
यूँ करना व्यापार की नज़र से सही भी हैं ... पर मानव मन में असंतोष के बीज खूब गहरे बो जाता हैं ... अब सवाल फिर मुंह बाये खड़ा हैं की फिर क्या करे ? ... विकास को नकार दें ... और अविकसित और जाहिल बनकर जीवन जिए ...!!!
नहीं .. नहीं .. मेरा आशय यूँ भी नहीं हैं ...जब जितना - जितना जरुरी हो उतना विकास जरुर हो पर हाँ हम विकास के गुलाम बनकर ना रह जाएँ ...और विकास को सब कुछ ना मान बैठे ... हमारे परिश्रम का बड़ा भाग " दिलों में प्रकाश के लिए खर्च हो ..." ..... फिर चाहे विकास कम ही क्यों ना हो ... या बहुत अधिक क्यूँ ना हो ....मन की बैचैनी नहीं बढ़ पायेगी ... वह संतुलन में रहेगी ... जीवन संतुलित रहेगा ... और कम या ज्यादा विकास बेमानी हो जायेगा ...

जिस पर आज गर्व करते नहीं अघाते हैं हम ... उस काल खंड का भारत ही " विश्व गुरु " कहलाया ... उस काल खंड का भारत ही " सोने की चिड़िया " कहलाया ...
सबका भला हो !!!