मंगलवार, 17 मई 2016

" म. गांधी की निर्णय क्षमता "

अपने ऑफिस की तरह ही गांधीजी ने गिरगांव में घर किराए पर लिया, लेकिन ईश्वर ने उन्हें वहां भी स्थिर नहीं होने दिया । घर लिए अभी बहुत दिन नहीं हुए थे कि उनका दूसरा लड़का मणिलाल सख्त बीमारी की चपेट में आ गया । गांधीजी ने डॉक्टर की सलाह ली, डॉक्टर ने कहा- " इसके लिए कोई दवा असर नहीं करेगी, इसे तो अंडे और मुर्गी का शोरबा देने की जरूरत है "। 

मणिलाल की उम्र 10 वर्ष की थी गांधीजी ने कहा - मैं उससे क्या पुछु उसका अभिभावक तो मैं ही हूँ , और निर्णय मुझे ही करना हैं। डॉक्टर एक बहुत भले पारसी थे , गांधीजी ने कहा - डॉक्टर हम शाकाहारी हैं, मैं इन 2 चीजों में से एक भी मणिलाल को देना नहीं चाहता। आप दूसरा कोई उपाय बताएं। डॉक्टर बोले - आप के लड़के की जान खतरे में है, दूध और पानी मिलाकर कर दिया जा सकता है किंतु इससे पूरा पोषण नहीं मिल सकेगा। आप जानते हैं, मैं तो हिंदू परिवारों में भी जाता हूं , लेकिन दवा के नाम पर मैं जिस किसी भी वस्तु की सलाह देता हूं वे जरूर सेवन करते हैं। गांधीजी ने कहा आप सच कह रहे हैं आपको यही कहना भी चाहिए। मेरी जिम्मेदारी बहुत बड़ी है। लड़का बड़ा और सयाना होता है तो मैं अवश्य उसकी इच्छा जानने की कोशिश करता और वह जो चाहता सो करने देता, किंतु आज तो मुझे भी इस बालक के लिए सोचना है। मुझे लगता है कि मनुष्य के धर्म की परीक्षा ऐसे समय में ही होती है। मेरे तो सुंदर विचार हैं कि मनुष्य को मांसाहार नहीं खाना चाहिए। जीवन के साधनों की भी हद होती है। कुछ बातें ऐसी होती है जो हमें जीने के लिए भी नहीं करनी चाहिए। ऐसे में मेरे धर्म की मर्यादा मुझे अपने लिए और अपनों के लिए भी मांसाहार का उपयोग करने से रोकती है । इसलिए आप जिस खतरे की बात करते हैं वह खतरा मुझे उठाना ही होगा। डॉक्टर समझदार थे उन्होंने गांधी जी की भावनाओं का सम्मान किया और उनकी इच्छा के मुताबिक मणिलाल को देखना स्वीकार किया। 

गांधीजी ने कुने के उपचार जानते थे, वह ये भी जानते थे कि बीमारी में उपवास की बड़ी भूमिका है, उन्होंने मणिलाल को " कुने " की विधि के अनुसार कटी स्नान कराना शुरू किया। लेकिन बुखार उतरता ही न था रात में मणिलाल बुखार की अवस्था में बड़बड़ाने लगता था। पर गांधीजी कहते हैं मैं घबराया नहीं, कहीं बालक को खो बैठा तो दुनिया में मुझे क्या कहेगी, बड़े भाई क्या कहेंगे, दूसरे डॉक्टर को क्यों नहीं बुलाया, किसी वैद्य को क्यों नहीं बुलाया? मां बाप को क्या अधिकार है कि वह अपनी ज्ञान हीनता का प्रयोग बच्चों पर करें ? इस तरह के विचार आते थे और साथ ही ये विचार भी की जो तू अपने लिए करता वही अपने लड़के लिए भी करता हैं , ईश्वर तो इस बात से संतुष्ट ही रहेगा। डॉक्टर प्राण दाता नहीं होता उसके भी अपने प्रयोग चलते रहते हैं जीवन की डोरी तो ईश्वर के हाथ में है, ईश्वर का नाम लें , उस पर श्रद्धा रख , और अपना मार्ग मत छोड़। गांधीजी कहते हैं इस प्रकार मन में उधेड़बुन चल रही थी कि रात हुई मैंने मणिलाल को गीली पर अच्छी तरह निचोड़ी हुई चादर में लपेटने का ( कुने की जल चिकित्सा में सम्पूर्ण शारीर का पैक ) निश्चय किया मैं उठा चादर ली, ठंडे पानी में डुबोया , निचोड़ा और उसे सिर से पैर तक लपेटा। ऊपर से दो कंबल ओढ़ा दिए। सिर पर गीला तौलिया रखा। बुखार से सिर तवे की तरह तप रहा था, पर पसीना आता ही नहीं था। 

