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सोमवार, 21 सितंबर 2015

" Wow कित्ती बड़ी "



                          बुद्ध ने स्वयं व्यक्तिपूजा को कभी प्रोत्साहन नही दिया । जब जब भी कोई उनसे पूछता की भगवान सुझाये हमें की हम किस तरह से आपकी वन्दना करें , तब तब वे यही समझाते की किसी भी अपने आराध्य के सगुण अपने अंदर उतारने से अधिक उत्तम कोई वन्दना नही होती उस आराध्य की । इसलिए बुद्ध के जीवनकाल में उनकी कोई मूर्ति नही बनी लोग वस्तुतः बुद्ध के गुणों को ही धारण करते थे और इस तरह बुद्ध के अनुयायी बनते थे । और बुद्ध के बताये मार्ग पर चलकर बुद्ध बनते रहे थे । उस समय लाखो करोड़ों लोग अरहन्त की अवस्था तक की ऊंचाइयों पर पहुंचे थे ।

                      पर कालांतर में बुद्ध के बाद धीरे धीरे बुद्ध की वास्तविक शिक्षा को प्रमाद वश ना जारी रखकर केवल बुद्ध के गुणगान की तरफ झुकने लगे । गुणगान करना भी बुरा नही होता पर इससे किसी में भी वे बदलाव नही आते जिन जिन गुणों के कारण उसके आराध्य जाने जाते हैं । और जब लोग देखते है की इनकी कथनी और करनी में अंतर हैं सो उस उस आराध्य की शिक्षा कमजोर पड़ने ही लगती हैं । फिर उस कमजोर होती शिक्षा को भक्त लोग बाहरी दिखावों से, रंग वेश भूषा पहनावे से, रंगो और प्रतीकों से और उनके प्रदर्शन से बलपूर्वक बनाये रखने का प्रयत्न करते हैं । और फिर इस तरह की कोशिश करते समूह कभी कभी नही सर्वदा एक दूजे से टकरा भी उठते हैं । बहस करते है किसकी कितनी पुरातन मूर्ति या कौन कितना पुराना इत्यादि सांप्रदायिक विषयों में उलझकर इंसान धर्म के सार को भुलाकर निस्सार में ही उलझकर रह जाता है और वो भी इस गुमान में की उस सा धार्मिक और कोई नही !

                   फ़िलहाल तो आओ मितरो,  भारत के बाहर स्थित इस ऊँची और विशाल बुद्ध प्रतिमा को देखें और सोचें की क्या खूबी रही होगी इस भारत के सपूत में जो सारी दुनिया में लोग इन्हें श्रद्धा से देखते हैं और क्या मैं इनके सद्गुण अपने अंदर उतार सकता हूँ ?

   सदगुरु तुम मिलते नही,
धर्मगंग के तीर ।
तो बस गंगा पूजता,
पी नही पाता नीर ।।