शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

...राम जाने कब !!



           हमारा देश अतियों का देश हैं ... बुराई का विरोध नहीं होगा ... तो फिर नहीं होगा अतियों तक खिचे चले जायेंगे हर बात को लेकर ... बुराई का विरोध होगा तो फिर आननफानन में इस काम को भी अतियों तक खींचे ले जायेंगे ... हर किसी बात पर दूसरों पर उंगलियाँ उठाना हो तो , कोसना हो तो वह भी अतियों तक .. 

                  नियम तोडना हो तो फिर वही अतियों तक ... नियम बनाना हो तो भी फिर अतियों तक ... अपने लिए सजाएं मांगना हो तो वह भी अतियों तक ... अपनी लालच के ऊपर हमें काबू पाना हो तो उसके लिए भी सख्त से सख्त जन लोकपाल ... 

                   भाई आखिर समझे... हम आपस में एक दुसरे को सुधारने के अंतहीन सिलसिले को स्वयं अपने सुधार के रस्ते के इलावा और किसी तरह ख़तम नहीं कर सकते ...  

                                अब महिलाओं के लिए परदे की बात , पहनावे की बात उठेगी तो फिर उसे अतियों तक ले ही जायेंगे ... कभी खुलेपन के नाम पर , कभी मानवाधिकार , कभी आक्रोश , कभी दमन , कभी शांतिपूर्ण प्रदर्शन , कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ही नाम पर  ... हर बात में लगभग हम संतुलन खो ही देते हैं ... 

                                कभी कभी अंदेशों के संदेशे हमारा प्यारा TV मिडिया  इस तरह देता है की समाचारों को वह भविष्य वाणियों  की शकल देकर बातों को बातों  बातों में  यूँ गोल गोल घुमाता है की सर चकरघिन्नी हो जाएँ  ... 

                               हम कहीं तो अपनी जिम्मेवारी भी समझे ...  कभी तो स्वयं पर नियंत्रण की अहमियत को स्वीकारें ... कभी तो इस दिशा में विचारे ...  

                            यूँ ही यह बात दिल में आज आ गयी की संतुलित व्यवहार कब हमारे जीवन का अंग  बनेगा ...राम जाने 

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

नए आन्दोलनों के बुजदिल नेतृत्व ...




                 क बात यह महसूस हुई की पिछले दिनों हुई कथित शांतिपूर्ण आन्दोलन को स्वस्फूर्त कहा गया ... जो की असंभव हैं ... हजारों लोग नियत समय पर , तय नारों के साथ ... एक से सामाजिक या आर्थिक परिवेश से  ... एक सी सोच वाले ...  एक से विरोध के तरीकों और वो भी केवल एक तय ग्रुप को निशाना बनाने वाले ... जरा पचता नहीं ... और फिर अपना मिडिया ... जो अचानक इतना सक्रीय और न्यूज़ के साथ अपने एक तरफा और नाजायज व्युव्स को बड़ी खूबसूरती से नेतृत्व की शक्ल देता हुआ नए अवतार में था ... बिना अदृश्य नेतृत्व के हुआ होगा ... जरा पचता नहीं !!  ... सारी  भीड़ किसी अदृश्य मगर बुजदिल नेतृत्व की शिकार नहीं थी ... बिलकुल जमता नहीं ... !!!

                                    गांधीजी ने भी आन्दोलन किया ... और लम्बे समय तक किया ... बिना मिडिया की किसी विशेष मदद के आग्रह के अपने बलबूते किया ... पर कभी भीड़ को उकसाया नहीं ... कभी पीछे नहीं रहे ...हमेशा  सामने रहकर ... जनता के बीच ... सारी  स्थितियों का खुद सामना करते हुए ... खुद जेल जाते हुए .. खुद लाठियां  खाते हुए ... जिसका विरोध कर रहे हैं उसके साथ अतुल्य शिष्टता का व्यवहार करते हुए .. अहिंसक रहकर ... शिष्ट और अनुत्तेजक नारों के साथ ... अपनी कथनी और करनी की गजब समानता के साथ किया ... तभी अंग्रेज सरकार भी अपने पास हिंसा के अकूत संसाधन होते हुए भी लाचार होती गयी ...बंदूकों के साथ  निहात्तों से कैसे  लड़ा  जाया ... इस बात की न तो उनके पास कोई समझ थी न ही तैय्यारी ... डराकर तो  वे सबको कंट्रोल करना जानते थे ... पर जिन्हें अभय का साथ हो उन्हें कैसे भयभीत किया जाएँ उनकी पहुँच और समझ से दूर की बात थी ... वे असहाय साबित हो रहे थे ... गाँधी जी जीतते जा रहे थे ... और सबसे बड़ी बात अंग्रेज भी इस लढाई से हार जरुर रहे थे ...पर नए और इंसानियत के अजूबे हथियार " अहिंसा " से विस्मित , चकित भी थे ... और इस हथियार की अचूक मारक क्षमता से उतने ही प्रभावित भी ..

                                  आजकल के इन आन्दोलनों को अहिंसक नाम दिया जाता हैं ... शांतिपूर्ण प्रदर्शन नाम दिया जाता हैं ... फिर भी इनके अदृश्य नेतृत्व छुपते क्यों हैं ... क्योंकि उनके मंसुबें भले नहीं होते वे बुजदिल ही हैं ... केवल देश में असंतोष फैलाना ... और स्थितयां बिघाड़ना ही उनका मकसद होता हैं ...और फिर कोई अगर बात करके समस्या के हल तक पहुँचाने के लिए बात करे भी तो किससे ... कोई तो सामने नहीं होता ... और भीड़ को पीछे से मिडिया के द्वारा लगातार अंदेशों के संदेशे दिए जाते हैं ... सारा कुछ भगवान् भरोसे ..

                               इससे होता क्या हैं ... नेतृत्व विहीन जोशीला युवा अपना कीमती समय और कभी कभी अपना कीमती भविष्य दांव पर लगा बैठते हैं ... किसी की रोटी सिक जाती हैं ...कोई बर्बाद हो जाता हैं ... और इन सबके बीच अदृश्य नेतृत्व और बुजदिल होता जाता हैं ... न कुछ मिलता,  ना मिलाता ... ग्लास  फोड़े चार रूपये अलग ..

                                  हमारे युवा अपनी सोच खुद विकसित करें ... अपने मुंह अपनी तारीफ करने वाले ... थोड़े से नैतिक बल ... और अपने त्याग का बखान करने वाले ... दूसरों को निरा निकम्मा और खुद को महान  देशभक्त कहने वाले ... लगतार दूसरों की तरफ उंगली  उठाने वाले ... अदुश्य नेतृत्व को पहचाने ... तभी संभव हैं देश में शांति और उन्नति हो , सौजन्यता हो  ... केवल कोर विकास नहीं विकास के साथ दिलों में प्रकाश भी हो ...