मैं बहुत थक चुका था मणिलाल को उसकी मां के सुपुर्द कर के मैं आधे घंटे के लिए थोड़ी हवा खाने, ताजा होने , शांति पाने के विचार से चौपाटी पर गया। रात्रि कोई 10:00 बजे होंगे लोगों का आना जाना कम हो चुका था। मैं मन ही मन कह रहा था - हे ईश्वर इस धर्म संकट में तू मेरी लाज रखना, मुंह से राम राम की रटन जारी थी। कुछ देर इधर - उधर टहल कर मैं धड़कती छाती लिए घर लौटा। जब मैं घर पहुंचा तो मणिलाल को पसीना आ रहा था। मैंने ईश्वर का आभार माना। जल के उपचार का जादू देखा। सुबह मणिलाल का बुखार हल्का हुआ दूध और रसदार फल आगे फिर 40 दिन रहा। मैं निर्भर हो चुका था। गांधीजी ने लिखा है कि मेरे सभी लडको में ,मणिलाल सबसे अधिक सुंदर और सुदृढ़ शरीर वाला हुआ। प्राकृतिक चिकित्सा के प्रयोगों के कारण गांधीजी प्राकृतिक चिकित्सकों की पंक्ति में अग्रिम है। 

गांधीजी कहते थे भारत जैसे देश के लिए कुदरती उपचार एक वरदान हैं। बाद में भारत में कुदरती उपचार ( प्राकृतिक चिकित्सा ) का उन्होने पहला केंद्र पुणे के पास उरलीकांचन नामक गांव में खोला जो आज भी अपनी सेवाएं दे रहा हैं। पिछली UPA सरकार ने २००९ में प्राकृतिक चिकित्सा को मान्यता देकर उसके ग्रेजुएशन के कोर्स शुरू किये और MBBS के समकक्ष मान्यता दी हैं।

रविवार, 13 मार्च 2016

अहिंसक किसे कहे ?


             अहिंसक वो जो मन में किसी के प्रति भी रंच मात्र द्वेष भाव को जगने ना दें । क्योंकि मन में द्वेष जगने के उपरांत ही उस द्वेष भाव का अगला कर्म बोली पर उतरता है । इंसान उस द्वेष की चपेट में आकर गलत बोल बोल जाता हैं । यही वाणी पर प्रकट हुआ द्वेष फिर आगे शरीर से पर प्रकट होकर किसी के प्रति हिंसक प्रतिक्रिया करता हैं ।

                         कुदरत हमारे शारीरिक कर्म के होने तक हमारा इन्तजार नही करती वो हमें हमारे मानसिक कर्म के करते ही फल देना प्रारम्भ कर देती हैं ।

                       किसी के प्रति रंच मात्र भी द्वेष मन में जगते ही कुदरत हमारे भीतर स्वतः व्याकुलता बढ़ा देती है , व्याकुलता बढ़ते ही शरीर की स्वाभाविकता खो जाती है , वो गर्म हो उठता है । गर्म शरीर फिर पानी की कमी महसूस करता हैं ।

                       आपने देखा ही होगा किसी किसी को जब वो द्वेष दूषित होकर बोलता है तो बीच बीच में अकारण पानी पिता हैं । इससे ही यह मुहावरा बना " पानी पी पी कर कोसना " ।

                       मितरो जैसे एक कम्प्यूटर के प्रोसेसर को गर्मी नुकसान पहुँचाती है ठीक वैसे ही द्वेष दूषित मन से उतपन्न गर्मी चित्त को बड़ा नुकसान पहुँचाती हैं ।

                          इसलिए जब किसी ने गांधीजी से पूछ की आप हिंसा के खिलाफ क्यों है तो वे बोले मैं उस गर्मी के खिलाफ हूँ जो हिंसा करते वक्त हमें अतुलनीय नुकसान पहुँचाती हैं । किसी के प्रति हिंसा करते हुए अगर मन शांत रह सके तो चाहे जितनी हिंसा करो कोई हर्ज नही । जो अपना भला नही कर सकता वो औरों का भला भला कैसे कर पायेगा ।

