
किसी के पास अच्छी नीति होती हैं , तो किसी के पास भली रीति होती हैं ... पर प्रतीति सबके पास या तो होती नहीं या होती भी है तो आधी अधूरी ... वस्तुतः प्रतीति में रीति और निति का समावेश बहुत खूबसूरती से हो जाता हैं ... फिर भली नीति या समुचित रीति की चिंता नहीं करनी पड़ती हैं ... प्रतीति इन दोनों का धरातल पर अवतरण बड़ी सुगमता से कर देती हैं ...
भारत जब भी विश्वगुरु था इसी प्रतीति के बल पर था ... और आगे भी जब भी विश्व गुरु कादर्जा पायेगा इसी प्रतीति को आगे करके ... भारत के पुनः अभ्युदय में निहित विश्वकल्याण के मंगल भावों की मानो म. गांधीजी ने जैसे आगे बढकर आगवानी की थी ...
उनकी इसी उदात्त भावनाओं का ही असर था कि उनकी मृत्यु पर सारा विश्व स्तब्ध हो गया था ... और उनकी हस्ती के आगे बिना औपचारिकता के नतमस्तक भी ... संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय में उस दिन झंडा झुक गया था ... बिना इसका विचार किये की म. गांधीजी कोई राजनयिक नहीं थे ... किसी देश के राष्ट्रपति नहीं थे ... प्रधानमत्री नहीं थे ... और ना ही थे किसी संप्रदाय के नेता ... न कोई समाजसुधारक ..ना विश्व विजेता ...
वस्तुतः वे सही मायनों में "नेता" थे ...