गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

कमजोर की आवाज बनें ..

कमजोर वर्ग की आवाज उठाने वाले को ताकतवर और दबंग मुर्ख कहकर नज़रअंदाज करते दिखें तो समझो उसकी आवाज से दबंगों में बेचैनी हैं ।

और यही बैचेनी जल्द बौखलाहट में तब्दील होकर दबंगो की कमजोरियों को उजागर करती जाती हैं ।

मित्रों म. गांधी भी चंपारण में किसानों की आवाज बने थे । अंग्रेजों ने पहले पहल गांधी का मज़ाक बनाया फिर भी गांधी को सविनय आन्दोलनरत देखकर बौखलाए पर गांधी डटे रहे फिर अंततः किसानों की जीत हुई । इस तरह विनय , धैर्य , सच से लबरेज निरंतरता के आगे दबंग और गर्वीले तथा गांठ गठीले अंग्रेज पस्त पड़ते गए ।

कमजोर की आवाज बनना लोकतंत्र की राह में दुरूह पर करणीय कर्तव्य हैं ।

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

भीड़ तेरा हो भला ...

आओ,  वर्तमान परिवेश के सन्दर्भ में म. गांधी को समझना और फिर अपनी सोच की दिशा तय करना बहुत जरुरी कदम हैं ।

आजकल के बहुसंख्य नेता और हम भीड़ की मात्रा से अपनी सफलता को तौलते है और इस चक्कर में अपने पहनावे तथा बोलने चलने की अदाकारी और कभी कभी तो स्टंट पर भी खूब ध्यान देते हैं । वस्तुतः ऐसा वे मज़बूरी में करते हैं क्योंकि हम जनता भी भीड़ की मात्रा से ही किसी के भले और बुरे होने का अंदाज लगाते हैं ।

मित्रों जैसी जनता वैसे ही नेता बने तो क्या ख़ाक नेतृत्व मिलेगा । जबकि म. गांधी इसके विपरीत थे । वे पहनावे दिखावे और भीड़ के मोह से परे भीतर बाहर से एकदम सादा इंसान थे । इस सदी के भीषणतम दंगे 1947 जो बंगाल के नोवाखलि में हुए थे जब उन दंगो से उबारने के लिए गांधी वहां नेतृत्व के लिए जाने लगे तो सरकार ने भी उन्हें मना किया और उनके कुछ साथी भी घबरा गए । पर वे अपने निहत्थे 11 साथियों और अपनी बूढी काया को लेकर निडर मन और सत्य के बल पर आखिर वहां चले ही गए । और आश्चर्यजनक ठंग से दंगे शांत हुए लोग आपस में फिर एक हुए ।

निष्कर्ष ये के भीड़ को महत्व मत दो । हो सके उतना भीड़ से परहेज करो तभी शायद हम भला और योग्य नेता अपने आप को दे सकेंगे ।

सबका भला हो ।