मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

तुझपे कुर्बान ...

तुझपे कुर्बान ...







                             न्ना-डे साहब की पुरजोर आवाज और ढोलक की मस्त लय इस गीत को सुनते वक्त मन को हौले से कुछ यूँ ले कर चल पड़ती हैं, ज्यूँ बैलगाड़ी अभी-अभी उबड़-खाबड़ रास्तों से निकल समतल में चल पड़ी हो ... और बैलगाड़ी के हिलने-डुलने-सा स्वभाविक अभिनय करते बलराज साहनी साहब इतना तन्मय होकर झूम रहे हैं की पूरा नज़ारा मन की पतंग को ऊँचे कहीं आसमान में ले जाता हैं ... कभी नहीं लगता की इस मनोहारी गीत के पीछे कितने सारे लोगों की मेहनत होगी ... क्योंकि सबकी मेहनत को इतनी ख़ूबसूरती से एक धागे में पिरोकर फिर यूँ जोड़ दिया गया हैं की फिर कहीं उन सबका ओर मिलता है न छोर... फिर तो बस गीत ख़त्म होने पर ही मनरूपी पतंग धरातल छू पाती हैं /

                          इस गीत में कई सहकलाकारों का जमघट है ... पर मजाल हैं कोई इस गीत की मस्ती से अलग नज़र आ जाये ... यहाँ तक की निर्जीव सा चम्मच भी ढोलक पर बराबर ताल में गिरता रहता है ... उस निर्जीव चम्मच के योगदान को भी संगीतकार रवि साहब ने बखूबी स्थान दिया हैं ... डिरेक्टर यश चोपड़ा साहब ने भी उसे बखूबी दिखाया हैं /

                        १९६५ में बनी यह फिल्म वक्त का यह गीत आज भी जब बजता हैं तो बरबस सबका ध्यान अपनी ओर खींचने  की गजब की काबिलियत रखता हैं ... बलराज साहनी साहब एक अदद सादा इन्सान थे और उनका सादगी पसंद मन भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति बिना किसी कोशिश के सहज कर जाता था /

                    मन का सादगी पसंद और बाहर-भीतर एक-सा होना दुनिया को सकारात्मकता से महकाता  रहता हैं ... ऐसा व्यक्तित्व इस धरा पर रहे न रहे उनके मन से निकली सकारात्मक तरंगे माहौल को यदा-कदा तरंगित करती रहती हैं /


सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

तुम जागो ... मैं सो जाऊँ ...!!!

तुम जागो ... मैं सो जाऊँ   ...!!!




                         टीम अन्ना का अब असली चेहरा उजागर होते जा रहा हैं ... उनकी टोपी का सफ़ेद रंग अब मटमैला काला पड़ता जा रहा हैं  ... आज अरविन्द केजरीवाल जी सुबह 7.00  बजे घर से एयर पोर्ट के लिए निकल गए ... जबकि उनकी फ्लाईट सुबह 10 .30  की थी ... अगर वे चाहते तो अपना रास्ता थोडा-सा बदल कर अपने घर के पास स्थित सुबह 7 .00  बजे आरभ हुए मतदान केंद्र पर जाकर एक जागरूक मतदाता होने का साबुत दे सकते थे ... मतदान करने में सुबह-सुबह केवल 10  मिनिट का समय लगता और यह सन्देश भी जाता की वे बहुत जरूरी काम को करके ही अगले जरूरी काम के लिए निकले ...  पर नहीं वे एक कुशल पर उपदेशक ही साबित हुए ... और जाने अनजाने उनका भीड़ और मिडिया में छाये रहने का लोभ भी उजागर हो गया / उन्हें भीड़ से उर्जा मिलती हैं ... यह वे नहीं अन्ना भी कई बार कह चुके हैं पर सही नेतृत्व वह होता हैं जो भीड़ से उर्जा लेता नहीं बल्कि भीड़ को नयी और सकारात्मक उर्जा देता है साथ ही साथ भीड़ की उर्जा को राष्ट्र - निर्माण में बदलने का माद्दा रखता हैं .... उनका मतदाता जागरूकता अभियान किन्ही और निहितार्थों के कारण चलाया जा रहा हैं अब स्पष्ट हैं /