                        हम स्पष्ट देखते है म. गांधी ने मन वचन कर्म से किसी से भी नफरत नही की । वे हमेशा बुराई की प्रवृत्ति से नफरत करते थे । बुरे व्यक्ति से नही     
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सोमवार, 7 मार्च 2016

" माँ रोती है जब उसके लाल झगड़ते हैं "

                   म सभी ने माँ देखी हैं , माँ क्या करती है अपनी सन्तानों पर ममता उड़ेलती हैं , करुणा बरसाती है जो एक अमूल्य खाद होता है जिसके सहारे हम बढ़े होते हैं । और क्या करती है माँ ? वह देखती है की किसी कारण उसकी कोई सन्तान कमजोर है तो उसके लिए सबके भाग से बंटने वाली मिठाई में एक टुकड़ा अतिरिक्त रखती है उसे चुपचाप अलग से देती है । उस कमजोर पर एहसान करने के लिए नही बस उसे अधिक अपनापन मिले बस इसलिए । और उस माँ का दुर्भाग्य होता है जब उसकी सन्ताने उसी अतिरिक्त प्रेम के लिए आपस में झगड़ने लगे ।

एक कुशल माली को देखा होगा वो नन्हे बिरुओं को अधिक खाद , पानी और देखभाल देता है बनिश्ब्त बड़े पेड़ों के ।

                 सबको अपने भाग से जितना उसने बोया होता है उतना ही और वैसा ही मिलता हैं , ये शास्वत नियम है । सनातन रीत हैं । इसे सब मानते हैं । फिर हम किसी को अतिरिक्त क्या दे सकते हैं ? हम किसी को और कुछ नही दे सकते हैं सिवा सद्भवना के , करुणा मयी प्रेम के । इसके अलावा और सब तो उसके भाग का उसे कुदरत खुद ही दे देती है ।

                 अतः आओ देश को माँ समझते है तो आपस में सम्प्रदाय, जाति पाती , उंच नीच के संकीर्ण भेदों से ऊपर उठें , सब पर एहसान करने के लिए नही अपने आप पर एहसान करने के लिए । क्योंकि संकीर्णता आपके अपने विकास में बड़ी बाधा है ये आप समझते नही ।

               हो सके तो भगवान राम के जीवन से प्रेरणा लें की वे छोटे मोटे नही एक राज के अनीति पूर्ण बंटवारे पर भी आपस में झगड़े नही और ना ही अपनी माँ को रंच मात्र कोसा । नही तो पूरी प्रजा उनके साथ थी कर देते बगावत ।

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बुधवार, 2 मार्च 2016

" अपराध से घृणा करो, अपराधी से नही "


मितरो, जब म. गांधीजी ने पहले पहल भारत में अन्याय के खिलाफ लढाई शुरू की तो वो अंग्रेजों से लड़ना है ये सोचकर नही की । उनकी सोच यही रही की अन्याय से लड़ना हैं ।

चंपारण के एक मामूली किसान के आग्रह पर वे चंपारण गए वहां जाकर जब उन्होने भी पाया की कुछ अत्याचार जरूर हुए हैं अंग्रेजों द्वारा तो वे उनकी लढाई को राजी हो गए ।

आजकल के नेता होते तो क्या कहते , यही कहते किसी सभा में की अन्याय का बदला अन्याय हैं । अंग्रेजो का अन्याय देखकर मेरा खून ख़ौल उठता हैं । मारो कूटो इत्यादि इत्यादि । और शुरू हो जाती मारा मारी । और आपस में लड़वाकर फिर वहां से चुपचाप निकल लेते । फिर भी पिसते कौन ? आम जनता ही ना । और कुछ उल्टा सीधा हो जाता तो कह देते मेरी बात को लोगों ने गलत समझ लिया ।

पर मितरो अगर ऐसा होता तो गांधी फिर महात्मा नही कहलाते । वहां सबसे पहले उन्होने अंग्रेजो के खिलाफ अर्जियां लिखवा कर अदालत को सौपने का तय किया । और ये सुनिश्चित किया की अर्जियों में वर्णित जुल्मो सितम 100 % सच हो । जरा भी उसमें झूठ ना हो । नही तो और वकील जो उनकी सहाय के लिए थे इस काम में माहिर थे की बात को बढ़ाचढ़ा कर लिखते इस लालच में की जरा जोरदार शिकायत होगी तो तेज एक्शन होगी । पर नही गांधीजी स्वयं उन अर्जियों को पढ़ते थे और उनमें कांट छांट करके उन्हें सत्य के नजदीक लाते । उनकी यह बात देखकर कुछ वकील नाराज भी हुए उनका तर्क होता था की सीधी ऊँगली से घी नही निकलता । पर गांधी अडिग रहे । और अर्जियों को सही करते रहे । इस काम में वे रात दिन अथक लगे रहे ।