                                  एक बात और अभी के आन्दोलनों में अदृश्य नेतृत्व  किसी बुरे मनसूबे से काम कर रहा था इसकी इस बात से भी पुष्ठी होती हैं की हिंसा की शुरुआत होती दिखाई देने पर भी ... कभी उसकी निंदा या उसकी रोकथाम हो इस हेतु कोई आगे नहीं आया ... जबकि गांधीजी ने अपने आन्दोलनों में थोड़ी सी हिंसा को भी बर्दास्त नहीं किया और बिना इसकी परवाह किये की इतना सफल आन्दोलन फिर खड़ा करना कितना मुश्किल होगा अपने कदन बिना खौफ पीछे कर लिए ... वो केवल इसलिए की अहिंसा को वे केवल कथनी नहीं करनी का विषय मानते थे ... भला हो !!

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

" हम सुधारेंगे ...






हमारा देश एक सच्चा गणतंत्र है ... हर बार , हर विपत्ति से वो नया रास्ता ढूंढता है .. हर बार वो लड़खड़ाकर फिर चलने लगता है .. भली सोच वाले लोग हर पार्टी. हर दल में है ...गांधीजी ने आजीवन व्यवस्था का सम्मान करते रहे थे ... वे धीरज और विवेक से काम लेते थे ... किसी भी स्थिति में शार्टकट में वे भरोसा नहीं रखते थे ... अपराध से तो वे घृणा कतरते थे पर अपराधी के प्रति करुणामयी भाव रखकर उसे स्वयं सुधार की ओर प्रेरित और उत्साहित करते थे ... आज कल तो दूसरों पर ऊँगली उठाना फैशन बन गया है .... हम सुधरेंगे जग सुधरेगा की जगह बस " हम सुधारेंगे चल पड़ा है " .... 

आजकल आन्दोलनों का फैशन - सा चल पड़ा हैं ... नकली आन्दोलनों से युवा जुड़ता जा रहा हैं ... क्योंकि उसके मन में भी देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा भरा हुआ हैं ... पर उसका दुर्भाग्य की वह किसी भले और परिपक्व नेतृत्व की जगह अब तक केवल मुंह-फट और अधीर और बदजुबान और गुस्सैल नेतृत्व के हाथों ही खेल रहा हैं ... इस तरह कानून को अपने हाथों लेने और व्यवस्था भंग करने के कारण हमारे युवा अकारण ही अपना भविष्य दांव पर लगा देते हैं ....


बुद्ध, महावीर , कबीर और नानक की यह भूमि सारी दुनिया को उजाला देती रही है ...विश्वास रहे .. फिर जन- जन का मन अधिनायक बन कर उभरेगा ... फिर लोग समझेंगे की उनकी भलाई किस बात में है .. भला हो

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

आपकी याद आती रही ...!!




स्मिता पाटिल जी की अदाकारी बेमिसाल थी ... क्योंकि उनका अभिनय और लुक एक आम भारतीय नारी के बहुत करीब था ... उनकी अभिनीत एक फिल्म " गमन " का एक खुबसूरत गीत , छाया गांगुली जी की आवाज में " आपकी याद आती रही रात भर .... " जब भी सुनता हूँ यूँ लगता हैं मन अँधेरी सुनसान सी गलियों के सन्नाटे में तैर रहा हैं ... और हर दरवाजे , हर मोड़ से यह गीत रह रहकर झांक रहा हैं ... 



             यादों का आना हो तो सबसे ज्यादा आँखों पर बीतती हैं ... कभी लगता हैं यादें दिये की लौ की थरथराहट पर , आँखें  की हर हरकत सवार हैं ... पर यादें तो होती हैं सुनी आँखों का तारा , जो चाँद की खोज में सारे  आकाश में उसे खोजती रहती हैं ... और आकाश बस टुकुर-टुकुर निहारता ही जाता  हैं ... 

          आसपास कोई आवाज नहीं भी होती फिर भी कान अपना काम बखूबी करते रहते हैं ... सुनते रहते हैं अनुसुनी आवाजों को ... आसपास कोई गंघ हो या ना हो , कमबख्त यादें पूरी शिद्दत से कोई परिचित सी मिठास भरी महक फिजाओं में बिखेर ही देती हैं ... तभी चश्में -नम हो जाएँ ... तो समझे यादें के आने का बखत हैं ... अब सुहानी यादों के झरोखों से सर्द हवाओं की तेजी बढे ... आओ चांदनी को जगमगाने दिया जाएँ ... 

             1980 का दौर फ़िल्मी दुनियां में सामानांतर फिल्मों के प्रयोगों का युग था ... जब आम प्रचलित मसाला फिल्मो की जगह इंसानियत से जुड़े किसी मसलें को लेकर कहानियों का जाल कुछ इस तरह बुन जाता था कि  फ़िल्में आम इन्सान के जीवन की झांकी विशेष गति से कुछ यूँ बयां करती थी की दर्शक और परदे के बीच  दुरी घट  कर बस हाथों से छूलो इतनी भर रह जाती थी ... कहानियां मन को हौले से छूकर निकल जाती थी ... फिल्म " गमन " एक मुम्बईया टेक्सी चालक की पीड़ा और जद्दोजहद का बड़ा संवेदन-शील चित्रण हैं ... फ़िलहाल सुने यह खुबसूरत गीत ... भला हो !!

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

क्योंकि हर एक भारतीय जरुरी होता हैं ...!!!

...क्योंकि हर एक भारतीय जरुरी होता हैं ....कानून और पुलिस अगर जीरो टालरेंस के स्तर पर काम करें तो क्या जुर्म ख़तम हो जायेंगे ... 

नहीं ....कभी नहीं ..??

अगर ऐसा होता तो दुनियां में जहाँ भी इस तरह की स्थितियां हैं ... वहां अपराध जीरो प्रतिशत हो गए होते ...

... नहीं होते ना ?

हाँ ...  हम सभी गलतियाँ क्यूँ करते हैं ... इस बात पर विचार आरम्भ करें ... और फिर अगर हमें इस बात का उत्तर मिल जाएँ ... और गलतियाँ करने के कारण का निवारण करने का रास्ता हाथ लगे ... तो कुछ बात जरुर बन जाएगी ... 

सच्चे  अर्थों में भारत " सोने की चिड़ियाँ " उसी दिन से बनना आरम्भ हो जायेगा ... और इस दिशा में एक-एक भारतीय का योगदान जरुरी हैं 

......क्योंकि हर एक भारतीय जरुरी होता हैं .


रविवार, 16 दिसंबर 2012

हम तो दिल से सलाम करते हैं ..