                                         गांघी  टोपी पहन कर उसका मान भी बढाना होता हैं ... उनकी तस्वीर मंच पर लोगों को गुमराह करने के लिए या उनकी लोकप्रियता का केवल लाभ पाने की लिए नहीं लगाना चाहिए ... अगर अन्ना टीम ऐसा ही करती रही तो जनता खासकर आज के युवा जो गाँधी जी का अश्क हमारे नेतृत्व में देखने को बेताब हैं ...बहुत निराश होते हैं ... और जाने-अनजाने कथनी और करनी की समानता के सुखदायी और असरकारी  परिणामों के जीवंत प्रयोगों को देखने से से वंचित होकर गुमराह होने लगते हैं ... कहो कुछ और करों कुछ ... यही सब  तो टीम अन्ना के महत्पूर्ण सदस्य भी कर रहे हैं  इस बात को देख-देख कर आज का युवा भी ऐसा ही व्यवहार करने लगे तो फिर हम उन्हें दोष किस मुंह  से देंगे भला ?


                                           गाँधी जी यूँ ही नहीं कह गए की उनका जीवन ही उनका सन्देश हैं  हर उस उपदेश को गांधीजी ने पहले अपने जीवन में उतरा जिसका वे दूसरों को सन्देश देना चाहते थे ...  गांधीजी से एक बार किसी बहुत जरूरी सलाह मशवरे के लिए मिलने हमारे देश के कुछ बड़े-बड़े नेता सुबह-सुबह उनके आश्रम पहुंचे ...और जब गाँधी जी उनसे बात करने के लिए उठ ही रहे थे की एक बालक दौड़ता हुआ आया और कहने लगा बापू आपकी बकरी को चोट लगी हैं ... यह सुनते ही बापू ने अपना रास्ता बदल दिया ... वे अगले ही क्षण बकरी की सेवा कर रहे थे ... नेता लोगों के पास उनका इन्तेजार करने के आलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था ... भाई केजरीवाल जब गांधीजी की तस्वीर को प्रष्ठभूमि में रखकर बयान वीर बन रहे हैं तो उनकी सारी बयान बाजी सच्चाई से कोसों  दूर  होने  के  कारण धीरे-धीरे बेअसर हो रही हैं /


                                         आज का युवा केवल आज के आन्दोलन कारियों का अंध- भक्त बनाकर न रह जाये ... उनकी ओर विवेकशील होकर देखता भी रहे ... आज के इस उपभोक्तावादी वातावरण में एक के साथ एक फ्री का बहुत बोलबाला हैं / सोंचे जरा /



शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

विपश्यना साधना : एक परिचय


विपश्यना साधना : एक परिचय 

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साधना विधि

विपश्यना (Vipassana) आत्मनिरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की अत्यंत पुरातन साधना-विधि है। जो जैसा है, उसे ठीक वैसा ही देखना-समझना विपश्यना है। लगभग २५०० वर्ष पूर्व भगवान गौतम बुद्ध ने विलुप्त हुई इस पद्धति का पुन: अनुसंधान कर इसे सार्वजनीन रोग के सार्वजनीन इलाज,जीवन जीने की कला, के रूप में सर्वसुलभ बनाया।
इस सार्वजनीन साधना-विधि का उद्देश्य विकारों का संपूर्ण निर्मूलन एवं परमविमुक्ति की अवस्था को प्राप्त करना है। इस साधना का उद्देश्य केवल शारीरिक रोगों को नहीं बल्कि मानव मात्र के सभी दुखों को दूर करना है।
विपश्यना आत्म-निरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की साधना है। अपने ही शरीर और चित्तधारा पर पल-पल होनेवाली परिवर्तनशील घटनाओं को तटस्थभाव से निरीक्षण करते हुए चित्तविशोधन का अभ्यास हमें सुखशांति का जीवन जीने में मदद करता है। हम अपने भीतर शांति और सामंजस्य का अनुभव कर सकते हैं।
हमारे विचार, विकार, भावनाएं, संवेदनाएं जिन वैज्ञानिक नियमों के अनुसार चलते हैं, वे स्पष्ट होते हैं। अपने प्रत्यक्ष अनुभव से हम जानते हैं कि कैसे विकार बनते हैं, कैसे बंधन बंधते हैं और कैसे इनसे छुटकारा पाया जा सकता है। हम सजग, सचेत, संयमित एवं शांतिपूर्ण बनते हैं।