और एक महत्व का पर जरुरी काम किया बापू ने क्योंकि वे बड़े सजग रहते थे और प्रचार की तो उनमें रंच मात्र भी कामना नही रहती थी और वे जानते थे प्रेस को तभी मज़ा आता है जब सनसनी फैले अतः गांधी जी ने प्रेस को इस आंदोलन से दूर रखा ! उन्हें डर था प्रेस रिपोर्टिंग से मामला और बिगड़ेगा, अंग्रेज चिढ जायेगें !

उधर अंग्रेज इस इन्तजार में थे की अब तो उनकी बहुत शिकायत होगी और बढ़ाचढ़ा कर होगी । पर जब अदालत में अर्जियां गयी तो एकदम सादा थी उनमें मिर्च मसाला नही था । ना अंग्रेजों के लिए कोई बुरा भला सम्बोधन । भाषा अत्यंत संयत शांत और कोई भड़काऊ बात नही । और इस तरह गांधीजी ने अपना पहला रण जीता चंपारण में । अदालत ने न्याय दिया । जबकि अदालत में अंग्रेजो का वर्चस्व था । कानून उनके हाथ था ।

क्यों हुआ ये चमत्कार ? ये सब हुआ इसलिए की अंग्रेजो से गांधीजी ने व्यक्तिगत दुश्मनी कहीं जाहिर नही की । उन्हें तो बस अपराध से घृणा करना आता था । अपराधी से नही ।

तो आओ ऐसे विचारों से बचे जो हमें अपराधी से घृणा करना सिखाते हैं और हमें उकसा कर कानून अपने हाथ में लेने को ललचाते हैं । फिर चाहे वो सम्प्रदाय के नाम पर हो, या और किसी नाम पर ही क्यों ना हो ।

गुरुवार, 14 जनवरी 2016

अपनी पीठ आप मत ठोक रे ...

     भारत एक तरह से विश्व का प्रतिबिम्ब हैं । विविधतायें इसकी खूबी है । विश्व के लगभग हर धर्म और सम्प्रदायों की यहाँ ब्रांचेज हैं । इस भूमि पर ही उत्पन्न हुए कई धर्म और उनके सम्प्रदाय अरबों खरबों सालों से इस धरा पर हैं । सभी सम्प्रदाय अपने आप को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं और सभी लगभग कई मुद्दों पर एक दूसरे से विभिन्न मत रखते हैं । दुनियां भर की छुआछूत, जातिगत समाज की कुव्यवस्था और गरीबी तथा वैभव की खाइयां होते हुए भी इंसान इंसान के बीच सद्भाव कैसे कायम रहे इसकी अद्भुत मिसालें हैं । बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक होने के फायदे है तो नुकसान भी हैं । कभी विश्वगुरु होने का गुरुर है तो आधुनिक टेक्नोलोजी विश्व से हासिल करने की आतुरता भी हैं , लालच भी हैं ।


         समृद्ध इतिहास है तो उस इतिहास से अनभिज्ञता भी हैं । कई वैज्ञानिक अविष्कारों कर सकने का मिथ्या अभिमान भी है तो कई खूबियों के जन्म दाता होने का पता भी नही । विश्व को एक कुटुंब बना देने की विशाल योजना है तो उसकी कोई दिशा नही । कई धर्मों का अविष्कारक होकर भी अभी तक धर्म का मर्म ना समझपाने की घोर लापरवाही भी भावी विश्व गुरु की एक खूबी हैं ।


             इसीलिए इसकी विविधतायें ही इसकी खूबी हैं । जो विश्व को आइना दिखाते रहती हैं । कुछ ना होकर भी कैसे सब कुछ होने का गर्व किया जाय । कैसे आपस में लड़ते हुए भी जिया जाय । कैसे घोर सामाजिक और सांप्रदायिक विषमताओं में भी जियो और जीने दो को अपनाया जाय ।


