाम के बावजूद हमारे देश को छोड़ों सारे  विश्व में आतंक , बलात्कार , हत्याये , लूटपाट , और आत्महत्याएं की घटनाएँ क्या कम हो रही हैं .. बल्कि  हर रोज बढती जा रही हैं ... हैं ना ... ?? 

            कोई एक जगह की सरकार या कोई एक जगह की पुलिस ही अगर जिम्मेवार होती तो इस तरह की घटनाएँ सारे देश में यहाँ वहां सब जगह हर रोज क्यूँ कर घटती ... सो अब केवल दिल्ली में इसका पुरजोर विरोध क्यूँ होता हैं ... और क्यूँ जमकर सरकार और पुलिस को ही सारा दोष दिया जाता हैं ... यह भी अब समझ से परे नहीं रहा ...


                  इस तरह की घटनाओं पर विरोध हो इस पर भला किसे एतराज होगा ... पर अस्पतालों में जाकर खूब हंगामा खड़ा करना ... और विरोध के लिए खासकर महिलाओं और बालिकाओं को आगे भेजना और उनका आननफानन में वहां की व्यवस्थाओं को अस्तव्यस्त करने के लिए जमकर हंगामा करना / या अस्पतालों के अन्दर घुसना या घुसने के जोरदार प्रयास करना ... ताकि व्यवस्थाओं को सँभालने में पुलिस सख्ती का सहारा लेने को मजबूर हो ... , और अगर पुलिस सख्ती दिखाए तो भी या नाकाम रहे तो भी ... हर बात को खूब तुल देना ...क्या बलात्कार की घटनाओं को रोक पायेगा ... मुझे लगता हैं ... नहीं ... क्योंकि अगर यूँ होता तो सारे देश में इतनी तरह तरह की अलग अलग दलों की सरकारें हैं ... इतनी सारी अलग अलग जगह की पुलिस हैं ... अब तक हर जगह के भिन्न भिन्न नतीजे हमारे सामने होते ... पर हर जगह कमोपेश एक से हाल हैं ... और अगर कहीं कोई भिन्नता हैं भी तो वह वह उस उस राज्य के लोगों की समग्र सोच और वहां वहां की सामाजिक परिस्थितियों पर ही अधिक निर्भर हैं ...  


             अगर हम इस तरह की घटनाओ से सचमुच आहत हैं ... और चाहते हैं इसके ऊपर काबू पाया जा सके ... तो हमें बिना समय गंवाएं ... इस तरह की शर्मनाक घटनाओं पर नियंत्रण के दुसरे उपाय सोचना होंगे ... जो समाज सुधार और विकृत मनोवृत्तियों पर कारगर और जड़ों तक सुधार के असर को कामयाबी से स्थापित कर सके  ... अन्यथा सांप की खोज में झाड़ियों को पीटने के सामान हरकतों में हम आज भी समय जाया कर रहे हैं ... और कल भी करते रहेंगे ... 


सबका भला हो !!! 

रविवार, 7 अप्रैल 2013

अहो मधुमक्खी ... !!!



         मातृभूमि को अपने यहाँ ही नहीं ... सम्पूर्ण विश्व में गरिमामय उच्च भावों से याद किया जाता हैं ...हमारे यहाँ मातृभूमि को स्वर्ग से ज्यादा बड़ी गरिमा दी गयी हैं ... कहीं इसे मादरे- वतन कहकर ... और कहीं मदर-लैंड से संबोधित करके इसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की जाती हैं ... परन्तु सभी को अपनी - अपनी मातृभूमि आकर्षित करती हैं ... यह एक सर्वव्यापी भाव हैं ... 


पर जब भी कोई अवसर आयें ... हम अपनी संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने की हड़बड़ी में अक्सर यह मान लेते है ... और दुराग्रह की हदों से भी आगे बढकर हम यदाकदा यह सिद्ध करने लग जाते हैं कि हम ही सबसे ज्यादा " सुसंस्कृत " हैं ... और सुसंस्कृत होने पर केवल हमारी ही एक मात्र " मोनोपली " हैं ... यही अहम् भाव सुसंस्कृत होने की राह का बड़ा रोड़ा भी हैं ...यह हम कतई ना भूलें ...