परंपरा

भगवान बुद्ध के समय से निष्ठावान् आचार्यों की परंपरा ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस ध्यान-विधि को अपने अक्षुण्ण रूप में बनाए रखा। इस परंपरा के वर्तमान आचार्य श्री सत्य नारायण गोयन्काजी, है। वे भारतीय मूल के है लेकिन उनका जन्म म्यंमा (बर्मा) में हुआ एवं उनके जीवन के पहले पैतालिस वर्ष म्यंमा में ही बीते। वहां उन्होंने प्रख्यात आचार्य सयाजी ऊ बा खिन, जो की एक वरिष्ठ सरकारी अफसर थे, से विपश्यना सीखी। अपने आचार्य के चरणों में चौदह वर्ष विपश्यना का अभ्यास करने बाद सयाजी ऊ बा खिन ने उन्हें १९६९ में लोगों को विपश्यना सिखलाने के लिए अधिकृत किया। उसी वर्ष वे भारत आये और उन्होंने विपश्यना के प्रचार-प्रसार का कार्य शुरू किया। तब से उन्होंने विभिन्न संप्रदाय एवं विभिन्न जाती के हजारो लोगों को भारत में और भारत के बाहर पूर्वी एवं पश्र्चिमी देशों में विपश्यना का प्रशिक्षण दिया है। विपश्यना शिविरों की बढ़ती मांग को देखकर १९८२ में श्री गोयन्काजी ने सहायक आचार्य नियुक्त करना शुरू किया।

शिविर

विपश्यना दस-दिवसीय आवासी शिविरों में सिखायी जाती है। शिविरार्थियों को अनुशासन संहिता, का पालन करना होता है एवं विधि को सीख कर इतना अभ्यास करना होता है जिससे कि वे लाभान्वित हो सके।
शिविर में गंभीरता से काम करना होता है। प्रशिक्षण के तीन सोपान होते हैं। पहला सोपानसाधक पांच शील पालन करने का व्रत लेते हैं, अर्थात् जीव-हिंसा, चोरी, झूठ बोलना, अब्रह्मचर्य तथा नशे-पते के सेवन से विरत रहना। इन शीलों का पालन करने से मन इतना शांत हो जाता है कि आगे का काम करना सरल हो जाता है।

अगला सोपाननासिका से आते-जाते हुए अपने नैसर्गिक सांस पर ध्यान केंद्रित कर आनापान नाम की साधना का अभ्यास करना।
चौथे दिन तक मन कुछ शांत होता है, एकाग्र होता है एवं विपश्यना के अभ्यास के लायक होता हैअपनी काया के भीतर संवेदनाओं के प्रति सजग रहना, उनके सही स्वभाव को समझना एवं उनके प्रति समता रखना।
शिविरार्थी दसवे दिन मंगल-मैत्री का अभ्यास सीखते हैं एवं शिविर-काल में अर्जित पुण्य का भागीदार सभी प्राणियों को बनाया जाता है।
इस साधना में सांस एवं संवेदनाओं के प्रति सजग रहने के अभ्यास के बारे में एक विडिओ(५.७MB) नि:शुल्क क्विकटाईम मुवी प्लेयर के जरिए देखा जा सकता है।
यह साधना मन का व्यायाम है। जैसे शारीरिक व्यायाम से शरीर को स्वस्थ बनाया जाता है वैसे ही विपश्यना से मन को स्वस्थ बनाया जा सकता है।
साधना विधि का सही लाभ मिलें इसलिए आवश्यक है कि साधना का प्रसार शुद्ध रूप में हो। यह विधि व्यापारीकरण से सर्वथा दूर है एवं प्रशिक्षण देने वाले आचार्यों को इससे कोई भी आर्थिक अथवा भौतिक लाभ नहीं मिलता है।
शिविरों का संचालन स्वैच्छिक दान से होता है। रहने एवं खाने का भी शुल्क किसी से नहीं लिया जाता। शिविरों का पूरा खर्च उन साधकों के दान से चलता है जो पहिले किसी शिविर से लाभान्वित होकर दान देकर बाद में आने वाले साधकों को लाभान्वित करना चाहते हैं।
निरंतर अभ्यास से ही अच्छे परिणाम आते हैं। सारी समस्याओं का समाधान दस दिन में ही हो जायेगा ऐसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। दस दिन में साधना की रूपरेखा समझ में आती है जिससे की विपश्यना जीवन में उतारने का काम शुरू हो सके। जितना जितना अभ्यास बढ़ेगा, उतना उतना दुखों से छुटकारा मिलता चला जाएगा और उतना उतना साधक परममुक्ति के अंतिम लक्ष्य के करीब चलता जायेगा। दस दिन में ही ऐसे अच्छे परिणाम जरूर आयेंगे जिससे जीवन में प्रत्यक्ष लाभ मिलना शुरू हो जायेगा।
सभी गंभीरतापूर्वक अनुशासन का पालन करने वाले लोगों का विपश्यना शिविर में स्वागत है, जिससे कि वे स्वयं अनुभूति के आधार साधना को परख सके एवं उससे लाभान्वित हो। जो भी गंभीरता से विपश्यना को अजमायेगा वह जीवन में सुख-शांति पाने के लिए एक प्रभावशाली तकनिक प्राप्त कर लेगा।
आप विपश्यना शिविर में प्रवेश के लिए आवेदन कर सकते हैं।

