शनिवार, 31 दिसंबर 2011

कहीं खो न जाये सरलता ......


कहीं खो न जाये सरलता  ....

                                     सरलता चित्त विशुद्धि है ..कुटिलता मलिनता है / मलिनता अनर्थकारिणी  है , विशुद्धता स्वार्थ-साधिनी है / नैसर्गिक स्वच्छ मन स्वभाव से ही सरल होता है / सरलता गयी तो समझो स्वच्छता गयी / सरलता खोने के  तीन प्रमुख कारण हैं  ... जिनसे हमें सावधान रहकर बचना चाहिए / कौन से तीन ? ... तृष्णा , अहमन्यता , और दार्शनिक दृष्टी  / इन तीनों में से किसी एक के प्रति मन में जितनी आसक्ति उत्पन्न होगी उतनी ही स्वच्छता गँवा बैठते हैं  , उतने मलिन हो जाते हैं  , उतने ही सुख शांति विहीन हो जाते हैं, उतने दुखी हो उठते है / जब किसी वस्तु , व्यक्ति अथवा स्थिति के प्रति तृष्णा जागती है और आसक्ति बढती है तब उसे प्राप्त करने के लिए अथवा प्राप्त हुयी हो तो अधिकार में रखने के लिए हम बुरे से बुरा तरीका अपनाने पर उतरूं हो जाते हैं / चोरी - डकैती , झूठ- फरेब,  छल-छदम,  प्रपंच-प्रवंचना , धोखा -धड़ी इत्यादि सब कुछ अपनाते हैं / अपने पागलपन में मन की सारी सरलता खो देते हैं / साध्य हासिल करने की आतुरता में साधनों की पवित्रता खो देते हैं / प्रिय के प्रति अनुरोध ही अप्रिय के प्रति विरोध उत्पन्न करता हैं / इससे हम इतने प्रमत्त हो उठते हैं कि तृष्णा पूर्ति में जो बाधक बनने लगता है , उसे दूर करने के लिए,  नष्ट करने के लिए , असीम क्रोध , राग- द्वेष , दौर्मनस्य और दुर्भावनाओं का प्रजनन करने लगते हैं  और परिणामस्वरुप अपनी सुख शांति भंग कर लेते हैं  / मन की सरलता से हाथ-धो बैठते हैं /


                                        इसी प्रकार मैं मेरे के प्रति आसक्ति जगती है तो मैं मेरे की मिथ्या सुरक्षा और  मिथ्या हित -सुख के  लिए , जिन्हें मैं मेरा नहीं मानते उनकी बड़ी  से बड़ी  हानि करने पर तुल जाते हैं / ऐसा कर वस्तुतः अपनी ही अधिक हानि करते हैं औरों को ठगने के उपक्रम में स्वयं ही ठगे जाते है / इसी प्रकार जब हमें दार्शनिक दृष्टी अथवा सांप्रदायिक मान्यता के प्रति आसक्ति जगती है तो संकीर्णता के शिकार हो जाते है ... और फिर मन की सहज, सरलता खो देते हैं / मन जब पानी की तरह सहज सरल होता है तो अपने आप को पात्र के अनुकूल  ठाल लेता है और अपनी सरलता भी नहीं गवांता / रास्ते में अवरोध आता है तो कल-कल करता हुआ उसकी बगल से गुजर जाता है ... कोई अवरोध उसे काटता है , दो टुकडे करता है , तो काटकर भी  अवरोध के आगे बढता हुआ फिर जुड़ जाता है और वैसे का वैसा हो जाता हैं / जब कोई अवरोध दीवार की तरह सामने आकर उसकी गति अवरुद्ध करता है तो धैर्य पूर्वक धीरे- धीरे ऊँचा उठता हुआ उस दीवार को लांघकर सहज भाव से आगे बढ जाता है / आज कल दूसरों के दोष दिखाने और घृणा को फ़ैलाने, बढाने का एक अजीब सा दौर चल पड़ा है ... इस उहापोह में जाने कब हमारा मन सरलता खोकर कट्टरता की राह चल पड़ता है...और अपनी  ओर निहारने की साधारण दृष्टी को गँवा कर गांठ-गठीला बन जाता है ... इसे रोकना चाहिए यह हमारे प्राकृतिक विकास की राह में बड़ा रोड़ा साबित होगा /  