अब रही बात देश की तासीर को समझाने की ... और उसे किसी उपमा के सहारे समझाने की ... तो वक्त जरुरत उसे कई तरह से उपमाओं द्वारा समझाया जाता हैं ... जैसे " एक देश जो लौह आवरण से ढँका हुआ हैं ( रूस ) "...... " विश्व गुरु " ( भारत ) ....." इंजीनियरों का देश " ( ( जर्मन ) ....


                 पर इसी तरह से भारत की तासीर को व्यक्त करने के लिए मधुमक्खी के छत्ते से तुलना यह बताती हैं की किस तरह एक जुट होकर हम " मधु रूपी सद्भाव बड़े जतन से " विश्व के लिए अनासक्त भाव से " बहुजन हिताय बहुजन सुखाय " खूब एकत्र करते हैं ... और यह कार्य सुचारू रूप से जारी रहे इस हेतु " रानी मक्खी " ... अपने जीवन की बाजी लगाकर भी इस काम को सतत जारी रखने का अप्रतिम योगदान देती हैं ... शहद का उपयोग कभी भी मधुमक्खियों / रानी मक्खी के कभी उपयोग नहीं आता और ना ही वह इसका उपयोग करें यह भाव रखती हैं ..... यहीं परमार्थ का भाव मधु-मक्खी के जीवन का चरम होता हैं ... और हाँ मधुमक्खी के छत्तों से कोई सद्भाव रूपी शहद चुराए या उसे नष्ट करें ... उसे तनिक भी पसंद नहीं ... वह उस दुराचार को कभी यूँ ही नहीं माफ़ करती हैं  ... वह उन्हें खूब सबक सिखाती हैं ... उसकी इस छवि से दुराचारी भयभीत रहते हैं ... और उन्हें रहना भी चाहिए ... आखिर सद्भाव का सवाल हैं .. कोई मामूली बात नहीं ...!!! 

                         ... और जब भी हम विश्व गुरु बनेंगे इसी सद्भाव रूपी भाव को अपना कर ही बनेंगे ... और सही मायनों में विश्व को एक कुटुंब मानते हैं ... यह हमारी कथनी नहीं करनी का अंग बनेगा ... और विश्व हमारी कथनी खूब देख रहा है ... उसे तो हमारी "करनी" का इन्तेजार हैं ... और तभी वह विश्व - गुरु होने का दर्जा हमें देगा ... और विश्व-गुरु की उपाधि छिनने से नहीं ... अपने आप हमारी करनी के बल मिले तभी हम विश्व कल्याण के लायक होंगे ... अन्यथा चाहे जितने स्वप्न हम देखे ... यह तब तक संभव नहीं ... जब तक हमारी कथनी और करनी में समानता का पुट नहीं होगा ...


                          हम इस भाव के उच्च आदर्श को समझे ... हाँ , हर विषय में नकारात्मकता की खोज एक सबसे आसान काम होता हैं ... नकारात्मक होकर देश का कर्ज नहीं चुकाया जा सकता ... और चुकाना संभव भी नहीं ... हम जहाँ है वहां से सकारात्मकता को फैलाये / उसका संवर्धन करें ... यह भी देश सेवा ही हैं ...

भला हो !!!!

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

खेल बना, आन्दोलन- आन्दोलन !!!




      आखिर क्यूँ जरा भी सफल नहीं हुए अन्ना ... ??  .... जबकि सारी मिडिया , सारी भीड़ , सारा देसी / विदेशी चन्दा या सहायता , सारी अच्छी रणनीति और धाकड़ और तेजतर्रार टीम को बावजूद वे सफल नहीं हुए ... आज यह एक हकिगत हैं ... उन्हें दूसरा गाँधी कहा गया ... यह भी केवल एक रणनीति से ज्यादा कुछ नहीं  साबित हुआ ... और एक दौर यूँ भी आया जब हमारे देश में अंधभक्ति के भी आगे जाकर अंध-गुणगान और अंध-निंदा का भी अजीब चलन शुरू हुआ ... वह भी म. गांधीजी के नाम पर ... ताकि हमारे युवा लोगो में गाँधी जी के प्रति सहज आकर्षण को भुनाया जा सके ... यह रणनीति भी अब मुंह के बल औंधी - गिरी हुई नजर आती हैं ...