                                            देखो न ... सलाम करने से ज्यादा महत्त्व की बात यह हुई कि हम कैसे सलाम करते हैं ... सौ -सौ सलाम भी,  दिल से किये एक सलाम की बराबरी  नहीं कर सकते  ... सलाम करने की या किसी की सलामती की चाह दिल में किस कदर हैं ... उसी के अनुरूप सलाम का असर बदल जाता हैं ... जब-जब दिल में किसी की सलामती के भाव कमजोर हों ... और सलाम करना मजबूरी हो .. तो फिर शरीर को बड़ी मेहनत से सलाम को असरदार बनाना पड़ता हैं ... और यूँ करते हुए अकसर शरीर अकड़ने लगता हैं  ...
                                         
                                            इस तरह अकड़ के किया जाने वाला सलाम , सलाम करने वाले  के लिए वो शुभ फल नहीं ला पाता .. जिनकी उम्मीद की जाती हैं ...  अब कोई सलाम के उलटे असर को कितना ही कोसे बड़ा फर्क नहीं पड़ता ... खैर ऐसी  हालत में जो हुआ सो हुआ आगे सलाम दिल से ही करें वर्ना पासा पलटने में देर नहीं लगती ... और इस उहापोह में हमारा एक सलाम भी तो जाया हो जाता हैं ।

                                             सलाम नजर से करें, झुक - झुक कर करें, बार - बार करें , ऐसे  करें या वैसे करें ...  बस दिल से उठने वाली तरंगो पर ध्यान रहे ... मन के किसी कोने में जरा-सी भी अड़चन दिखे ... रंज दिखे ... तनाव -दुखाव दिखे ... दुर्भाव दिखे या दिखे मामूली - सी जलन ... तत्क्षण तनिक ठहर जाएँ ... और जिसे सलाम करना है ... उसके व्यक्तित्व पर विचार करें ... उसके किये किसी पूर्व उपकार पर नजर डाले ... उसके किसी सद्गुण पर ध्यान दे ... उनसे साथ रिश्तों की उर्जा को टटोले  ... यूँ करते ही मन सुगम हो जायेगा ... सरल होकर फिर ... सद्भाव से भर-भर उठेगा ... मन ही मन जिसे सलाम करने जा रहे हैं उसे सलाम करने से पहले यह सुनिश्चित कर लें कि .... मन में अब सुगमता हैं ... उत्साह हैं , सुख हैं , सद्भाव हैं , शीतलता हैं ... अब बस गर्मजोशी से मन में सद्भाव जगाते हुए ... सलाम करें ... और सलाम के नतीजे के बारें में सलाम के असर होने तक भूल जाएँ ...  और अनासक्त भाव ओढ़े अपने काम से काम और राम से राम रखे ... अबके असर होकर रहेगा ...

                                             देखना जवाब में सलाम फिर सलाम की शक्ल में ही लौटेगा ... और सद्भाव के भाव वातावरण में ठीक वैसे ही और बढ़-चढ़  कर तैर जायेंगे जैसे हमने सलाम करते समय मन में धारण किये थे। ........... भला हो !!!

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

" आधार " हर नागरिक का अधिकार ....

               भारतीय गणतंत्र अपनी कई विशेषताओं के लिए जाना जाता हैं ... उनमें सबसे बड़ी खूबी हैं ... अनेक मत मतान्तर , अनेकों सम्प्रदायों , पन्थो और मान्यताओं , जाति - बिरादरी , उंच - नीच की तमाम विषमताओं के बीच सबका मिलजुलकर रहना और केवल साथ रहना ही नहीं ... साथ साथ भौतिक और आध्यात्मिक विकास की राह पर भी चलते जाना  ... किसी आश्चर्य से कम नहीं ... परन्तु सब सम्भव हुआ हैं , भारत के पुनः उदय में छुपे किसी अति शुभ की उम्मीद के रहते ... भारतीय गणतंत्र दुनिया को की फिर उसी तरह रहनुमाई करने के मंगल पथ पर अग्रसर हो रहा हैं, जिस तरह पूर्व में वह विश्वगुरु के पद पर आसीन था  ... इस लाजवाब सम्भावना को संभव करने के लिए ही देश तेजी से करवटें बदल रहा हैं ... इस अति महत्त्व के तथ्य को नजरअंदाज कर हम भारतीय गणतंत्र की भूमिका का सही आकलन नहीं कर सकते हैं ।

                       उस शुभ की आहट  ... उस मंगल की अनुगूँज हमें हमारे राष्ट्र गीत में बखूबी सुनाई देती ही हैं ... गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगौर का कोमल और अतिसंवेदनशील मन उस शुभ की , उस मंगल की आहट को बखूबी सुन और देख पा रहा है   ... तभी वे कह पड़ते हैं ... " तव शुभ नाम जागे ... तव शुभ आशीष मागे ... गाहे  तव जय गाथा ... जन-गण-मंगलदायक जय हे  ... "

                      अब तक इस शुभ की आगवानी में एक-एक कर कई कड़ियाँ जुड़ती गयी है ... सबसे पहले हमारे गणतंत्र का संविधान कुछ यूँ बना की उसमें सबको समानता के स्तर पर लाकर हर तरह की अभिव्यक्ति और मान्यता को मानने की भरपूर आज़ादी देकर इंसानियत के कुदरती विकास को मानो  पंख ही लगा दिए  ... आज तमाम विश्व हमारी इस अनेकता में एकता की अजब-गजब रिवायत और इसकी भीनी-भीनी खुशबु से सम्मोहित है .. और बड़ी आशा से हमारी ओर टकटकी लगाये देख रहा हैं ... 

                      अब एक नया, अनूठा और अति महत्त्व का आधार जुड़ रहा हैं ... जिससे हमारे गणतंत्र की इमारत आसमानी बुलंदियों को छूने की कोशिशों में कामयाबी की राह पर सरपट दौड़ पड़ने वाली हैं ... हाँ वही " विशिष्ठ पहचान संख्या " Unique Identification Number ) ... जो देश के हर नागरिक को मिलने वाली हैं ... इस योजना का नामकरण ही उसमें सन्निहित किसी बड़े मंगल के उदय का " आधार " होने का सहज ही इशारा कर देता हैं ...  हर नागरिक की विशिष्ठ पहचान संख्या से आमजन के लिए हितकारी कई योजनाओं को जमीं पर उतारने में अभूतपूर्व मदद मिलेगी और उनका वास्तविक और तुरंत लाभ आमजन तक पहुंचेगा ... इससे आमजन के लिए जरुरी हितकारी योजनाओं का जमीं पर उतरना सुगम और सटीक हो जाने वाला है ... 

                    आमजन की भागीदारी विकास की राह में अधिक कारगर तरीकें से सामने आने वाली हैं ... दीमक की भांति हमारी अर्थव्यवस्था को खाने वाला आर्थिक भ्रष्टाचार पर  " विशिष्ठ पहचान संख्या " योजना के पूरी तरह लागू होने और उसके जमीं पर उतरने के बाद धीरे- धीरे सहज ठंग से बिना किसी हो हल्ले के बहुत कुछ नियंत्रित हो जाने वाला हैं ... तमाम बैंक खाते ... तमाम खरीद फरोख्त ... तमाम लेनदेन ... अब कोई छुपा हुआ व्यवहार नहीं रह जाने वाला हैं ...  " विशिष्ठ पहचान संख्या " के जरिये हर उस लेनदेन पर पारदर्शिता रहेगी ... हर किसी आर्थिक लेनदेन पर नजर रहेगी ... जिन पर अब तक गोपनीयता का आवरण होने के कारण तमाम तरह अनियमितताएं होती रही हैं । 

