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शुक्रवार, 7 जून 2013

प्रकाश का विकास ...


              भौतिक विकास तो अंतहीन हैं ... मनुष्य को अपनी सुख - सुविधाओं की अंतहीन लालसा होती हैं ... उसे मिलने वाली हर नयी सुविधा को वह लाजवाब बोलता हैं ... और तत्क्षण पीछे मिली सुविधा को हिकारत की नज़र से देखने से भी नहीं चुकता ... कई बार तो नयी सुविधा देने वाला मानव ही अपना माल बेचने के चक्कर में पुरानी सुविधा को नाकारा साबित करता हैं ... 

                      यूँ करना व्यापार की नज़र से सही भी हैं ... पर मानव मन में असंतोष के बीज खूब गहरे बो जाता हैं ... अब सवाल फिर मुंह बाये खड़ा हैं की फिर क्या करे ? ... विकास को नकार दें ... और अविकसित और जाहिल बनकर जीवन जिए ...!!! 

                      नहीं .. नहीं .. मेरा आशय यूँ भी नहीं हैं ...जब जितना - जितना जरुरी हो उतना विकास जरुर हो पर हाँ हम विकास के गुलाम बनकर ना रह जाएँ ...और विकास को सब कुछ ना मान बैठे ... हमारे परिश्रम का बड़ा भाग " दिलों में प्रकाश के लिए खर्च हो ..." ..... फिर चाहे विकास कम ही क्यों ना हो ... या बहुत अधिक क्यूँ ना हो ....मन की बैचैनी नहीं बढ़ पायेगी ... वह संतुलन में रहेगी ... जीवन संतुलित रहेगा ... और कम या ज्यादा विकास बेमानी हो जायेगा ...

                  मन का प्रकाश यानि आध्यात्मिक विकास ... यह बहुत जरुरी हैं हमारे लिए ... देखों ना राजकुमार सिद्धार्थ गौतम के जीवन में भौतिक विकास की अति थी फिर भी उन्हें आध्यात्मिक विकास जरुरी लगा ... उन्हौने उसकी सर्वोच्च अवस्था को पाया ... और सारे जीवन करुण चित्त से , मुक्त हस्त से जनसाधारण को बांटते रहे ... 



             जिस पर आज गर्व करते नहीं अघाते हैं हम ...  उस काल खंड का भारत ही " विश्व गुरु "  कहलाया ... उस काल खंड का भारत ही " सोने की चिड़िया " कहलाया  ...


सबका भला हो !!!