 
                 अन्ना सर्वथा गलत नहीं थे .!!   पर उनकी सोच और उसका दायरा सबके प्रति समान नहीं था और ना ही आज तक दिखाई देता हैं  ... वे कहीं ना कहीं गहरे पूर्वाग्रहों और एक सिमित सोच के दायरे में रहकर  किसी अनचिन्हे मकसद की तरफ " राष्ट्रभक्ति के संदेशो में अनहोनी के अंदेशों का घालमेल "  करते हुए हमेशा आगे बढ़ते दिखाई देते हैं ... वे कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते थे ... यहाँ तक की अपनी टीम की संभावित टूटन की आशंका को भी दूसरों के कारण होगा यह बड़ी चतुराई से सबके सामने रखते थे ... ताकि स्वभाविक टूटन या असफलता भी सबको किसी की करतूत ही लगे ... और स्वभाविक टूटन को भी अंततः भुनाया जा सके ...

                अन्ना ने सत्य की बहुत बात की पर वे सत्य प्रयोग अपने ही ठंग से करते रहे ... सत्य की राह पर छोटे- छोटे असत्य का सहारा भी बड़ा घातक होता हैं ... इस पर उनका अविश्वास शुरू से ही रहा ... अन्नाजी वस्तुतः जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के लिए आक्रामक रुख पर चलते हुए दीखते हैं ... जबकि उच्च कोटि के साध्य के लिए उच्च कोटि का साधन जरुरी होता हैं ... इसपर वे कहते तो बहुत हैं ... पर साधन पवित्र हों इस बात पर विश्वास उन्हें खुद कितना हैं कभी स्पष्ट नहीं हुआ ...

          खैर सबके अपने अपने रस्ते ... अपना अपना राग ... पर लोकतंत्र में भेड़ चाल चलने वाले लोगों को कभी ना कभी तो अपना आकलन करना ही होगा ... क्योंकि लोकतंत्र में भीड़ बड़ी महत्त्व की होती हैं ... और भीड़ जागरूक हों तो लोकतंत्र की सेहत उम्दा रहती हैं ... बस भीड़ कभी बुरे और आधेअधुरे मंसूबों का शिकार ना हों ... वह अपनी सोच विकसित करें ..


                     समय समय पर हमें चेतावनियाँ मिलती रहती हैं ... पर जब हमारे विचार अधिक भावुक होकर वास्तिविकता को नहीं देखना चाहते तब तब हम उन्हें सिरे से नकार देते हैं ... पर जब जब हम असफलता के शिकार होते तब तब अगर हम पुनर्विचार करें तो आगे हमें उचित अनुचित का निर्णय लेने में मदद ही मिलती हैं ... देखें जरा इस विडियो को क्लिक करके ... और सोचें अन्नाजी के आन्दोलनों की शुरुआत में यह सब हमें बकवास लगती थी ... पर अब शायद ठीक लगे उनकी बात ... क्योंकि तब हम भावनाओं के तीव्र बहाव में बस बहना चाहते थे .. रुक कर भले बुरे पर विचार कर सकें इस  मानसिकता से कोसों दूर थे तब ..


                    खैर ... "  जब जागे - तब सवेरा ..." अब तक आन्दोलनों को खेल बना कर निराशा की धुल को खूब फर्श से लेकर अर्श तक उछाला ... अब आगे समय यह समय हो   "  ... भारतीयता के सही मायनों ... " किसी पर भार ना बनना  और सद्भाव तथा सौजन्यता के भारहीन भार से भर-भर उठाना ..."  के महत्त्व को खूब उजागर करें ... आन्दोलन - आन्दोलन के खेल अब बहुत हुए ... औरअब तक यह भी जान गए हैं ... आन्दोलनों में घेराव और अनसन के दुरुपयोग जो की सस्ती लोकप्रियता और उकसावे से अधिक नहीं हैं और जिन्हें म. गाँधी जी एक जंगलीपन से ज्यादा  कभी नहीं माना ... 