                    " विशिष्ठ पहचान संख्या " इंसानों की कई अन्य गतिविधियों और हलचल पर भी नजर रख सकेगा ... इससे अपराधियों की पहचान और उनकी कारगुजारियों पर पैनी नजर रखना भी संभव हो सकेगा ... गुमशुदा व्यक्तियों की खोज और पहचान करना अधिक आसान बन जायेगा ... दुनिया के बहुसंख्य अपराध पहचान छुपाकर ही किये जाते हैं ... अब " विशिष्ठ पहचान संख्या " की बूते पहचान छुपाना नामुमकिन सा हो जाने वाला हैं ... आतंकवाद जैसी कायरान हरकतें भी पहचान छुपा सकने के चलते ही फलती फूलती हैं ... अब " विशिष्ठ पहचान संख्या " के अस्तित्व में आने से इन पर भी लगाम लगेगी ।

                     " विशिष्ठ पहचान संख्या " के जरिये समाज कल्याण के जरुरी क्षेत्रों की पहचान और उसके निराकरण में लगने वाले संसाधनों का सटीक आकलन संभव हो जायेगा ... जिससे वर्तमान में गलत आकलन और गैरजरूरी मदों में धन की बर्बादी पर एक हद तक कमी आकर पैसे का अधिकतम सदुपयोग संभव हो सकेगा।


                    हम वसुदैव -कुटुम्बकम की अवधारणा की बड़ी पैरवी करते हैं ... उस पर हमें बड़ा अभिमान भी हैं ही ... परन्तु सारा विश्व एक कुटुंब हो उससे पहले पुनर्जन्म की सिद्धांत के चलते यह हो ही रहा है ... अब सारे  ब्रह्माण्ड से पुण्यशाली जीव हमारी इस पावन धरा पर जन्म लेने के अपने शुभ संकल्पों के चलते जन्म लेते जा रहे हैं ... और उनका इस धरा पर जन्म किस माँ की कोख से हो यह उनके भी वश की बात नहीं ... 

                    मतलब साफ हैं ... वे हर कहीं ... हर सम्प्रदाय में , हर जाति -बिरादरी , हर प्रदेश में यहाँ वहां सब जगह बिखर जाने वाले हैं ... अब उन सम्यक जीवों के लिए इस पावन धरा पर माहौल बने यही हमारा कर्तव्य है और यही करना हमारा हेतु भी ... जब ऐसे पुण्यशाली जीवों का पुनर्जन्म के अचूक सिद्धांत के तहत सब जगह बिखरना तय ही हैं तो ...ऐसे  में कब तक भला टिक पायेगा कट्टरवाद , जातिगत संकीर्णता , मानव मानव में भेदभाव , सांप्रदायिक वैमनस्य ...  और यकीं माने ... सही मायनों में इस पावन धरा पर विश्व एक कुटुंब बनकर आकार ले रहा हैं ... यही होने जा रहा हैं ... और इसी की तैय्यारियाँ जोर-शोर से जारी हैं ... " विशिष्ठ पहचान संख्या " की अनूठी योजना इस का एक बड़ा और सटीक आधार बन आकर ले रहा हैं



                                जबकि सुधार के ये सारे प्रयत्न जो की निहायत जरुरी हैं ...फिर भी जब तक मानव मन से लालच , वासना , द्वेष , हिंसा इत्यादि विकारों के पूर्व कर्मों के संस्कारों का विशाल जखीरा खतम होने का कोई सम्यक मार्ग हाथ नहीं लगेगा ... तब तक पूर्व कर्मों के फलों का वे चाहे अच्छे हों या बुरे के उदय का समय आता ही रहेगा ... और मानवता अच्छे कर्मों के फलों के उदय के समय का सदुपयोग न कर पाने के कारण  या बुरे फलों के उदय के लिए दूसरों को जिम्मेवार ठहराने की आजकल फ़ैल रही नयी बुरी आदत के चलते ... जब तब दुखी - संतापित होती ही रहेगी ... 

                              यही पीड़ा बुद्ध की भी थी ... तभी उन्हौने अपने अथक प्रयासों से सम्यक मार्ग खोज निकाला था ... और मानवता के इतिहास में अभूतपूर्व प्रकाश  के उदय का कारण बनें थे  आज भी बहुत प्रबल संभावनाएं हैं ... इंसानियत फिर एक बार अपनी बुलंदियों को छूने वाली हैं ... यह उसी की तैय्यारियाँ हैं ...  
                     भला हो !!!

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

तुम याद आयें ...



                     वा कभी ठंडी तो कभी गर्म , कभी तेज तो कभी मध्यम होकर बहती ही रहती हैं ... पर कभी - कभी इन हवाओं के साथ यादें भी बहकर आ जाती हैं ... और केवल यादें ही नहीं कोई भुलाबिसरा एहसास बहता हुआ  मन के किनारों से टकराने लगता हैं ...और मन फिर उसी तरह संवेदनशील हो उठता हैं जिस तरह पहले कभी हुआ था ... और यादों के जखीरे से भूली बिसरी तरंगे उठ - उठ कर तेज होती जाती हैं ...

                       वही बीते नज़ारे, वही बीते वाकये फिर उसी लय में एक - एक कर जागी आखों के सामने सपनों की तरह गुजरने लगते हैं ... गुजरते जाते हैं ...


                         एक-एक लम्हा और अधिक उर्जा से लबरेज बस नजदीक ही कहीं छुपा हुआ सा महसूस होता हैं ... जब मन अपनी सारी ताकत लगाकर भी उस भूले एहसास की पुनरावृत्ति होते नहीं देखता तो हलकी सी निराशा आना लाज़मी हैं ... जिंदगी की राहों में पुराने मक़ाम कभी लौट कर नहीं आते ... बस हर नए मक़ाम पर हर एहसास को जब-जब हम बिना छुए हुए से गुजरते जाएँ तो सफ़र एक हद तक आसान  हो जाता हैं ... 

                       लो फिर चलने लगी ठंडी हवा ... आओ उसके छूने को अनछुए सा गुजर जाने दें ... हाथों से छूकर किसी एहसास को नाम देना उलझन का और बढ़ते जाने का सबब बनता जाता हैं ... हवाओं पर , घटाओं पर , बादल  बिजली, बारिश पर हमारा जोर नहीं ... और यादों पर ... भी कहाँ हमारा वश होता हैं ?  ... पर हमारा वश हो सकता हैं इन सबके एहसास को कोई नाम न देने पर ...
 
                         कबीर साहब  भी यही कर गए ... चादर ओढ़ी तो , पर मैली नहीं हुई ... उस पर कोई नाम नहीं लिखा ... हर याद एक एहसास लेकर आती हैं ... उस एहसास को कोई नाम नहीं देना ही जीवन जीने की कला हैं ..

                                                         1966 की 46 साल पुरानी  की फिल्म " दो बदन " का यह गीत बड़ा ही सुगम है ... एक उम्दा काम्बिनेशन बन गया हैं ... गीत के बोल , संगीत की धुन , बेमिसाल गायकी , साधा हुआ अभिनय  , दृश्यों का संयोजन कुछ यूँ गुंथे हुए हैं की आँखें बंद हो या खुली कतई फर्क नहीं पड़ता ... यादें बेरोकटोक आती जाती रहती हैं ...

