रविवार, 31 जुलाई 2011

भ्रष्टाचार से लड़ने की एक राह यह भी ....


विपश्यना 
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भ्रष्टाचार  से लड़ने  की एक राह यह भी .....
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        कुछ वर्षों पहले की बात है ... हमारे पडौसी देश बर्मा के एक प्रधान मंत्री ने भी अपने समय देश में व्याप्त भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर उससे लड़ने की ठानी.. वह स्वयं बड़ा ईमानदार था और चाहता था की उसका शासन भी ईमानदारी से ही चले / परन्तु लाचार था / अनेकों प्रकार के प्रयत्न  करके भी उसे सफलता नहीं मिली / तब उसने उस समय सरकार के बड़े अधिकारी एवं विपश्यनाचार्य सयाजी -उबा- खिन को याद किया और उनसे कहा की वे अपने ए. जी . आफिस का कार्यभार संभाले रखे तथा अन्य तीन विभागों में भी अपनी सेवा दे / सयाजी -उ-बा-खिन ने इसे स्वीकार किया / अपने  ऑफिस का कार्य पूरा  करके वे अन्य तीन विभागों में भी अपनी सेवा देने लगे / सत्यनिष्ठ व्यक्ति कर्मनिष्ठ भी हो जाता है / उसकी कार्य क्षमता बढती है / अतः वे तीनो कार्यालयों के कार्य भी समय पर  पूरा करने लगे और वहाँ कर्मचरियों को भी विपश्यना की ओर प्रेरित करने लगे / सरकारी विभागों के अनुसार उन्हें अपने विभाग से पूरी तथा अन्य तीन विभागों से एक-एक चौथाई वेतन मिलनी थी /  परन्तु इस सत्यनिष्ठ व्यक्ति ने इसे स्वीकार नहीं किया / इस सत्यनिष्ठ व्यक्ति ने कहा मैं  नित्य आठ घंटे ही काम करता हूँ / इस विभाग में करू या उस विभाग में / अतः मैं  अधिक वेतन क्यों लूँ ?

                                                   उन दिनों बर्मा देश में स्टेट एग्रीकल्चर मार्केटिंग बोर्ड सरकार का सबसे बड़ा सरकारी संस्थान था, जिसे देश भर का सारा  चावल  खरीदने  और बेंचने की मोनोपली प्राप्त थी / यह विभाग जिन कीमतों पर धान्य खरीदता था उससे चौगुनी कीमत पर विदेशी सरकारों को बेंचता था / अरबों के इस वार्षिक धंधे  में करोड़ों का लाभ होने के बदले यह विभाग करोड़ों का घाटा  दिखता था / कार्यालय में धोखेबाजी स्पष्ट थी / इसे सुधारने के लिए प्रधानमंत्री ने सयाजी -उ-बा-खिन को सैम्ब का अध्यक्ष बनाने का निर्णय किया / परन्तु सत्यनिष्ठ  सयाजी -उ-बा-खिन ने यह पद तभी स्वीकार किया जबकि उनके निर्णयों पर कोई हस्तक्षेप  ना करे और वे स्वतंत्र रूप से इस संस्थान का सञ्चालन करते रहे / प्रधान मंत्री ने उनकी यह शर्त स्वीकार कि / परन्तु इस निर्णय से सैम्ब के कार्यालय में तहलका मच गया /  वहाँ के जो बड़े अधिकारी थे वे भ्रष्टाचार में सबसे आगे थे / इस निर्णय से वे घबरा उठे और उन्हौने सामूहिक रूप से हड़ताल करने कि घोषणा कर दी / सयाजी -उ-बा-खिन निर्बैर थे , निर्भय थे और सुद्रढ़ कर्मनिष्ठ थे /  उन्हौने आफिसरों कि हड़ताल को द्रढ़ता पूर्वक  स्वीकार किया और अपने विभाग के छोटे  कर्मचारियों  के साथ सफलता पूर्वक काम करना शुरु किया /  वे रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए /  हड़तालियों ने तीन महीने तक प्रतीक्षा की / तदन्तर उनका धेर्य टूट गया और उन्हौने  सयाजी -उ-बा-खिन के पास जाकर क्षमा याचना  करते हुए पुनः काम पर लग जाने की इच्छा व्यक्त की /  परन्तु उ-बा-खिन नहीं माने /  उन्हौने कहा तुममे से जो व्यक्ति विपश्यना का शिविर करके आएगा उसे ही काम पर लिया जायेगा /  तब तक वहाँ समीप ही सयाजी -उ-बा-खिन का  एक विपश्यना का केंद्र भी प्रारंभ हो चूका था / वहाँ विपश्यना करने पर धीरे- धीरे घुसखोर आफिसरों का भी कल्याण होने लगा और देश का भी / जो सैम्ब का आफिस हर वर्ष करोड़ों का घाटा बताता था , वह अब करोड़ों का मुनाफा बताने लगा /