                   आओ पुनर्विचार और स्वयं अध्ययनशील होने के विकल्प पर हम फिर से चल पड़े ... सबके भले के लिए ... सबके कल्याण  के लिए !!

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

हुबहू नक़ल ...



                 
                देश में गांधीजी के आदोलनों की सफलता से प्रभावित होकर नित- नए आन्दोलन चलाये जा रहे हैं ... पर हालिया आन्दोलनों में चीख-चीख कर यह कहना की यह सब गांधीजी के सत्याग्रहों की तर्ज पर हो रहा हैं ... केवल युवाओं और जनमानस में यह भ्रम पैदा करके रह जाता हैं कि , आजकल के ये आन्दोलन गांधीजी के ऐतिहासिक सत्याग्रहोंकी तर्ज पर हैं ... और अनायास ही जनता में हालिया के आन्दोलनों के प्रति सहज आदर भाव उमड़ पड़ता हैं ... इसआदरभाव को ज्यादा से ज्यादा प्रचार मिले इस लोभ से अनसन / उपवास की पुंगी भी खूब बजायी जाती हैं ...

                   नील की खेती में हो रहे अत्यचारों के विरुद्ध म. गांधीजी का पहला सत्याग्रह ही अभूतपूर्वरूप से सफल हुआ था ... और देश ने उनकी ओर सुखद आशाभरी नजर से देखा था ... और देश का भरोसा आखिरकार जरा भी गलत नहीं सिद्ध हुआ  ... 

                  गांधीजी ने अनसन / उपवास का उपयोग कभी भी विरोधी पर दबाव  बनाने  के  लिए नहीं किया ... हाँ जब जब भी इनका उपयोग हुआ अपनी गलती पर / अपने कार्यकर्ताओं की गलती पर सुधार या प्रायश्चित के लिए ही हुआ ... 

              आजकल के एक आन्दोलन में बहुत कुछ म. गांधीजी के " नील सत्याग्रह " की हुबहू नक़ल  ही हैं ... पर इनमें  सच टुकड़ों टुकड़ों में सच हैं ... और बहुधा तो असत्य ही हैं ... इसीलिए अनर्थकारी हैं ... अप्रभावी हैं ... 

             युवा निराश ना हो ... वे कुछ तय करें ... इससे पहले म. गाँधी जी के नील आन्दोलन पर अपनी जानकारी बढ़ा  ले ... म. गांधीजी की जीवनी " सत्य के प्रयोग " के अध्याय 11 से  20 तक में सत्याग्रह क्यूँ सफल होते हैं ... इस पर काफी कुछ अनसुनी जानकारियां उपलब्ध हैं ... हमारे युवा स्वयं अध्यनशील हो और जाने क्यूँ म. गांधीजी की ओर और उनकी नीतियों की ओर दुनिया  आशाभरे भरोसे से निहारती हैं ... और यह जानना चाहती हैं ... क्या आज भी गाँधी के आजमाए रास्ते प्रासंगिक हैं .... ऐसे में हमारी जिम्मेवारी और बढ़ जाती हैं .... हमारी श्रधा उनके प्रति विवेकशील श्रद्धा बने और हमारा विश्वास उनके प्रति सुदृढ़ हो ... और हमें तुलात्मक रूप से सही और गलत की पहचान होने में मदद मिले ... हमारा सत्य के प्रति दुराग्रह ... विनयशील आग्रह में कन्वर्ट हो ...  यूँ करके हम गाँधी पर  कोई एहसान  नहीं करेंगे ... अपितु नयी  और सकारात्मक उर्जा से स्वयं भर-भर उठेंगे ... 

.                                                             .. अपने भले के लिए ... अपने कल्याण के लिए ...