सुने सुनाये ... लाइफ बनाये । .... शुभ दिन।  


मंगलवार, 13 नवंबर 2012

अन्धकार से प्रकाश की ओर ...

             

भगवान् बुद्ध ने जिस ज्ञान का साक्षात्कार किया , उसका भारतीय धर्म - साधना में क्या स्थान हैं , यह प्रश्न हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं । इसकी ठीक अवगति प्राप्त कर लेने पर उस महत अनुभव की ओर हमारी श्रद्धा बढेगी , जिसे तथागत ने प्राप्त किया था और जो ज्ञान के उस रूप से आगे का विषय हैं , जिसकी अभिव्यक्ति वैदिक वांग्मय में हुई है। अधिक विस्तृत विवेचन न कर यहाँ केवल दो स्फुट विचार रख देना उपयुक्त होगा।

वैदिक ऋषि ने किसी अज्ञात परा शक्ति से प्रार्थना की थी ...

" मुझे असत से सत की और ले चल।


मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल।


मुझे मृत्यु से अमृत की ओर ले चल। " 



कितने उदात्त है ऋषि के ये शब्द ... असतो माँ सद्गमय ... तमसो माँ ज्योतिर्गमय ... मृत्योर्माS मृतं गमय ...


वैदिक ऋषि की यह प्रार्थना सब काल के लिए मानवता की सर्व श्रेष्ठ प्रार्थना हैं। वैदिक युग की साधना और आशा-आकांक्षाओं की पूरी अभिव्यक्ति यहं हुई हैं। अब हम इस प्रार्थना के साथ उन उद्गारों को मिलाएं जिन्हें अभी सम्बोधि प्राप्त कर लेने पर भगवान् बुद्ध ने प्रथम बार प्रगट किया था।


" अविद्या नष्ट हुई , विद्या उत्पन्न हुई।


अन्धकार नष्ट हुआ प्रकाश उत्पन्न हुआ।


अमृत के द्वार खोल दिए गए हैं। " 



अहो गंभीर बुद्ध वाणी !!! ... अविद्या विह्तो , विज्जा उप्पन्ना ... तमो विह्तो , आलोको उप्पन्नो ...अपारुता अमतस्स द्वारा।


भगवान् बुद्ध ने अक्षरतः वही प्राप्त किया जिसकी प्रार्थना वैदिक ऋषि ने की थी। आकस्मिक होते हुए भी शब्दों और भावनाओं के क्रम तक में कितनी भारी समानता हैं , यह दोनों अध्यात्मिक अनुभवों की सच्चाई की द्योतक हैं। सम्पूर्ण औपनैषदिक साहित्य को छान डालने पर भी एक भी ऋषि का ऐसा उदहारण ना मिलेगा , जिसने अपने अनुभव के आधार पर इतनी परिपूर्णता के साथ घोषित किया हो कि उसकी अविद्या नष्ट हो चुकी हैं , अन्धकार विदीर्ण हो गया हैं और उसने अमृत को पा लिया हैं। वैदिक युग के लिए यह एक प्रार्थना हैं, आकांक्षा है। उसकी प्राप्ति तथागत की बोधि के रूप में हुई हैं। भारतीय आध्यात्मिक विकास का यह एतिहासिक क्रम हैं।


तथागत जब हुए तब भारत का विस्तार आज के अफगानिस्तान से लेकर सुदूर बर्मा देश तक और उत्तर में हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक एक था ... ( " उनके समय का भारत " विश्वगुरु " के नाम से भी जाना जाता था, उस समय सच्चे अर्थों में हमारे देश में शांति एवं समृद्धि का वास था / नैतिकता का इतना बड़ा निर्भीक प्रचारक संसार में दूसरा कोई नहीं हुआ, कर्मयोगियों में गौतम बुद्ध सर्वश्रेष्ठ है / उनके उपदेश इतने सरल की राह चलने वाला भी उन्हें समझ जाय / उनमें सत्य को अति सरलता से समझाने की अद्भुत क्षमता थी / उनके पास मस्तिष्क और कर्मशक्ति विस्तीर्ण आकाश जैसी और ह्रदय असीम था / वे मनुष्यों को मानसिक और आध्यात्मिक बंधनों से मुक्त करना चाहते थे / उनका ह्रदय विशाल था, वैसा ह्रदय हमारे आसपास के अनेकों लोगों के पास भी हो सकता है और हम दूसरों की सहायता भी करना चाहते हों पर हमारे पास वैसा मस्तिष्क नहीं / हम वे साधन तथा उपाय नहीं जानते , जिनके द्वारा सहायता दी जा सकती हैं / परन्तु बुद्ध के पास दुक्खों के बंधन तोड़ फेंकने के उपायों को खोज निकालने वाला मस्तिष्क था / उन्हौने जान लिया था की मनुष्य दुक्खों से पीड़ित क्यों होता है और दुक्खों से पार पाने का क्या रास्ता है / " ...स्वामी विवेकानंद )


उस कालखंड की गौरव गाथा ... अफगानिस्तान की पहाड़ियों में , पाकिस्तान स्थित तक्षशिला में , भारत में अजन्त एलोरा , बोधगया , नालंदा , सारनाथ यहाँ वहां सब जगह बिखरे अवशेषों के द्वारा अपने विराट अस्तित्व की कहानियां आज भी उसी तरह सुनाता हैं .. आज भी कोई इन जगहों की यात्रा करें तो वहां की सम्यक तरंगे विशिष्ट शांति का एहसास कराती हैं और साफ महसूस की जा सकती हैं ...

शनिवार, 10 नवंबर 2012

उड़ान संख्या OWL1111 .. से फायनली वे आ रही हैं ...


                  सुदूर देवलोक से लक्ष्मी जी भारत-भूमि के लिए (उड़ान संख्या OWL1111)  उल्लू पर सवार होकर निकल पड़ी है ...  इस बार की यात्रा  से पहले उन्हौने भी पूरी तैयारी की ... अपनी नयी टीम के कोर ग्रुप के  सदस्यों में से एक गणेश जी को स्थिति के आकलन के लिए पहले धुआंधार दौरा करवाया ... फिर लगे हाथ दुर्गा जी का भी ९ दिनों का दौरा करवा दिया  ...ताकि कोई कोर कसर न रहे /  तभी अचानक विघ्न संतोषी रावण  के आ धमकने से लक्ष्मी जी की यात्रा टलने वाली थी पर किसी तरह महिला मोर्चा ने करवा चौथ का अनसन करके डेमेज कंट्रोल किया /.......अब फायनली वें आ रही हैं /

