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रविवार, 19 मई 2013

उसकी दया ..!!!

            बात सीधी - सी हैं और हम लोगों ने उसे कितना उलझा दिया हैं .... यही कारण हैं की हम अक्सर नहीं हमेशा भटक जाते हैं ... अटक जाते हैं ... 

                हम गीता के कर्म के सिद्धांत पर भी ठीक से टिकते नहीं हैं ... और अक्सर किसी कर्म के फल के पकने के अवसर पर उस घटना को और किसी घटना से जोड़कर चमत्कृत हो उठते हैं ...  और कोई समझाए तो उसकी बात को भारी - भरकम शब्दों के जंजालों से या नास्तिक ही कहकर हलकी करने की कोशिश क्यूँकर करते हैं मेरी समझ से परे हैं .... और ऐसी भी क्या मज़बूरी आन पड़ती हैं की हम यूँ करते हैं ... केवल किसी की कृपा है यह साबित करने के लिए इतनी मेहनत या घुमाव - फिराव ... 

                         कोई ईश्वर हो , सर्वशक्तिमान हो , या ना ही हो ... गीता का कर्म का सिद्धांत तो अटल हैं ... जैसे कर्म ठीक = वैसे ही फल ... ना कम ना ज्यादा ... और यहाँ एक और इशारा यह समझ नहीं पाते हैं ... की कोई कर्म हो भला या बुरा उसके फलों में जरा भी फेर बदल संभव नहीं हैं ... और कुदरत भी यूँ कभी नहीं करती हुई दिखना चाहेगी ... वर्ना फिर कर्म फल के सिद्धांत को पलटने के लिए कुदरत की अदालत में अर्जियां लगनी शुरू होंगी ... सब जानते हुए भी हम कहाँ मानते हैं भाई ? ... देखते नहीं कितना बड़ा और अटूट सिलसिला चल ही पड़ता हैं 

                        अरे हम मनुष्यों में भी भेदभाव को बुरा माना जाता ... हमारी अदालतें या सरकार या कोई और भेदभाव करें तो उसकी कटु आलोचना होती हैं ... लोग नाराज होते हैं ... और हम यह हम जोरों से माने की कुदरत हमारी आस्था हमारे विश्वास के दम पर हमारे बुरे या भले कर्मों के फलों को कम या ज्यादा कर देगी ... कितनी बड़ी विडम्बना ... कितना भटकाव .... कितना दोगलापन 

                      पर .. हम कहाँ रुकते हैं ... एक घटना को दूसरी से जोड़कर ...कभी भगवान का डर स्थापित कर या फिर उसकी दया का लालच दिखाकर .... इतने भले और सार्वभौम सिद्धांत के महत्त्व को कम कर देते हैं ...यह भ्रम के अस्तित्व को बरक़रार रखने जैसा प्रयत्न हैं भाई 

                       कोई एक नहीं बहुतेरे यह मानते हैं कि .... कुदरत दया करती हैं इसके माने यह निकालते है कि कुदरत हमारी पीड़ा को ( जो की कर्मों के फल हैं ) को कम कर सकती हैं ... यहाँ भी हम उसकी दया का उपहास उड़ाते हैं ....  उसकी दया केवल इतनी होती है की वह हमें " हम सद्कर्म करें " इस ओर चलने के लिए लगातार बिना किसी भेदभाव के बड़े करुण चित्त से .... सारे वातावरण में सारी सृष्टि में सकारात्मकता की तरंगे उत्सर्जित करती रहती हैं ... और धर्म चाहे जो हो ... उसका काम केवल इतना होता हैं की वह हमें यह सिखाये की हम भी वैसी ही सकारात्मक तरंगों का उत्सर्जन करते चले जाय ... ताकि उन ईश्वरीय तरंगों से समरस होकर तेजी से सन्मार्ग की और बढ़ सके ... मुक्ति की ओर बढ़ सके ... और पाप और पूण्य ( भले या बुरे ) कर्म फलों की अनवरत श्रुंखला से बरी हो पायें ....

भला हो !!! 


मेरी नजर मैं आस्तिक वो जो यह माने की - जैसे कर्म वैसे फल ... और नास्तिक वो जो इस बात में जरा भी विश्वास ना करें )