                                                 हमारे मन के मैल जैसे लालच भ्रष्ट तरीको से पैसा कमाने या चोरी के लिए उकसाता है, अत्यधिक क्रोध एवं घृणा की परिणिति मनुष्य को हत्यारा बनाने की क्षमता रखती है / इसी तरह अनेकों मन के विकार जब- जब मनुष्य के मानस पर हावी होते है तो वह मनुष्यत्व भूलकर पशुतुल्य हो उठता  है यही बात सम्राट अशोक ने भी बड़ी गहराईयों से जान ली थी तभी वह  अंपने राज्य में वास्तविक सुख शांति स्थापित करने में अत्याधिक सफल हुआ था / अपने एक प्रसिद्ध शिलालेख में वह लिखता है -  " मनुष्यों में जो धर्म की बढोतरी हुयी है वह दो प्रकार से हुयी है - धर्म के नियमों से और विपश्यना ध्यान करने  से / और इनमे धर्म के नियमों से कम और विपश्यना ध्यान करने से कहीं अधिक हुयी है / "  यही कारण है की मनुष्य समाज को सचमुच अपना कल्याण करना हो वास्तविक अर्थों में अपना मंगल साधना हो तो उसे अपने मानस को सुधारने के प्रयत्न स्वयं ही  करना होंगे / विपश्यना साधना के आज भी वैसे  ही प्रभाव आते है जैसे २६०० वर्ष पूर्व के भारत में आते थे /  आचार्य श्री सत्यनारायण गोयनका जी के सद-प्रयत्नों से यह साधना उसी मौलिक रूप में आज हमें उपलब्ध है जैसी आज से २६०० वर्ष पूर्व उपलब्ध थी / सबके मंगल के लिए सबके कल्याण के लिए  / 

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

फिर छाया उजियारा ...


फिर छाया उजियारा ...
               विपश्यना ध्यान साधना सार्वजनीन है, सर्वकालिक है, सार्वदेशिक है, सबके अपनाने योग्य है, अशुफल्दायी है, आओ करके देखने योग्य है /  इस बात का प्रमाण यह भी है की आज विश्व में विपश्यना का उजियारा  १२२  केन्द्रों से फैल रहा है /  भारत में ५५ तथा  शेष विश्व के २५ देशों ( टर्की, स्वीडन, फ़्रांस, बेल्जियम, ब्रिटेन, स्पेन, स्विटजरलैंड, जर्मन, इटली, युक्रेन, रूस, इरान, इसराइल, कनाडा, हाँगकांग, कम्बोडिया, नेपाल, म्यांमा, जापान, मंगोलिया, मलेशिया, श्रीलंका, ताईवान, थाईलेंड और अमेरिका ) में  इसके  ६७ केंद्र है /  सभी धर्मों के लोग इसे सफलता पूर्वक अपना रहे है /  विपश्यना साधना धर्म परिवर्तन को नहीं बल्कि मन की शुद्धि को महत्व देती है ..हिन्दू अच्छा हिन्दू , बौद्ध अच्छा बौद्ध, मुस्लिम अच्छा मुस्लिम, ईसाई अच्छा ईसाई और जैन अच्छा  जैन बने और ऐसा होने में विपश्यना उसकी बड़ी मदद करती है /