वर्तमान में तो भावी विश्व गुरु की विश्व को यही देन हैं । सबका भला हो |||

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

बुद्ध मेरे इष्ट ..# स्वामी विवेकानंद

बुद्ध मेरे इष्ट ..# स्वामी विवेकानंद # Sawami Vivekanad 

           " एक हजार वर्षों तक जिस विशाल तरंग से भारत तरंगित रहा, सराबोर रहा उसके सर्वोच्च शिखर पर हम एक महामहिम को देखते है, और वे है हमारे शाक्यमुनि गौतम बुद्ध / उनके समय का भारत " विश्वगुरु " के नाम से भी जाना जाता था, उस समय सच्चे अर्थों में हमारे देश में शांति एवं समृद्धि का वास था / नैतिकता का इतना बड़ा निर्भीक प्रचारक संसार में दूसरा कोई नहीं हुआ, कर्मयोगियों में गौतम बुद्ध सर्वश्रेष्ठ है / 

                        उनके उपदेश इतने सरल की राह चलने वाला भी उन्हें समझ जाय / उनमें सत्य को अति सरलता से समझाने की अद्भुत क्षमता थी / उनके पास मस्तिष्क और कर्मशक्ति विस्तीर्ण आकाश जैसी और ह्रदय असीम था / वे मनुष्यों को मानसिक और आध्यात्मिक बंधनों से मुक्त करना चाहते थे / उनका ह्रदय विशाल था, वैसा ह्रदय हमारे आसपास के अनेकों लोगों के पास भी हो सकता है और हम दूसरों की सहायता भी करना चाहते हों पर हमारे पास वैसा मस्तिष्क नहीं / हम वे साधन तथा उपाय नहीं जानते , जिनके द्वारा सहायता दी जा सकती हैं / परन्तु बुद्ध के पास दुक्खों के बंधन तोड़ फेंकने के उपायों को खोज निकालने वाला मस्तिष्क था / उन्हौने जान लिया था की मनुष्य दुक्खों से पीड़ित क्यों होता है और दुक्खों से पार पाने का क्या रास्ता है /

                        वे अत्यंत कुशल व्यक्ति थे - उन्हौने सब बातों का समाधान पा लिया था / सारे जीवन वे दुःख - विमुक्ति का मार्ग जनता में बांटते रहे और लोंगों को अपने दुक्खों से बाहर आने के लिए प्रेरित करते रहे / उन्हौने हर किसी को, बिना भेद भाव के वेदों के सार की शिक्षा दी / सब मनुष्य बराबर हैं किसी के साथ कोई रियायत नहीं / वे समता के महान उपदेशक थे / वे कहते थे आध्यात्मिकता प्राप्त करना हर स्त्री-पुरुष का अधिकार है / 

                       उन्हौने निम्मतम व्यक्तियों को भी उच्चतम उपलब्धियों का अधिकारी बताया / उन्हौने हर किसी के लिए निर्वाण के द्वार खोल दिए / बुद्ध की बातें लोगों में बड़ी तेजी से फैलने लगी / ऐसा उस अद्भुत प्रेम के कारण हुआ, जो मानवता के इतिहास में पहली बार एक विशाल ह्रदय से प्रवाहित हुआ और जिसने अपने को केवल मानव मात्र की ही नहीं अपितु प्राणी मात्र की सेवा में अर्पित कर दिया - ऐसा प्रेम जिसने जीव-मात्र के लिए मुक्ति का मार्ग खोज निकालने के अतिरिक्त अन्य किसी बात की चिंता नहीं की / 

                      उस समय के भारतवर्ष में ( आज के बर्मा से अफगानिस्तान तक तथा कश्मीर से कन्याकुमारी तक ) करोड़ों लोगों उनके बताये मार्ग पर चलकर अपना मंगल साधा था / बुद्ध ने कहा - " ये सारे अनुष्ठान और अन्धविश्वास गलत है, जगत में केवल एक ही आदर्श है, सारे मोह ध्वस्त कर दो, जो सत्य है वही बचेगा ! बादल जैसे ही हटेंगे सूर्य चमक उठेगा ! सारे जीवन उन्हौने अपने लिए एक विचार तक नहीं किया / मत्यु के समय भी उन्हौने अपने लिए किसी विशिष्ठता का दावा नहीं किया / मैं आजीवन बुद्ध का परम अनुरागी रहा हूँ ..अन्य किसी की अपेक्षा मैं बुद्ध के प्रति सबसे अधिक श्रद्धा रखता हूँ - वे मेरे इष्ट हैं / "

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

निच्छल प्रेम की छोटी सी भेंट ...



