रविवार, 13 मार्च 2016

अहिंसक किसे कहे ?


             अहिंसक वो जो मन में किसी के प्रति भी रंच मात्र द्वेष भाव को जगने ना दें । क्योंकि मन में द्वेष जगने के उपरांत ही उस द्वेष भाव का अगला कर्म बोली पर उतरता है । इंसान उस द्वेष की चपेट में आकर गलत बोल बोल जाता हैं । यही वाणी पर प्रकट हुआ द्वेष फिर आगे शरीर से पर प्रकट होकर किसी के प्रति हिंसक प्रतिक्रिया करता हैं ।

                         कुदरत हमारे शारीरिक कर्म के होने तक हमारा इन्तजार नही करती वो हमें हमारे मानसिक कर्म के करते ही फल देना प्रारम्भ कर देती हैं ।

                       किसी के प्रति रंच मात्र भी द्वेष मन में जगते ही कुदरत हमारे भीतर स्वतः व्याकुलता बढ़ा देती है , व्याकुलता बढ़ते ही शरीर की स्वाभाविकता खो जाती है , वो गर्म हो उठता है । गर्म शरीर फिर पानी की कमी महसूस करता हैं ।

                       आपने देखा ही होगा किसी किसी को जब वो द्वेष दूषित होकर बोलता है तो बीच बीच में अकारण पानी पिता हैं । इससे ही यह मुहावरा बना " पानी पी पी कर कोसना " ।

                       मितरो जैसे एक कम्प्यूटर के प्रोसेसर को गर्मी नुकसान पहुँचाती है ठीक वैसे ही द्वेष दूषित मन से उतपन्न गर्मी चित्त को बड़ा नुकसान पहुँचाती हैं ।

                          इसलिए जब किसी ने गांधीजी से पूछ की आप हिंसा के खिलाफ क्यों है तो वे बोले मैं उस गर्मी के खिलाफ हूँ जो हिंसा करते वक्त हमें अतुलनीय नुकसान पहुँचाती हैं । किसी के प्रति हिंसा करते हुए अगर मन शांत रह सके तो चाहे जितनी हिंसा करो कोई हर्ज नही । जो अपना भला नही कर सकता वो औरों का भला भला कैसे कर पायेगा ।

                        हम स्पष्ट देखते है म. गांधी ने मन वचन कर्म से किसी से भी नफरत नही की । वे हमेशा बुराई की प्रवृत्ति से नफरत करते थे । बुरे व्यक्ति से नही     
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सोमवार, 7 मार्च 2016

" माँ रोती है जब उसके लाल झगड़ते हैं "

                   म सभी ने माँ देखी हैं , माँ क्या करती है अपनी सन्तानों पर ममता उड़ेलती हैं , करुणा बरसाती है जो एक अमूल्य खाद होता है जिसके सहारे हम बढ़े होते हैं । और क्या करती है माँ ? वह देखती है की किसी कारण उसकी कोई सन्तान कमजोर है तो उसके लिए सबके भाग से बंटने वाली मिठाई में एक टुकड़ा अतिरिक्त रखती है उसे चुपचाप अलग से देती है । उस कमजोर पर एहसान करने के लिए नही बस उसे अधिक अपनापन मिले बस इसलिए । और उस माँ का दुर्भाग्य होता है जब उसकी सन्ताने उसी अतिरिक्त प्रेम के लिए आपस में झगड़ने लगे ।

एक कुशल माली को देखा होगा वो नन्हे बिरुओं को अधिक खाद , पानी और देखभाल देता है बनिश्ब्त बड़े पेड़ों के ।

                 सबको अपने भाग से जितना उसने बोया होता है उतना ही और वैसा ही मिलता हैं , ये शास्वत नियम है । सनातन रीत हैं । इसे सब मानते हैं । फिर हम किसी को अतिरिक्त क्या दे सकते हैं ? हम किसी को और कुछ नही दे सकते हैं सिवा सद्भवना के , करुणा मयी प्रेम के । इसके अलावा और सब तो उसके भाग का उसे कुदरत खुद ही दे देती है ।

                 अतः आओ देश को माँ समझते है तो आपस में सम्प्रदाय, जाति पाती , उंच नीच के संकीर्ण भेदों से ऊपर उठें , सब पर एहसान करने के लिए नही अपने आप पर एहसान करने के लिए । क्योंकि संकीर्णता आपके अपने विकास में बड़ी बाधा है ये आप समझते नही ।

