कासे कहूँ पीर अपने जिया की ...!!!
मानव मन की पीड़ा कभी अत्यंत गहरी और अतिसवेंदनशील हो
हर स्थिति सतत बदलाव के कुदरती नियम से अच्छी तरह बंधी हुई हैं , फिर भी विषम स्थितयों में मन की अतिअधीरता के चलते पुराने कर्म संस्कारों का विशाल जखीरा जैसे ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता ... और वक्त जैसे थम-सा जाता है / यही समय असली परीक्षा का होता हैं / ऐसे ही समय में जिन्दगी के सारे अनुभव दांव पर लग जाते हैं / ऐसी विकट परिस्थितियों से अपने दम पर बाहर निकला इन्सान सही अर्थों में अपने जीवन को सार्थक कर लेता हैं /
गीत में यही भाव प्रधान हैं कि मन सहानुभूति के शब्द सुनने को जैसे तरस गया हैं ...जीवन की बिषम राहों में जब कोई नहीं मिले जिससे अपना दुःख बांटा जा सके ... उस बियाबान में खुद के सबसे नजदीक खुद होकर भी अपनी मदद नहीं कर पाना फिर हमारा दुर्भाग्य ही हुआ ... इस गीत में भी नायिका तात्कालिक बातों से आगे नहीं सोच पा रही हैं ... चूँकि वह दुःख के पहाड़ों तले दबी हुई सी हैं ..एक चक्रव्यूह में बुरी तरह उलझी हुई है ... जैसे किसी अंधी सुरंग से बाहर आने को छटपटा रही हैं ...
इस कदर अवसाद और पीड़ा से उबरने में हमेशा खुद की खुद को मदद ही एकमात्र सहारा होती हैं ... और हमारी एक एक साँस को जतन से अगर संभाला जाएँ तो संभाली हुई एक एक साँस धीरे धीरे अवसाद की अंधी सुराग से हमें बाहर खीच लाती हैं ... और हमारे सामने फिर होती हैं विस्तीर्ण आकाश- सी अनन्त संभावनाएं ... //