                              लक्ष्मी जी की टीम के अहम्  सदस्य गणेश जी की सलाह पर इस बार वे धरती पर मंदी और महंगाई के चलते विशेष पैकज की घोषणा  भी करने वाली है ... पर भ्रष्टाचार के चलते गरीबों तक धन नहीं पहुंचा पाने की मज़बूरी के चलते अब वे " आधार योजना " की  " विशिष्ठ पहचान संख्या " का सहारा लेने वाली हैं ... और मदद के हाथ सीधे जरूरतमंद तक पहुँचाने वाली हैं ... पिछले वर्षों के भ्रष्टाचार मुक्ति आंदोलनों से अब उनका विश्वास उठ सा गया है ... जिनपर पहले भरोसा किया वे अन्ना और बाबा रामदेव ने नाना प्रकार के अनसन किये और भांति - भांति के अस्त्र शास्त्रों का खुलेआम प्रदर्शन किया ... यहाँ तक की पुराने ज़माने की अचूक मिसाईल आमरण अनसन को भी झाड़ पोंछकर खूब चलाया ... पर अन्तः वे सब भी नाम और श्रेय के मायाजाल में फंसकर रह गए और  बार बार लक्ष्मी जी को आश्वासन पर आश्वासन ही दिए जा रहे थे ...  उसी मिसाईल के बार-बार के नाहक और बेकार धमाकों से परेशां होकर लक्ष्मी जी ने अंततः पुरातन और संवैधानिक व्यवस्था और भारत- भूमि की वर्तमान निर्वाचित  सरकार पर ही भरोसा किया और उसे कठोर निर्णय लेने की शक्ति दी ...

                                         सरकार ने ... सब्सिडी की गैस टैंक की कालाबाजारी को रोकने के लिए कड़े नियम बनाये और सब्सिडी की राशि सीधे हितार्थी तक पहुँचाने के उपाय किये ... इससे गैस की कालाबाजारी पर एक हद तक रोक लग जाएगी और आपूर्ति सुनिश्चित होगी ... महँगी गैस से सस्ते में कार चलने के दुरुपयोग पर रोक लगेगी ... FDI की नयी नीति से रोजगार के अवसर बढेंगे और असली उत्पादकों को सही कीमत हासिल होगी ... बिचौलियों से मुक्ति मिलने से उपभोक्ता का भी खूब भला होगा ... कई कटु निर्णय रहे  .. पर सुदूर भविष्य में इस नीति  का लोहा सब मानेगे ... और भी कई कड़े फैसले अपना भला असर दिखायेंगे ... इस बार लक्ष्मीजी ने यह तय कर लिया हैं की वे बिचौलियों की मदद से नहीं बल्कि  " विशिष्ठ पहचान संख्या " के सहारे अपने भक्तों तक पहुंचेगी ...  आखिर धन की देवी के उपासक तो सभी है ना ?

                                    हर बार की तरह इस बार भी लक्ष्मी जी ने यह कहा की सभी को उनकी योग्यता और कर्म फल के सिद्धांत से आगे जाकर कुछ भी दे पाना उनके वश में नहीं ... पर धरती पर बसने वाले उनके भक्त इस बात पर कान देने को तैयार नहीं ... वे धन की देवी लक्ष्मी को मनाने और प्रसन्न करने के यत्न करने लगे है ... लक्ष्मी जी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित हो इसके जतन वे खूब कर रहे है ... कई तरह की पूजा-पाठ, व्रत-उपवास और मुहूर्त निकले जा रहे है /

                                     वहीँ ऊपर आकाश से गणेश जी एवं माँ सरस्वती यह सब देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रहे है ... वे दोनों खूब अच्छी तरह जानते है ... धन की देवी लक्ष्मी उन लोगों की व्यर्थ की कोशिशों में न कभी उलझी है न उलझेंगी /  गीता के कर्म के नियम को लक्ष्मी देवी खूब अच्छी तरह से मानती ही नहीं जानती भी है  ... फायनली वें आ रही है ... बाहर-बाहर से साफ-सफाई और दिखावा  भले करों ... पर अंतर साफ हो ..मन पर नियंत्रण रहे ... ये काम भी कर लो ... यहीं देखने फायनली वें आ रही है !!!!! 

शनिवार, 3 नवंबर 2012

बिन कहे ..बिन सुने ...







             बिन कहे  ..बिन सुने ...दिल ने ..दिल से ... कर ली बातें ... बातों में  ... यहाँ आकर यह गीत अपने चरम पर पहुँच जाता हैं .... और रफ़ी साहब की जादुई और दिल से आती आवाज लता जी की सुरली तानों के साथ बिलकुल यूँ जान पड़ती हैं ज्यूँ खुद  प्रकृति यह गीत गा रही हो .... रफ़ी साहब जब गाते हैं तो जैसे पुरे समां पर छा से जाते हैं ... हर साज ... हर हरकत ... मानो उनकी आगवानी में लग जाते हैं ... वहीँ आसपास मंडराते से रहते हैं ... कहीं दूर नहीं जाते ... न थोडा सा इधर उधर होते हैं ।

                             इस गीत को सुनते हुए यह एहसास खूब गहरे उतर जाता है ... मानो जैसे खुद निसर्ग ही गा रही हैं ... और खूब झूम कर गा रही हैं ... पुरे साल कुदरत जाने कितने रूप धरती हैं ... जाने कितने मंजर दिखाती हैं ... जाने कितनी बार मुस्काती हैं ... कभी डराती तो उससे ज्यादा बार हौसला भी दे जाती हैं ...  ।

                             कुदरत जाने कितनी संभावनाओं के साथ चलती हैं ... चाहे कितने, किन्तु परन्तु हम सोचते रहे ... कुदरत का प्रवाह अपना विशाल अस्तित्व लिए झूम कर चलता रहता हैं ... बस चल पड़ना होता हैं ...बनके साथी राहों में ... और होनी के होने को बस एक हमारा प्रतिक्रिया रहित होना ही सकारात्मकता से भर- भर देता हैं ... और जिंदगानी का सफ़र यूँ ही कट जाता हैं  .... बातों - बातों  में ।

                             तो आओ ... चल पड़े हम सभी साथ-साथ बन के साथी राहों के ... जब कहने सुनने की बहुत ज्यादा गुंजाईश नहीं होती हैं ... तब ही भरोसा अपने चरम पर होकर ... हर मुसीबत से हौले से बचाकर बस यूँ ही आगे बड़ता जाता हैं ... 

                       1969 की फिल्म " अनजाना " का यह खुबसूरत गीत आप भी एक बार सुनकर देखे तो जरा ... मानव मन की बारीकियों और निसर्ग का प्रवाह जैसे कई कही अनकही बातों को हौले से कह जाता हैं ... राजेंद्र  कुमार साहब और बबिता जी का गीत की मांग के अनुरूप अभिनय कमाल का प्रभाव बनाता हैं ... आनन्द  बक्षी जी का सुन्दर गीत ... और लक्ष्मीकांत - प्यारेलाल जी का संगीत सदा की तरह प्रभावी हैं ही ... ।


रिम झिम के गीत सावन गाये , हाय भीगी भीगी रातों में ।

होठों पे बात जी की आये , हाय भीगी - भीगी रातों में ।।

तेरा मेरा कुछ है नाता , बड़ी वो , ये घटा घनघोर है ।
चुप हूँ ऐसे , मैं कह दूँ कैसे , मेरा साजन नहीं तू, कोई और हैं ।।

के तेरा नाम, होठों पे , मेरे तेरे , सपने मेरी आँखों में । 
रिम झिम के गीत सावन गाये , हाय भीगी भीगी रातों में ।।