           
            आगाख़ान महल की नज़र बंदी के दौरान म. गांधी का स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा था। उसी नज़र बंदी के दौरान कस्तूरबा और फिर महादेव भाई देसाई उनके निजी सचिव का भी निधन हो चूका था । अतः ब्रिटिश सरकार ने उनकी रिहाई का तय किया , ताके उनकी अगर मृत्यु हो जाय तो तोहमत ब्रिटिश सरकार के सर ना आये। 

                आगाख़ान महल की नज़र बंदी से रिहाई के बाद भी म. गांधीजी का स्वास्थ्य बहत खराब रहने लगा उन्हें थोड़े एकांत की और समुचित आराम की जरुरत थी। अतः गांधीजी को जुहू मुंबई ले जाना तय हुआ। पर वहां भी उनसे मिलने आने वालों का ताँता लगा रहता था। फिर भी श्रीमती सरोजनी नायडू उनसे मिलने वालों की संख्या को बहुत कुछ नियंत्रित करती थी जिससे उनको ज्यादे से जयादे आराम नसीब हों। 

              उनसे वहां मिलने वालों में दस बारह साल का मैले कपडे पहने एक बालक भी आया। उस बालक की मुलाकात ने तो बापू का दिल ही जीत लिया था। वह बालक बापू से मिलने की सुबह से ही जिद कर रहा था। किस तरह उसका न. शाम को आया। बापू से जब वह मिला तो उसने अपने कमीज की जेब से निकाल कर बापू के चरणों में कुछ फल रख दिए। तब गांधीजी की मंडली जो उस समय वहां उपस्थित थी में से किसी ने उस बालक को ऐसा ही कुछ कह दिया जिससे उस बालक के स्वाभिमान को चोट पहुंची और वह बालक कह उठा - नहीं , महात्मा जी , मैं भिखारी नहीं हूँ। जब से मैंने आपकी रिहाई का समाचार सुना तब से मैं कुली का काम करके कुछ दो - तीन रूपये जमा करके आपके लिए ये नम्र भेंट लाया हूँ । गांधीजी उसका निष्काम प्रेम देखकर द्रवित हो गए , बापू की आँखों से आश्रु धारा बह निकली । उन्होने कहा " बेटा अपने परिश्रम के फल तुम ही खाओ " परन्तु उस दृढ़ निश्चयी बालक ने उन्हें छुआ भी नहीं और कहा - महात्मा जी आप ये फल खा लेंगे तो मेरा पेट भर जायेगा। " यह कहते हुए उस बालक का चेहरा विजय गर्व से दमक उठा और फिर वो आहिस्ता से बापू को प्रणाम कहते हुए उनकी तरफ बिना पीठ किये धीरे - धीरे चला गया। 

               मित्रों, बापू ने भारत भूमि को और यहाँ रहने वाले एक - एक प्राणी के प्रति अगाध प्रेम किया था , और बदले में उन्हें भी भारत भूमि से , यहाँ रहने वालें एक - एक इंसान से वैसा ही स्नेह और आदर मिला था। 

             आओ गर्व करें की हमें म. गांधीजी जैसे राष्ट्रपिता का साथ मिला और मिली उनकी मंगल कामनाएं, मिली उनकी मैत्री , मिला उनका मार्गदर्शन।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

जब हम विश्व गुरु थे !!!


                 मितरो असहिष्णुता क्यों फैलती है ? अगर इस पर विचार करें तो पाएंगे की सम्प्रदाय ही इसके बढ़े कारण होते हैं । सम्प्रदाय अपना मुख्य काम समता प्रदाय करने की जगह विषमता प्रदाय अधिक करते हैं । आपसी सौजन्यता और सहिष्णुता ही हर तरह के विकास और उन्नति का बड़ा और प्रमुख आधार होता हैं । आओ जाने की तब हमारा लोक व्यवहार कैसा था ? जब हम विश्व गुरु थे ।

                       तो आओ मित्रों आज हम सम्राट असोक के एक शिलालेख ( गिरनार शीला द्वादस अभिलेख ) पर नज़र डालते हैं ।और समझने की कोशिश करते हैं क्यों उस कालखण्ड में हम विश्वगुरु थे । उस समय भी भारतवर्ष में 60 के आसपास सम्प्रदाय थे । पर असोक के सुराज में सभी में कमाल का बेलेंस था ।

गिरनार शिलालेख पर सम्राट असोक लिखवाता हैं :

