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शुक्रवार, 10 अगस्त 2012
रुला के गया सपना मेरा ...
रुला के गया सपना मेरा ...
यूँ तो यह गीत ... शुरुआत में गहन निराशा के भावों का प्रतिनिधित्व करता हैं ... पर धीरे - धीरे नायिका के सपने का उसकी ओर एक अन्य नाव में बढ़ना एक बड़ी आशा का संचार कर जाता हैं ... बेलेंस बिघड नहीं पाता / बुरा वक्त गुजरता तो ठीक अपनी ही रफ़्तार से हैं , जैसे अच्छा वक्त गुजरता हैं पर, हमारे मन की अधीरता बुरे वक्त के गुजरने के अन्तर को जैसे निहायत स्लो (slow) कर देती हैं /
इस गीत के फिल्मांकन में भी इस बात को बड़ी खूबसूरती से उजागर किया गया है ... निराश नायिका की नाव लगभग स्थिर हैं ... और आशा रूपी सुबह नाव में उसकी ओर अपनी गति से बढ़ी चली आ रही है / कभी कभी हमें होश ही नहीं रहता की निराशा के बादलों के ठीक ऊपर ही हमेशा अनन्त आकाश की संभावनाएं हमेशा बनी रहती है ... और तो और हमारी अपनी सांसों पर ही अविश्वास इस कदर बढ़ जाता है कि एक-एक साँस लेना दूभर होता जाता है ... फिर दिल का बैठना तय ही समझे ... उसका डूबना तो तब रुके जब हमारी अपनी साँस का ही फिर एक बार सहारा लिया जाएँ ... सुनते ही हैं कि " जब तक साँस है , आस हैं " /
कल हुआ यूँ कि एक समाचार चैनल पर हमारी अपनी मुक्केबाज ख़िलाड़ी " मैरीकाम " ( Merry Kam ) इसी गाने को गुनगुना रही थी ... बहुत मीठी .. दिल से आती आवाज / " मैरीकाम " ओलम्पिक में तीसरे स्थान पर रही ... सचमुच एक बढ़ी उपलब्धि ... पर उस विनम्र और सहृदय ख़िलाड़ी की खेल भावना देखों ... वह भारत की जनता से माफ़ी मांगती हैं कि उसने हमें निराश किया जो स्वर्ण पदक नहीं ला सकी ... उनकी यहीं बात उन्हें विलक्षण खेल भावना और दुर्लभ विम्रता की बदौलत सबमें अलग स्थान दिला गयी ... सलाम " मैरीकाम " / ... आप हमारे लिए किसी स्वर्ण से कम नहीं ... नहीं मिला स्वर्ण यकीं मनों ... कोई गम नहीं / कोई सपना हो अब रुलाके नहीं जाएँ ... सपने आखिर सपने होते हैं /
45 साल पहले आई फिल्म " ज्वेल थीफ " फिल्म का यह सुन्दर गीत लता जी की आवाज में झील की मानिंद स्थिर लय और गहराई लिए हुए हैं ... मजरुह सुल्तानपुरी साहब की रचना और एस . डी . बर्मन साहब का संगीत , विजय आनंद साहब के खुबसुरत फिल्मांकन / निर्देशन में खूब निखर गया हैं /