" मैं तो आरती उतारूँ रे ..."

यह गीत एक सामान्य लय-ताल में डोलक-मंजीरों की आवाज के साथ शहनाई के संग शुरू होता है ..फिर तो उषाजी की आवाज जैसे इस गीत को आसमानी उचाईयों पर ले जाती है / भक्तिरस के साथ माँ संतोषी का गुणगान धीरे-धीरे चरम पर पहुँच जाता है ...बहुत ही सामान्य से फिल्मांकन के असामान्य नतीजो के लिए जानीजाने वाली यह कृति कितने संतोष-भाव से गढ़ी गयी है ...यह बात इस गीत में सहज अनुभव की जा सकती है ... गरबा डांस के निहायत आसान से स्टेप्स भी गीत में जान फूंके बिना नहीं रहते /
संतोषी माँ अगर मंदिर से मन के अन्दर बस जाये तो वरदान के भंडार मानो जैसे खुल ही गए समझो ...संतोष धन अपने अन्दर थोडा सा भी जगे तो बड़े फल मिलते ही है ... जीवन सुधर जाता है ... फिर मन का मयूरा बरबस नाच उठता है ... सुन कर देंखे जरा इस पुराने सदाबहार नगमे को ... एक अलग एंगल से ...एक अलग अंदाज से ...मन संतोष से भर जाये बस और हमें क्या चाहिए ....
1 टिप्पणी:
बहुत खूब, गीत को आपकी टिप्पणी ने और निखार दिया।
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