शनिवार, 4 अगस्त 2012

दिखावे का मायाजाल ..


                                  हमारे देश में दिखावे को ही हमेशा से तरजीह दी जाती रही हैं ... दिखावा हमारी कमजोरी हैं ... जिस तरह से जब अन्ना पार्टी की दुकान सजी तो सबसे पहले विश्व ब्रांड बन चुके हमारे अपने बापू पर उनकी नज़र पड़ी ... और बड़ी सावधानी से गांधीजी के नाम का इस्तेमाल हुआ ... " दूसरा गाँधी  " ... हमारा युवा जो आज अगर सबसे ज्यादा प्रभावित हैं किसी से तो वह फिर हैं हमारे बापू ... और हमारा युवा गांधीजी सदृश किसी गाँधी का बेसब्री से इन्तेजार करता हैं ... वह चाहता हैं की जो उसने इतिहास से गांधीजी की ऊष्मा और तरंगे महसूस की हैं ... वो खुद उनका वर्तमान में प्रगटीकरण भी देखे ...


                      बस उसकी इसी महत्वकांक्षा को ताड़ लिया अन्ना पार्टी ने और हर आन्दोलन को बापू के नाम से आगे बढाया ... अब उन्हें जरुरत थी किसी नारे की तो पहला नारा दिया ... " हम अन्ना का सपोर्ट करते हैं " ... यहाँ फिर चालाकी से "  अनुसरण " शब्द से परहेज किया ... क्योंकि सपोर्ट करना यानि भीड़ बढ़ाना ... और अनुसरण करना यानि खुद अपने चरित्र को बलवान बनना ... यहाँ युवा चरित्रवान हो उसका मनोबल इतना मजबूत बनें की वह खुद आगे बड़ कर अपने कमजोर मन से होने वाले बुरे आचरण पर काबू कर पायें ... पर अन्ना पार्टी को अनुसरण की कवायद का रास्ता लम्बा और उबाऊ मालूम पड़ा ... अतः युवा सुधरे उनका आचरण सदाचरण की ओर बढे ...  इसमें उनका तनिक भी विश्वास नहीं था ... वे युवाओं को उदंड बनना चाहते थे ... तभी मंच से लगातार भड़काऊ और अमर्यादित भाषण देते रहे ...ताकि युवा बिघडे और इलजाम सरकार के सर जाएँ ...

                       युवा गांधीजी के आन्दोलनों से प्रभावित हैं ... इसलिए भूखा रहकर आन्दोलन का विचार आगे बढाया ... जिससे मिडिया का कवरेज भी खूब मिले ... और थोक में सद्भावना की फसल भी काँटी जाएँ ... पर वे भूल गएँ और हमारे युवा ने भी कोई इस बात की पड़ताल नहीं कि, कि गांधीजी ने उपवास चलायें तो इनका प्रयोजन क्या होता था ... बापू का कोई उपवास लेशमात्र भी इस हेतु दबाव कि खातिर कभी नहीं हुआ कि उनकी मांगे मानी जाएँ ... वरन उनका हर उपवास अपनी किसी गलती पर , या उनके किसी सत्याग्रहियों कि अहिंसा कि अवहेलना पर या सांप्रदायिक हिंसा के कुमार्ग से जनता को वापस सद्भाव और आपसी प्रेम के सन्मार्ग पर लाने को ही उनके उपवास हुआ करते थे ... 

                       अतः अन्ना पार्टी ने हमारे युवाओं को खूब छला ... मुझे पीड़ा तो अधिकतर इस बात कि होती थी कि हममे से बहुसंख्य भावनाओं में बहकर नाहक परेशान होते रहे ... और अन्ना पार्टी के छुपे मंसूबों को पहचानने में खूब देरी कि ... 

                       वे जनता के लिए लोकपाल कि आड़ में फिर एक तंत्र थोपना चाहते थे ... जो कितना भी कड़ा हो ... कठोर हो .. उससे फिर भी 40 -50 % भ्रष्ट आचरण ही कम होता ... ( इससे ज्यादा की उन्हें भी उम्मीद नहीं थी ... और जब यह धरातल पर आएगा तो और सरकारी महकमों की तर्ज पर और कम ही नतीजे दे पायेगा 20 -30 % तक  ) ... 

                       तनिक सोंचे 40 -50 % बुरा आचरण जो अछूता रहता जन - लोकपाल से वो होता के दूर दराज गावों का , पंचायतों का  , कस्बों का .... इतना बड़ा कौव्वा बैठाने और उसके लिए इतनी उतावली से कहीं सीधा हैं ... अपने ही आचरण को और अधिक ऊँचा उठाना ... अपने मनोबल को और मजबूत बनाना ... अपने मन को निर्मल करना ... अगर हम एक - एक ऐसा करें तो 50 % बुरा आचरण या कहें भ्रष्टाचार तो यूँ ही कम हो जाएँ ... और आये लोकपाल भी तो फायदा ही होगा नुकसान नहीं /

                        पर अन्ना पार्टी तो सरकार को घेरने में ही अपना भला देख रही थी ... उसे इस बात कि तनिक भी चिंता नहीं थी कि भारी भरकम जन लोकपाल का भारी भरकम खरचा हमें ही भरना पड़ेगा ... उसके यहाँ वहाँ फैले कर्मचारियों का रौब भी हमें ही भुगतना पड़ेगा ... और जन लोकपाल के कर्मचारी ही कहीं शुरु हो गये तो ... आप ही सोचे ... क्या क्या होगा ...