               जब कोई व्यक्ति इसकी तपोभूमियों पर जाता है, तो पाता है कि ये सब के लिए खुली हैं /  यह अनमोल विद्या बिना किसी मोल के सिखाई जाती है, पुराने विपश्यी साधकों के उदार चित्त से दिए दान पर ये शिविर चलते है /  वहां शील सदाचार का जीवन जीते हुए,  मन को वश में करते हुए,  मन को सुधारने का अभ्यास करना सिखाया जाता है /  मन की अशुद्धता ही हमारे दुख्खो का एक मात्र कारण है,  शुद्ध होता हुआ मन हमारी कितनी सहायता करने लगता है, हमारा मित्रवत मार्गदर्शन करने लगता है,  धीरे धीरे यह उसकी समझ में आने लगता है /  मन को वश में करने के लिए जो आलंबन दिया जाता है वह भी सार्वजनीन है हमारा अपना साँस... इस आलम्बन के सहारे मन हौले -हौले एकाग्र होने लगता है /

साँस देखते- देखते,         सत्य प्रगटता जाय  /
सत्य देखते- देखते , परम  सत्य दिख जाय //

                      प्रथम तीन दिन उसे मन को वश में करना सीखना होता है, बेकाबू मन, चंचल मन किस कदर यहाँ-वहाँ भागता रहता है और यह दौड़-भाग उसे कितना थका देती है / यह बात अब उसके अनुभव पर उतरने लगती है, अनुभूतिजन्य ज्ञान अब उसका अपना ज्ञान बनने लगता है /

वाणी तो वश में भली,   वश में भला शरीर  /
पर जो मन वश में करें , वही शुर वही वीर //

                   चौथे दिन और उसके बाद नौवें दिन तक साधक कदम दर कदम बढ़ते हुए मन को निर्मल बनाने कि साधना " विपश्यना " का सक्रिय अभ्यास करने लगता  है..वश में आया मन अब उसके अनुसार काम करता  है /  इससे पहले तो मन उसे नचाता था, अब साधक के कहे अनुसार मन से मन को सुधारने के काम की शुरुआत हो  जाती  है /  साधक के द्वारा लगातार अभ्यास के क्रम से उसकी प्रज्ञा जाग्रत होने लगती है, प्रज्ञा यानि प्रत्यक्ष ज्ञान, वह ज्ञान जो हमारी अपनी अनुभूति पर जागा  हो, पढ़ा-पढाया या सुना-सुनाया नहीं /

शीलवान के ध्यान से,     प्रज्ञा जाग्रत होय /
अंतर  की गांठे खुले, मानस  निर्मल होय //

                      नौं दिनों तक साधना करता हुआ साधक का मन की निर्मलता को महसूस करने लगता है, पहली बार वह जनता है कि मन के विकारों का कितना बड़ा बोझ लिए वह चल रहा था, उसे हल्कापन महसूस होता है /  निर्मल होता मन  अपने सहज गुण -धर्म प्रगट करने लगता है, अब तक उसे मैं-मेरे के संकुचित दायरे से धीरे-धीरे बाहर निकलने का रास्ता हाथ लग गया होता है /  उसे अनुभूति द्वारा यह बात समझ में आने लगती है कि उसका विकारों से ग्रसित मन ही उसके दुक्खों का असल कारण है.. मन के मैल उसने ही चढ़ाये है तो उन्हें साफ करने कि जवाबदेही  भी उसकी अपनी ही बनती है / 

धन्य भाग साबुन मिली, निर्मल पाया नीर /
मैल चित्त का धोइहैं,   निर्मल मिलिहैं नीर //