                                       परन्तु मन जब पत्थर की तरह कठोर हो जाता है तो चट्टानों से टकराकर चिंगारियां पैदा करता हैं , चूर चूर होता हैं ...और अपने कल्याण के रास्तों को बंद करता है / अतः सरलता मन की गांठों को खोलने का काम करती है ... मन की सरलता कैसे वापस  मिले ... यही  सीखने  के लिए विपश्यना साधना हमारी बड़ी मददगार साबित होती है ... गांठ गठीला मन ही तनाव और उससे जनित कई रोगों का घर है यह बात तो आज का विज्ञान भी खुलकर मानता है ... सरल मन ... सहज प्रफुल्लित होकर शांत और सुशील बनता है... अपने मंगल का कारण बनता हैं , साथ ही साथ औरों के भले में भी भागीदार बनता है / सौभाग्य से इस साधना  के हमारे प्रदेश में अब चार और छत्तीसगढ़ में एक केंद्र कार्यरत हैं जहाँ निशुल्क तथा बिना भेदभाव के मन को सरल बनाने  का अभ्यास सिखाया जाता है / 

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

मन ही अधिनायक है ...


मन ही अधिनायक है ...  

                    
                  हमारे राष्ट्रीय गान को १०० वर्ष पुरे हुए ... गुरुवर रबिन्द्रनाथ टैगोर की यह अनुपम कृति   " जन-गण-मन "   कई मायनों में अति महत्व पूर्ण है ... सारे देश को एकता के सूत्र में बांधने की इस गीत में गजब की शक्ति  है ... इसे गाते समय मन एकता  और देशभक्ति की भावना से आप्लावित हो उठता है ... वास्तव में इस गीत में हमारे मन को अधिनायक का दर्जा दिया गया है ... यहाँ यह इशारा भी किया गया है की एक-एक भारतीय मन पर विजय करें तो जन-गण को अति मंगल दायक अवसर मिलते ही रहेंगे ...  ण- तंत्र  जन-जन से बनता है....एवं जन-जन से चुने हुए नायक यानि गण इस तंत्र को आगे बढ़ाते है..पर गौर से देखा जाय तो मन यानि जन - मानस अधिनायक होकर उभरता है...हर जगह अपना प्रभाव दिखलाता है ...आजकल अनुचित आचरण और  भ्रष्ट आचरण की समस्या पर लगातार हल्ला बोला जा रहा है.. यहाँ हों या वहां यह समस्या ऊपर से नीचे तक, शहर से गाँव तक, संसद से चौपाल तक, पक्ष से विपक्ष तक  सहज देखी जा सकती है.. मानव मन सदाचार की उचाईयों को कहाँ तक छू सकता है, एक संतुलित और निर्मल मन किस कदर सारे विश्व के जनमानस पर छा जाता है  इसकी  बानगी कभी-कभी देखने में आती है, इसकी भूरी-भूरी प्रशंसा सारा विश्व यदा-कदा  करता ही रहता है (  महात्मा गांधीजी को टाईम्स पत्रिका ने अब तक के महानतम व्याक्तियो से एक चुना हैं ) . हमारा गणतंत्र, हमारा समाज, एक-एक व्यक्ति से मिलकर बनता है. व्यक्ति-व्यक्ति का मन मिलकर जन - मानस बनता है, अतः मानस का सुधार अति आवश्यक है..पेड़ का सुधार करना है तो उसकी जड़ों का सुधार करना ही होगा.


                                         कोई भी शासक हो उसका सपना होता है की उसके राज्य में सुराज हो, प्रजा सुखी हो, हर तरफ शांति हो, परतु बहुत थोड़े ही सुराज की इन उचाईयों को छू पाते है. ऐसे ही हमारे  देश के एक महान शासक असोक  ने भी यही सपना संजोया था एवं उसमे उसे महती सफलता भी मिली. वस्तुतः उसने सुराज की जड़ों तक पहुँच बनायीं थी..चीनी यात्रियों के विषद वृतांतों से पता चलता है,  जिनमें वे यहाँ के लोगो की संस्कृति और सभ्यता की भूरी-भूरी प्रसंशा करते हैं , और लिखते है की कैसे वे शांति,  सम्रद्धि और आपसी  सद्भाव का जीवन जीते थे. देहली-तोपरा स्तम्भ पर उत्कीर्ण अपने एक सुविख्यात अभिलेख में अशोक अपने शासनकाल में किये गए उपायों की विस्तृत समीक्षा करता है.
                                   