               हो सके तो भगवान राम के जीवन से प्रेरणा लें की वे छोटे मोटे नही एक राज के अनीति पूर्ण बंटवारे पर भी आपस में झगड़े नही और ना ही अपनी माँ को रंच मात्र कोसा । नही तो पूरी प्रजा उनके साथ थी कर देते बगावत ।

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बुधवार, 2 मार्च 2016

" अपराध से घृणा करो, अपराधी से नही "


मितरो, जब म. गांधीजी ने पहले पहल भारत में अन्याय के खिलाफ लढाई शुरू की तो वो अंग्रेजों से लड़ना है ये सोचकर नही की । उनकी सोच यही रही की अन्याय से लड़ना हैं ।

चंपारण के एक मामूली किसान के आग्रह पर वे चंपारण गए वहां जाकर जब उन्होने भी पाया की कुछ अत्याचार जरूर हुए हैं अंग्रेजों द्वारा तो वे उनकी लढाई को राजी हो गए ।

आजकल के नेता होते तो क्या कहते , यही कहते किसी सभा में की अन्याय का बदला अन्याय हैं । अंग्रेजो का अन्याय देखकर मेरा खून ख़ौल उठता हैं । मारो कूटो इत्यादि इत्यादि । और शुरू हो जाती मारा मारी । और आपस में लड़वाकर फिर वहां से चुपचाप निकल लेते । फिर भी पिसते कौन ? आम जनता ही ना । और कुछ उल्टा सीधा हो जाता तो कह देते मेरी बात को लोगों ने गलत समझ लिया ।

पर मितरो अगर ऐसा होता तो गांधी फिर महात्मा नही कहलाते । वहां सबसे पहले उन्होने अंग्रेजो के खिलाफ अर्जियां लिखवा कर अदालत को सौपने का तय किया । और ये सुनिश्चित किया की अर्जियों में वर्णित जुल्मो सितम 100 % सच हो । जरा भी उसमें झूठ ना हो । नही तो और वकील जो उनकी सहाय के लिए थे इस काम में माहिर थे की बात को बढ़ाचढ़ा कर लिखते इस लालच में की जरा जोरदार शिकायत होगी तो तेज एक्शन होगी । पर नही गांधीजी स्वयं उन अर्जियों को पढ़ते थे और उनमें कांट छांट करके उन्हें सत्य के नजदीक लाते । उनकी यह बात देखकर कुछ वकील नाराज भी हुए उनका तर्क होता था की सीधी ऊँगली से घी नही निकलता । पर गांधी अडिग रहे । और अर्जियों को सही करते रहे । इस काम में वे रात दिन अथक लगे रहे ।

और एक महत्व का पर जरुरी काम किया बापू ने क्योंकि वे बड़े सजग रहते थे और प्रचार की तो उनमें रंच मात्र भी कामना नही रहती थी और वे जानते थे प्रेस को तभी मज़ा आता है जब सनसनी फैले अतः गांधी जी ने प्रेस को इस आंदोलन से दूर रखा ! उन्हें डर था प्रेस रिपोर्टिंग से मामला और बिगड़ेगा, अंग्रेज चिढ जायेगें !

उधर अंग्रेज इस इन्तजार में थे की अब तो उनकी बहुत शिकायत होगी और बढ़ाचढ़ा कर होगी । पर जब अदालत में अर्जियां गयी तो एकदम सादा थी उनमें मिर्च मसाला नही था । ना अंग्रेजों के लिए कोई बुरा भला सम्बोधन । भाषा अत्यंत संयत शांत और कोई भड़काऊ बात नही । और इस तरह गांधीजी ने अपना पहला रण जीता चंपारण में । अदालत ने न्याय दिया । जबकि अदालत में अंग्रेजो का वर्चस्व था । कानून उनके हाथ था ।

क्यों हुआ ये चमत्कार ? ये सब हुआ इसलिए की अंग्रेजो से गांधीजी ने व्यक्तिगत दुश्मनी कहीं जाहिर नही की । उन्हें तो बस अपराध से घृणा करना आता था । अपराधी से नही ।

तो आओ ऐसे विचारों से बचे जो हमें अपराधी से घृणा करना सिखाते हैं और हमें उकसा कर कानून अपने हाथ में लेने को ललचाते हैं । फिर चाहे वो सम्प्रदाय के नाम पर हो, या और किसी नाम पर ही क्यों ना हो ।