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सोमवार, 9 सितंबर 2013

आकाश तुम्हारा हो ….

         उस दिन शाम को घर लौटा तो बेटी बोली - पापा वो अपने घर में हैं … देखों उसे हम उठा कर भीतर ले आये …. श्रीमती दरवाजे पर कड़ी थोड़ी चिंतित दिखी 


          उस दिन जाने क्या हुआ पता नहीं … पर हमारे घर के उजाल-दान में बना कबूतर का घोसला और उसके दो नन्हे बच्चे नीचे फर्श पर गिर पड़े … उनमें एक तो थोड़ी देर तड़प कर चल बसा … पर दूजा मेरे आने तक संघर्ष कर रहा था। 

      पत्नी अधीर हो रही थी … कह रही थी कुछ करो , इसे बचाओ … मैंने देखा कबूतर का नन्हा बच्चा बड़ा कमजोर था … उसे कैसे संभाले सूझ नहीं रहा था …. उधर कबूतर - कबूतरी का जोड़ा भी बैचेन था … मैंने हथियार डाल दिए … मैंने कहा बच्चा इतना नाजुक है की उठाने से मर ही जाये … और इसे रखु कहाँ … इनका घोंसला भी तो अब नहीं रहा। 

                  फिर मैं उठा सोचा कोशिश करने में क्या जाता हैं …. पुराने मुलायम कपड़ों से किसी तरह मोड़ -माड कर गोल -वोल करके एक घोंसले नुमा बनाया और आहिस्ता से उस नन्हे बच्चे को उसी उजाल - दान में रखा और नीचे आ गया। 

            सबसे कह दिया … अगर वह कबूतर-कबूतरी का जोड़ा उस नन्हे के पास आ गया तो यह बच जायेगा … देखा थोड़ी देर बाद वे आ गए अपने नन्हे के पास … आज सात दिन हुए वो नन्हा कबूतर का बच्चा अब थोडा संभल गया हैं … टुकुर-टुकर दुनिया निहार रहा हैं … सब कुछ ठीक रहा तो कुछ और दिन हमारी मेहमानवाजी का मौका देकर खुले आकाश को नापने बाहर निकल पड़ेगा। 

                        हमारे पुण्य में यह कबूतर का नन्हा बच्चा भी भागीदार हो … उसका भला हो !!