                                 
                                         सम्राट असोक का कलिंग की लडाई से उपजी आत्मग्लानी से दुखी हो उठा ... वह अपनी प्रजा की वास्तविक भलाई के लिए आतुर हो उठा ... वह लगातार अपनी प्रजा की सुख-शांति के लिए हर संभव सुधार की प्रक्रिया में जुट गया ... तभी उसे कहीं से सलाह मिली की राजन सारे कानूनों और प्रजा की भलाई के लिए शासन द्वारा किये उपायों का जमीन पर असर तभी दिखाई देगा जब प्रजा के पास ऐसा कोई उपाय भी हो जिससे वह अपने विकारों से ग्रसित मन को शुद्ध कर सकें ... असल में जब-जब मन में लालच .. क्रोध ...आलस...वासना ...द्वेष ...एवं राग के विकार उभर-उभर कर सतह पर आते है,  तो मानस उन विकारों के वशीभूत  होकर किसी भी कानून से न डरते हुए वह अपराध कर ही बैठता हैं ...फिर अपने एक अपराध को छुपाने के चक्कर में वह दल - दल में धंसता ही जाता है ... मानस  सुधार के हर उपदेश भी अपना नहीं दिखा पाते ... अतः अगर हम कहें की इमानदार बनों ... इमानदार बनों पर हम उसे इमानदार बनाने की कोई  राह नहीं बताते ... असल में वह अपने मन में लालच के पूर्व संचित विकारों को निकाले बिना लालच  के वशीभूत होकर यह भूल जाता है कि उसे इमानदार  बनाना है ... और सारे उपदेश कोरे ... सारे कानून व्यर्थ ही साबित होते है .
                                     
                                      अब तक असोक सारा आशय समझ चूका था ....  उसने यह निश्चय किया की ऐसा कोई उपाय पहले जनता को बताने से पहले मुझे उसका स्वयं अनुभव करके देखना चाहिए ... फिर तो सम्राट असोक ने मन के विकारों से छुटकारे का उपाय भगवान बुद्ध की विपश्यना साधना सिखने  में खुद पहले ३ महीनों का समय लगाया ... और वह जब आश्वस्त हुआ तो फिर उसने अपनी प्रजा को प्रेरित करना शुरू किया ... धीरे धीरे उसे परिणाम दिखाई पड़ने लगे ...और प्रजा की भलाई के हर उपाय शत-प्रतिशत प्रजा को मिलने से उस समय का भारत केवल भौतिक विकास में ही नहीं नैतिक और आध्यात्मिक विकास में भी बुलंदियों को छू रहा था .


                                          सम्राट असोक के अभिलेखों  की शब्दावली में उसके व्यक्तित्व की अनुपम झांकी देखने को मिलती है. उसका कहना है की मेरे पूर्ववर्ती राजाओं, शासकों ने भी मेरे ही सामान यह कामना की थी की प्रजा का उत्थान हो , परन्तु वे इसमें सफल नहीं हुए जबकि मैंने सफलता का मुंह देखा. मुझे लगा की धर्म का यानि मन को निर्मल करने का अभ्यास मुझे स्वयं करना होगा और तब लोग इसका अनुसरण करेंगे और अपने आप को ऊपर उठाएंगे.  इसी लक्ष्य को सामने रखकर मैंने धर्म यानि मन को निर्मल बनाने के नियम बनाये और अनेकों धर्म निर्देश दिए. वह अभिलेख में लिखता है कि मैंने निझ्ती ( आंतरिक ध्यान , विपश्यना ) का सहारा लिया. सुराज का पुष्ट होना इन्ही दो बातों से सुनिश्चित हुआ ...पहला कड़े - नियम और दूसरा लोगों में  मन-शुद्धि कि साधना के प्रति लगाव. वह आगे कहता है इन दो बातों में से धर्म के नियमों से कम, वरन मनशुद्धि कि साधना से लोगों को बहुत कुछ प्राप्त हुआ .