1. देवनांप्रिय प्रियदर्शी राजा ( सम्राट असोक ) सब सम्प्रदायोंवालों, गृह त्यागियों तथा गृहस्थों का सम्मान करते हैं । ( वे ) दान और विविध प्रकार की अर्चना से उनका सम्मान करते हैं ।

2. किन्तु देवानां प्रिय दान अथवा अर्चना को उतना ( महत्वपूर्ण ) नही मानते जितना इसे की सब सम्प्रदायों में सार की वृद्धि हों ।

3. सार की वृद्धि अनेक प्रकार से होती हैं ।

4. किन्तु इसका मूल आधार यही हैं की वाणी पर नियंत्रण बना रहे । सो क्या ? कि बिना प्रसंग के अपने सम्प्रदाय की बड़ाई और अन्य सम्प्रदाय की निंदा ना हो अथवा प्रसंग विशेष में साधारण सी चर्चा हो ।

5. जिस किसी प्रसंग में अन्य सम्प्रदाय की प्रशंसा ही की जानी चाहिए ।

6. ऐसा करता हुआ व्यक्ति अपने सम्प्रदाय की उन्नति करता हैं और अन्य सम्प्रदायों पर भी उपकार करता हैं ।

7. इसके विपरीत करता हुआ व्यक्ति अपने सम्प्रदाय की हानि करता हैं और अन्य सम्प्रदायों पर भी अपकार करता हैं ।

8. क्योंकी जो कोई अपने सम्प्रदाय के प्रति आसक्ति होने के कारण कि कैसे मैं अपने सम्प्रदाय को प्रकाशित करूँ , अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और अन्य सम्प्रदाय की निंदा करने लगता हैं - वह ऐसा करता हुआ वास्तव में अपने सम्प्रदाय की खूब बढ़चढ़ कर हानि करता हैं ।

9. इसलिए मेलजोल ही उत्तम हैं । सो क्या ? कि लोग एक दूजे के धर्म ( अर्थात , धारण करने योग्य तत्व ) को सुने और सुनाये ।

मित्रों आजकल हो क्या रहा हैं हम ध्यान से देखें तो जो उपरोक्त शिलालेख में कहा गया है उसका बिलकुल उलट ही हो रहा हैं । अतः हमें सही लोकव्यवहार सीखना ही होगा ।

अगर हम म. गांधी के जीवन को देखें तो पाएंगे वे इस लोकव्यवहार में अधिक कुशल थे । उन्होने कभी किसी अन्य सम्प्रदाय की निंदा नही की , । हाँ अपने स्वयं के सम्प्रदाय की कमियों पर किसी प्रसंग विशेष में कभी कभार जब जरुरी हुआ कहा । मेलजोल को ही महत्व दिया । जब कभी जरुरी लगा दूसरों के सम्प्रदाय के सार तत्वों को ही महत्व दिया और सभी सम्प्रदायों के धारण करने योग्य गुणों को बखान ना करके करके उन्हें धारण करके भी दिखाया । तभी तो वे विश्व को भारतवर्ष के अतीत की झलक दिखला पाएं । और विश्व का उनमें कमाल का भरोसा जागा ।

सोमवार, 30 नवंबर 2015

" धर्म को धर्म ही रहने दो "



दुनिया का कोई धर्म हो शुरुआत में बहुत शुद्ध होता हैं । और उसके अनुयायी धर्म को कैसे धारण करे इसपर सारा जोर लगाते हैं । धर्म को जीवन का अंग बना लेते हैं । 

          जैसे सदाचार, शील और मन के विकारों से लड़ना तथा मन पर काबू पाना धर्म के मूल अंग है और लगभग सभी धर्मों के मूल अंग हैं । फिर धीरे धीरे धर्म धारण करने में शिथिलता आती जाती हैं । तो धर्म धारण करने से जो वास्तविक लाभ मिलते हैं उनसे हम वंचित होते जाते हैं । जब धर्म जीवन में नही उतरता तो लोग उसकी तरफ स्वभाविक आकर्षण खोते जाते है । उसके अनुयायियों की संख्या कम होने लगती हैं । अब उस उस धर्म के बड़े लोग या साफ कहें तो ठेकेदार चिंतित होते हैं । तो वे शार्टकट की तरफ आकृष्ट होते हैं । मानों जैसे धर्म को ओढ़ना सिखाते हैं । किसी भी चीज को ओढ़ना बड़ा आसान होता है ना इसीलिए बस कहते हैं अरे भाइयों इतना तो करो - ये ये तीज त्यौहार मना लो , ये ये व्रत उपवास रोजा या फ़ास्ट इत्यादि रख लो , इस इस तरह की वेश भूषा पहना करो , इस इस तरह के चिन्ह धारण करो , इस इस तरह की प्रार्थना करो । 