मेरा दिल भी , है दीवाना , तेरे नैना भी हैं नादान से । 
कुछ ना सोचा , कुछ ना देखा , कुछ भी पूछा ना इक अनजान से ।।

चल पड़े साथ , साथ हम कैसे , कैसे , बनके साथी राहों में ।
रिम झिम के गीत सावन गाये , हाय भीगी भीगी रातों में ।

बड़ी लम्बी जी की बातें , बड़ी छोटी ये बरखा की रात, जी ।
कहना क्या है , सुनना क्या हैं , कहने सुनने की अब क्या है बात , जी ।। 

बिन कहे , बिन सुने , दिल ने, दिल से कर ली बातें , बातों में । 
रिम झिम के गीत सावन गाये , हाय भीगी भीगी रातों में ।।

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

इंदिरा जी " एक शक्ति पुंज "


        इंदिरा गांधीजी ने अपनी जान देश की खातिर कुर्बान कर दी ... यूँ तो हर किसी के दिल में देश की खातिर कुर्बान होने का जज्बा हो सकता हैं ... पर मातृभूमि ऐसे पुन्य अवसर बिरले लोगों को ही देती हैं ... और वे लोग बिरले ही होते है , जो मातृभूमि की खातिर वक्त आने पर कुर्बान भी हो जाते हैं ...

         आज का दिन श्रीमती इंदिरा गांधीजी की वतन के लिए क़ुरबानी की याद दिलाता हैं ... इस अवसर पर आओ हम उनके बचपन की यादों के झरोखे से देखने की कोशिश करें कि इंदिरा जी में देश के प्रति प्रेम की नीव कितनी गहरी थी ... उनके दादा श्री मोतीलाल नेहरू , उनके पिता जवाहरलाल नेहरू , व् उनकी माता श्रीमती कमला नेहरू एक पूरी श्रंखला देश के प्रति समर्पण की भावनाओं से ओतप्रोत रहे ...

       किस्मत की धनी इंदिरा जी ने खुद को हासिल परिस्थितयों से बहुत कुछ सीखा और अपना एक मक़ाम , अपनी एक विशिष्ठ पहचान बनायीं ... न की केवल विरासत का उपभोग भर किया ... वरन विरासत को बहुत आगे बढाया ... देश को उन्हौने तब नेतृत्व दिया ... जब हमारे देश ने एक अति सौम्य और योग्य प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री जी को अचानक खो दिया ... तब उनकी नेतृत्व क्षमता इतनी उजागर नहीं थी ... और लोगों ने उन की नेतृत्व क्षमता पर संदेह किया था ... पर समय समय पर जो निर्णय उन्हौने जिस-जिस फौलादी ताकत और सहजता से लिए ... उसके लिए आज भी देश उन्हें एक शक्ति पुंज की तरह देखता हैं ...जब उन्होंने अपने पडौसी देश की समस्याओं पर संज्ञान लेकर उसकी मदद की थी ... तब इंदिरा जी का जो रूप सामने आया था ... उसे देख सारी दुनिया अचम्भित थी ... तब हमारे एक पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी साहब ने तो उन्हें दुर्गा की उपाधि से सम्बोधित कर इंदिरा जी का यथायोग्य मान बढाया था ...

           इसी शक्ति का एहसास उनके देश हित के कई निर्णयों में खूब झलकता है ... और मातृभूमि के प्रति अपने खून का आखरी कतरा भी वे न्योछावर कर पायें उनकी यह मनोकामना रही थी और योग्यता भी .... तभी भारत भूमि ने उन्हें यह अवसर भी दिया ... और उन्हौने यह कर भी दिखाया ... यही कथनी और करनी की समानता उन्हें शक्ति पुंज की उपमा से नवाजती हैं ... जो सर्वथा सही हैं ।

         आज भी जब जब देश के सामने कठिन और कटु स्थितियां आती है ... जन मानस में उनकी यादें तरोताज होकर यह एहसास दिलाती है की भारत भूमि की पहचान और उसकी उपयोगिता संसार को एक दिशा देने की हैं ... एक नेतृत्व देने की हैं ... जो अभी बरकरार ही नहीं हैं ... विपुल संभावनाओं से भरी हैं ...

                             इंदिरा जी " एक शक्ति पुंज " को नमन ...

जन जन का मंगल हो ।।

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

सबमें रावण क्यूँ दिखता हैं ... !!


मुआ ठीक से जला भी नहीं ?
ना सर फूटा न ठीक से धुंवा उठा  
न कोई तेज आवाज , न सनसनी !!
कल वो मर गया , कोई रोया तक नहीं ?

मन में विकारों का जखीरा लिए 
कब तक उस पर गुस्सा उतारेंगे 
कब अपनी ओर भी निहारेंगे ?
अपने चेहरों से नकली आवरण उतारेंगे  !!
 
कल कोई कह गया 
सभी में उसे रावन दिखता हैं।
मैं विस्मित था , बोला वहीँ बिकता है । 
वही रोज जिन्दा होता है
हमारे मन में 
फिर हमारे बोल में , फिर तन में 
अपना भला अगर चाहते हैं 
तो मारे उसे पैदा होते ही 
सबसे पहले मन में ।
तब जरुरत ही न आन पड़े 
मारने की उसे तन में
और फिर उर्जा लगे राम जैसे 
व्यक्तित्व के गठन में ।।  

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

आओ आज रावण जलाएं ..




मेरे अन्दर भी एक रावण  हैं,
और शायद तेरे भी ,
कुबूल करें तो सबके अन्दर वो हैं ।।

मेरे अन्दर वो हैं मैं नहीं मानता ,
तेरे अन्दर वो हैं तू नहीं मानता ,
सबके अन्दर वो है हर कोई है जानता।।

पर यह आपस का समझौता हैं ,
बुराई पर अच्छाई की विजय का 
उल्लास भर मनाओ।।

एक रावण  का पुतला  बनाओ,
उसे फिर जलाओ ,
ताकि हम सब वैसे ही रहे 
जैसे हम चाहते हैं रहना।।

दाग मेरे भी अच्छे हैं ,
और तेरे भी बुरे नहीं ,
कभी मैं तुझे टोकुं ,
कभी तू मुझे।।

बस साल में एक बार यह रस्म निभाए ,
रावण का एक पुतला बनाये ,
उसे जलाएं ,
और फिर आपस में खुश हो 
बधाईयाँ दे की पुरे साल 
दाग लगने और लगाने में डूब जाएँ ....


आओ आज रावण जलाएं 

हैप्पी दशहरा  , हप्पी दशहरा ।। 

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

वो जमाना अब कहाँ ...