मंगल गीत
हम किसी की ना  कभी हत्या करेंगे /
हमकिसी की ना कभी चोरी करेंगे /
हम न झूठी बात बोलेंगे कभी /

हम न कड़वी बात बोलेंगे कभी /
हम न गन्दी बात बोलेंगे कभी /
हम सदा ही धरम का पालन करेंगे /
हम सदा ही पाप से बचते रहेंगे /
हम सदा ही शील का पालन करेंगे /
हम सदा ही चित्त को वश में करेंगे /
हम सदा ही चित्त को निर्मल करेंगे /
वंदना माता -पिता की नित करेंगे /
वंदना हम गुरुजनों की नित करेंगे /
हम सदा ही धरम का पालन करेंगे /
हम सदा ही पाप से बचते रहेंगे /

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    वेब  साईट : www .vridhamma .org

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गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

वर्तमान क्षण ...!!


वर्तमान क्षण ...!!

                    र्म प्रज्ञा जागृत रखकर ही हम वर्तमान क्षण में जीना सीख सकते हैं / यह क्षण जो प्रत्युत्पन्न क्षण है , जो की अभी -अभी उत्पन्न हुआ है , यही तो हमारे काम का है / जो क्षण बीत गए , उनको हम याद भले कर लें , पर उनमें हम जी नहीं सकते / जो क्षण अभी आये नहीं , उनकी हम कल्पना या कामना भले कर लें , परन्तु उनमें हम जी नहीं सकते / हमारे जीने के लिए तो यही क्षण है जो अभी-अभी उत्पन्न हुआ है / अगर हम इस क्षण में जीते हैं तो ही सही मानें में जीते हैं / अन्यथा तो केवल मात्र जीने का बहाना भर करते हैं , वस्तुतः जीते नहीं / क्योंकि वर्तमान क्षण ही तो यथार्थ है और यथार्थ में जीना ही तो सही जीना है /

                                   हर अगले क्षण से वर्तमान क्षण के जुड़ते चले जाने के कारण वर्तमान क्षण के अस्तित्व का क्रम अनंत हो जाता है / इसीलिए कह सकते हैं की इस अल्पजीवी लघुतम क्षण में जीना आ जाये तो अनंत में जीना आ जाये , अक्षय में जीना आ जाये / इस नन्हे से क्षण में जीने की कला हासिल करने के लिए ही यह विपश्यना साधना है, जिसमें की हम इस क्षण उत्पन्न होने वाली स्थिति को बिना भुत और भविष्य के साथ जोड़े  हुए उसके यथार्थ स्वरूप में देख सकने का अभ्यास करते हैं / वर्तमान में जीने का मतलब यह भी हुआ की - निर्वाण में जीना , मुक्त अवस्था में जीना / भूतकाल की यादें और भविष्य की कामनाएं हमारे वर्तमान को डुबोये रहती है / भूतकाल से पीछा तभी छूटे जब चित्त से सारे कर्म संस्कारों के बीज दूर हो जाएँ , भविष्य से पीछा तभी छूटें जब तृष्णाएँ समाप्त हो जाएँ / विपश्यना साधना इसी लक्ष्य को सामने रखकर हमें जीने की कला सिखाती है /