                     तो वे लोग देखते हैं की लोगों को या कहे उनके अनुयायियों को ये करना आसान लगता हैं । और वे सब आसानी से पहचाने जाते हैं कि अरे ये ये फलां फलां धर्म के लोग हैं । बाड़े बन्दी आसान होती हैं । पर मितरो ये तो शुद्ध दिखावा हुआ ना ? और दिखावे से भला कब धर्म जीवन में उतरा हैं । सो लोग अपने अपने मनों में टनों मैल लिए चलते हैं । और खूब भ्रम में रहते हैं देखों मैं कितना धर्मवान हूँ ना । परन्तु ये मन के मैल उसका लोक व्यवहार सुधरने नही देते और लोक व्यवहार असहिष्णुता, बैर भाव और घृणा द्वेष से भरा हो तो खुद भी दुखी रहते हैं और फिर दुःख अपने तक सिमित नही रखते औरों को भी बांटते हैं । दिखावे जोड़े तो जाते है भले के लिए पर धीरे धीरे ये ही प्रमुख हो जाते हैं और धर्म गौण हो जाता हैं । घर्म गौण हो जाता है फलदायी नही रहता । निष्प्राण और निस्तेज हो जाता हैं । 

                  मितरो म. गांधी शुद्ध धर्मिक व्यक्ति थे । अगर आप ध्यान से देखें तो उन्होने कभी धर्म को ओढ़ा नही । उसका दिखावा नही किया । इसीलिए खुद भी धर्म से खूब लाभान्वित हुए और सारे जीवन सबको प्रेम और सद्भाव ही बांटते रहे । म. गांधी का अपने मन पर काबू था । और निरंतर वे मन को शुद्ध करते रहते थे । तभी तो किसी के भी प्रति उनके मन में दुर्भाव नही जग पाता था । तभी तो सबको उनसे अभय मिलता था । तभी वे सबको और सब उनको प्रेम कर पाते थे ।

सबका भला हो ।
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रविवार, 15 नवंबर 2015

गांधी की शक्ति

म. गांधी ने कभी तीन चार दल नही बनाये । माने अलग अलग नामों से । जिसमें कुछ हिंसा को अपनाते, और कुछ अ हिंसा का स्वांग रचते । कुछ लोगों को जाती धर्म के आधार पर बांटते और कुछ एकता का राग अलापते ।

उन्होंने बस अपना एक ही रस्ता चुना और भी सविनय अवज्ञा और सम्यक अहिंसा के साथ ।

इसी कारण उनकी शक्ति बंटी नही एक रही । वरना क्या होता उनका कोई एक दल लोगों को बांटता और एक जोड़ने का दिखावा करता तो फिर गांधी कैसे सफल होते और देश दुनिया में जाने जाते ।

दोस्तों बापू बड़े सजग रहते थे । दोगलेपन और उसे अपनाने वाले अपने साथियों पर कड़ी नज़र रखते थे । हम अगर ध्यान से देखें तो उन्होने अपने कई साथियों को लाख अच्छे होने के बावजूद भी जब देखा की उनका झुकाव भेदभाव की तरफ है या हिंसा की वकालत करते है को देर नही की अपने से दूर कर दिया ।

तो दोस्तों , इसी आधार पर गांधी की जन स्वीकार्यता बढ़ी और सम्पूर्ण विश्व में अपने आप फैली। लोगों का विश्वास उन पर बड़ा । अतः जो भी हमारे विचार हों उन पर कैसे दृढ़ रहना ये हमें बापू से सीखना चाहिए और नकलीपन और दोगलेपन से बचना चाहिए । चाहे हम छोटा काम कर रहे हों या बड़ा इससे कोई फर्क नही पड़ता । फर्क पड़ता हैं विश्वनीयता से । यही कारण है की आज भी हमारी विश्वसनीयता पर कोई ऊँगली उठाये तो बिना देरी हम गांधी और बुद्ध का भरोसा सबको देते हैं । और दुनिया हमारा मान रखती हैं ।

आज के हालातों में हम देखें तो पाएंगे दोगले लोग बहुत देर तक सफलता के शिखर पर नही रह पाते क्योंकि उनका दोगलापन और नकलीपन उन्हें शिखर से नीचे खिंच लाता हैं ।

बापू तुम फिर आना मेरे देश ।