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बुधवार, 12 जून 2013

कुछ तो लोग कहेंगे .. !!!


            कुछ लोग सत्य पर बड़ा पत्थर रखकर उसे फिर तलाशते हैं ... और इस प्रयास में किसी दुसरे सत्य से जो की पहले सत्य के नीचे दबा हैं ... उसे ऊपर लाकर सत्य -सत्य के बीच भेद पैदा करके फिर खुद भी परेशां होते हैं ... और नाहक भ्रम पैदा करके फिर मज़े लेते हैं ... इसे सही शब्दों में कहे तो " फुट डालों और राज करो " ....की सड़ी -गली नीति ...


              फिर भी अगर किसी को इस क्रिया से रत्ती भर भी सुख या चैन मिले या मिला हो तो बेशक इसे जारी रखे ... पर हम सब जानते हैं ,  यूँ होता नहीं ....दूसरों को बांटकर,  बांटने वाला कब साबुत रह पाता हैं ... दूसरों को बांटने से पहले हम स्वयं बंट जाते हैं .... 

                सकारात्मकता के विरोधी दोगुनी मेहनत करते हैं ... 90 % मेहनत उनकी निंदा में जाती हैं ... 10 % वे खुद की तर्ज पर विकसित सकारात्मकता को जमीं पर उतरने में खर्च करते हैं ... और इस उहापोह में मात्र 5-6 % ही नतीजे उनके पक्ष में आते हैं ... और वह भी जब उनके भाग में कोई सद्पुरुष किस्मत से उनके साथ जुड़ता हैं तो ... या जुड़ा रह जाता है तो ... 

             वैसे नकारात्मकता से कभी - कभी कोई सद्पुरुष तो जुड़ते हैं या जुड़े है  ... पर बंजर जमीं उनकी उत्पादकता को जज्ब कर जाती हैं ....66 / 6 साल मिलना इसका उत्कृष्ट और उजाला नमूना हैं ... और उस गोत्र का एक मात्र सद्पुरुष शिखर तक पहुंचा वह भी अपनी भलमनसाहत के बल पर ... फिर भी नकारात्मकता इतनी सर पर हावी हो जाती है की बार-बार के स्पष्ट नतीजों पर भी उसका " शक " करना जारी रहता हैं ... जैसे जुआरी ... बखूबी जनता है की वह जुआ खेलकर धनवान नहीं बन सकता ... या आज तक जुआ खेलकर कोई धनवान नहीं बना ... फिर भी तेज गति नतीजों की लालच में वह कब मानता हैं ... नहीं मानता ना .. ?

               इसी क्रम में लाल बहादुर हों , सरदार पटेल हों उनके आदर्श तो म. गांधीजी ही रहे अब किसी के आदर्श और उसमें फर्क के बीज बोना यह दर्शाता है की जो उसके आदर्शों का ही क़त्ल कर सकता हैं वह उसका भी कब कर बैठे यह सन्देश तो जाता ही हैं ना ... और यहीं आकर नकारात्मकता की अतुलनीय  मेहनत हमेशा बेकार जाती हैं ... हाथ कुछ नहीं मिलता ... लोग यूँ ही नहीं बंजर भूमि को छोड़ देते हैं ... वर्ना जमीं तो जमीं हैं ... 

              जब हम विकार ग्रस्त होते हैं तो दूसरों की विकारहीनता को महसूस नहीं कर सकते .... एक और उदहारण से समझे .... लोहा- लोहा होता हैं ... भारत का हो या अमेरिका का ... हम  जानते ही है ,  अमेरिका या इतर यूरोपीय देश धातुओं की शुद्धता के लाभ लेना आज से नहीं सदियों से जानते हैं ...... और आज से नहीं सदियों से वह इस तकनीक को अपना कर अपना सामान बनाते हैं और विश्व को बेंचते हैं ... जबकि भारत के पास लोहा बहुत होकर भी वह कुछ खास नहीं कर पाता हैं ... शुद्दता मायने रखती हैं ... भारत ने मन की शुद्धता और उसके प्रयोगों को अपना लक्ष्य बनाया था ... म. गांधीजी के पास भी यह तकनीक थी ... वे भी इस राह के राही थे ... और तभी उन्हें स्थायी और उजली हस्ती के रूप में आज भारत से ज्यादा विश्व जानता हैं ...