                               इसी अवस्था को जब भगवान बुद्ध ने पाया तो उनके मुंह से हर्ष के ये उद्गार निकले .. जिन्हें उदान भी  कहा गया .." यह चित्त नितांत संस्कार विहीन हो गया / किसी बांधने वाले  संस्कार का नाम  लेश  नहीं रहा  और साथ ही साथ  तृष्णा का भी पूर्णतया क्षय हो गया " 

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बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

दिल तक जाना हैं ...

दिल तक जाना हैं ...




                             मारी फिल्मों का विशाल संसार,  सागर के किनारे बसा है ... और फिल्म संसार में संगीत का विशाल भंडार है ... अनेकों अनमोल कृतियाँ हैं ... कई अनमोल रचनाएँ तो अप्रतिम हैं ... ऐसे ही एक फिल्म " काजल " का यह भजन ...  " तोरा मन दर्पण कहलायें ..."  एक बार सुनो तो मन सारी थकान भूल तरोताजा हो उठता हैं / मीना कुमारी जी का सदाबहार और सहज अभिनय, आशा जी की झरने- सी कलकल आवाज इस गीत को चार चाँद लगाती है  /

                          सच ही तो हैं ... मन से बड़ा न कोय ... एक उजला मन किस कदर संसार के जन-मानस पर छा सकता हैं ... इस बात के हमारे सामने अनेकों उदाहरण हैं ... और हम हैं कि इस दर्पण पर जमी धुल को साफ करने का कोई यत्न ही नहीं करते और न ही कोई उपाय होगा ... इस बात पर विचार करने तक को तैयार हैं / हमारा मन मयूरा नाच उठता हैं जब किसी की खिल्ली उड़ाते हैं या उड़ाई जाती हैं , हमारा मन मयूर उतना ही उदास हो उठता हैं जब हमारी कोई खिल्ली उड़ाता हैं / 

                         हम सबको एक मसीहा की तलाश रहती है ... इधर-उधर कोई मिला नहीं कि बस उसके भरोसे सारे झगड़े छोड़ संसार की उहापोह से दूर चैन की नींद निकालने में देरी नहीं करते हैं ... मन से कोई बात छुप नहीं सकती ... यह सब समझते हुए भी खुद को ठगने के उपक्रम में ताउम्र लगे रहते हैं  ... कब हम मनरूपी  अनमोल धन की  रक्षा के उपायों में अपने आप को झोकेंगे ... संसारी क्षेत्र में उन्नति के लिए  ईमानदारी, सदाचार , शिष्टाचार , मानवता , करुणा , दान , मन पर नियंत्रण का अभ्यास और मन की सफाई कितनी जरूरी हैं सब जानते हैं ... पर इन पर कितना अविश्वास हैं ...  बेईमानी , अनाचार, भ्रष्टाचार , पशुता  , घृणा , लुट , नशे-पते , और मन पर कालिख पोतने के उपायों की मार्केटिंग जोरों पर हैं /

                      भगवान बुद्ध की वाणी यहाँ हमारा मार्ग बड़ी खूबसूरती से प्रशस्त करती है ....उनके उदगार हैं .... " शत्रु शत्रु की अथवा बैरी बैरी की जितनी हानि करता है, कुमार्ग पर लगा हुआ मन उससे ( कहीं ) अधिक हानि करता है " ....... " जितनी ( भलाई ) न माता पिता कर सकते हैं , न दुसरे भाई -बंधु , उससे ( कहीं ) अधिक  भलाई सन्मार्ग पर लगा हुआ मन करता है "

                     अब इस गीत को प्ले किया हैं तो भाई ६ मिनिट ही तो लगेंगे ... आखिर इस सन्देश को दिल तक जाना हैं ...  इसे पूरा होने दे ... और थोडा सोंचे तो सही ...शायद बात बन जाये ... भलाई का राजमार्ग हाथ लग जाये /
                      
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