        1973 की सुपर हिट फिल्म " दाग "का यह गीत आज भी जब सुनाई देता हैं, तो अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहता / यह उस दौर का गीत हैं जब शर्मीला टैगोर और राजेश खन्ना की जोड़ी एक के बाद एक सुपर हिट फ़िल्में दिए जा रही थी /


             भारतीय फिल्मों का सुनहरा इतिहास आकार ले रहा था ... आज जितनी भी फिल्में हमारे यहाँ दौड़ पा रही हैं उसकी सारी उर्जा का संचयन उन्ही दिनों में हुआ था ... नायक-नायिकाओं , निर्माता-निर्देशकों , गायक-संगीतकारों, पटकथा - संवाद - कहानीकारों, नगमानिगारों यहाँ तक की फिल्मों के चाहने वालों का भी मानो इस धरा पर एक स्वर्ण युग था । उन दिनों एक के बाद एक मुंबई की सरजमीं पर सितारों का जमघट सा लग गया था । श्वेत-श्याम फिल्मों का युग उन दिनों मानों अभी-अभी आये फिल्मों के रंगीन युग का भरपूर लुत्फ़ उठा रहा था ... आज भी प्रतिभा तो बहुत हैं पर सामंजस्य नहीं ... सब बिखरा-बिखरा सा जान पड़ता हैं /


                    फ़िल्मी दुनियां के उस स्वर्ण युग में निर्देशक यश चोपड़ा साहब का एक अदितीय योग दान रहा हैं ... मानव मन की एक अभिव्यक्ति निश्छल प्रेम और उसका तानाबाना , प्रेम में समर्पण और विश्वास का महत्त्व , प्रेम में सरलता और सरल प्रेम की असीमित पहुँच और उसकी गरिमा के विशाल दायरे .... आदि मानव गुणों का चित्रण करना निर्देशक यश चोपड़ा साहब का के ही बूते की बात थी ।

                  ये तो बात गुजरे ज़माने के चलन की थी ... पर देखियें ना आज भी ऐसा ही तो होता जा रहा हैं ...दूसरों के दिल पे क्या गुजरेगी इस बात पर अब कहाँ कोई सोचता हैं ...आजकल मुहब्बत भी एक व्यापार के सिवा क्या रह गयी हैं .... एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग ... सोचों ऐसा कब नहीं हुआ ... कडवी सच्चाई हैं ... हकीकत के बेहद करीब अक्सर एक नकली दुनिया बसा ही लेते हैं लोग /


                   लता जी आवाज इस गीत में अपना पुरजोर असर दिखाती हुई आसमान की बुलंदियों से सीधे कानों पर उतरती सी जान पड़ती हैं ... शर्मीला जी का सरल-सधा अभिनय गीत में जान फूंकता जाता हैं ... नगमानिगार साहिर साहब इस गीत की एक-एक लाइन एक-एक शब्द को इस तरह से पिरोते जाते हैं कि... वो जमाना अब कहाँ जो अह-ले दिल को रास था ... तक आते आते सारी पीड़ा को सुखद अंत तक ले जाने की भरसक कोशिशों के बाद दिल को धडकता हुआ बस हौले से छोड़ देते हैं / जरूर सुने गुजरे ज़माने का यह गीत .... शायद कहीं किसी मोड़ से आती कोई आवाज आपको भी सुनाई दे जाएँ ... आपकी प्रतिक्रिया आपकी मुस्कराहट से ... आपकी यादों के झरोखों से होती हुई साफ दिखाई पड़ रही हैं ....


चाहत सर्द न पड़ जाये ... हार जाएँ न लगन ....

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

कोई लाख करें चतुराई ...


                          हम अगर ध्यान से देखे और  जिम्मेवारी से आकलन करें तो हम सभी अपने हालातों के लिए 100 % खुद ही जिम्मेवार होते हैं ...( और अगर ऐसा  नहीं हो , तो गीता का सनातन नियम " जैसे कर्म वैसे फल " अपना अस्तित्व ही  खो देगा ... जो की असंभव हैं )

                         जैसे जैसे अनुभव बढ़ता जाता हैं ... या इन्सान सकारात्मक होकर सोचता हैं ... वैसे वैसे अपने आप को हर बात के लिए जिम्मेवार मानने का प्रतिशत 0- से 25 फिर 50 फिर और ज्यादा बढता जाता हैं ... अराजकता जब फैलती हैं ... जब हम अपने आप को 0 % और दूसरों को एकदम 100 % जिम्मेवार मानते हैं या मानने का प्रयास शुरू करते हैं ... पर इससे जनमानस में गहरा असंतोष उपजता हैं ... और वह इस तरह के इंसानों को प्रथम दृष्टया मसीहा मान लेती हैं ... पर अंततः  ... निराशा के गर्त में ही इस तरह के लोग चले जाते हैं ... और इस तरह की मानसिकता के लोग अपनी ईमानदारी या शुचिता को भी प्रचार का हिस्सा बनाकर अपना हित साधते हैं और कई कई युवाओं को गुमराह कर फिर परिदृश्य से गायब हो जाते हैं ...   

                       ईमानदारी एक निहायत निजी सदगुण हैं ... और इसका प्रदर्शन तो बिलकुल ही नहीं होना चाहिए ... इसकी खुशबु अपने आप फैलती हैं ... और फूलों की खुशबु की तरह हवा की दिशा में ही नहीं आठों दिशाओं में बेरोकटोक फैलती हैं ....  विनम्रता के साथ ईमानदारी का गहरा रिश्ता इसे और महकाता  हैं ... और इसकी पहुँच का विस्तार करता हैं ... 


                    अगर हमारे युवा ... आजकल जो गांधीवाद के नाम पर आदोलन के फैशन पर ना  जाएँ ... और महात्मा गाँधी को जानने का स्वयं प्रयास करें ...  तो हमारे युवा पाएंगे की उनके  हौसलों को जैसे नए पर लग गए हों  ... और उनकी दृष्टी समग्रता की ओर बढेगी ... न की संकुचित होकर ... निराशा की अंधी सुरंग में दौड़ लगाएगी /




                      

                    1957 की  फिल्म " चांदनी पूजा " का यह गीत कवि प्रदीप की यह ओजस्वी रचना है और आपके सहयोग को प्रस्तुत हैं ... 

                   हमारे वर्तमान कर्म ही भविष्य बनाते हैं ... और आज जहाँ हम हैं यह पूर्व कर्मों का ही प्रताप हैं ... यह भाव हमें सकारात्मकता से भर भर देते हैं ... 

                  आप शायद सहमत न होंगे ... और सहमति का कोई आग्रह भी नहीं ....  फिर भी आपकी प्रतिक्रिया का आना स्वागत योग्य हैं / 

भला हो /// 

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

कोई समझाए ... ???

              



















                               जो भगवान को केवल माने वो आस्तिक .... ??   या जो भगवान के बनाये कानून ... यानि कर्म के सिद्धांत में आस्था ही न रखे उस पर चलने को कोशिश भी करें वो आस्तिक .... ? 
दूसरा यह की ....

              अगर भगवान है .... तो फिर वह ऊपर वर्णित किस तरह के भक्त को देखकर खुश होगा ....

               पहला वो ... जो उसकी कहीं  बातों को मानता तो हैं पर उन पर अमल नहीं करता हैं ... औरे भगवान  की खुशामद में लीन  रहता है 

               या दूसरा वो जो उसकी बातों  को मानता ही नहीं उनपर चलता भी हैं ... पर खुशामद से कोसों दूर रहता हैं /