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शनिवार, 25 अगस्त 2012

कासे कहूँ पीर अपने जिया की ...!!!

कासे हूँ पी ने जिया की ...!!! 








          मानव मन की पीड़ा कभी अत्यंत गहरी और अतिसवेंदनशील होकर भी जब अव्यक्त रह जाती हैं, तो मन मरुस्थल सी वीरानियों में अकेला भटकने को मज़बूर ही नहीं हो जाता बल्कि टूटने की कगार तक जा पहुंचता है /  

               हर स्थिति सतत बदलाव के कुदरती नियम से अच्छी तरह बंधी हुई हैं , फिर भी विषम स्थितयों में मन की अतिअधीरता के चलते पुराने कर्म संस्कारों का विशाल जखीरा जैसे ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता ... और वक्त जैसे थम-सा जाता है / यही समय असली परीक्षा का होता हैं / ऐसे ही समय में जिन्दगी के सारे अनुभव दांव पर लग जाते हैं / ऐसी विकट परिस्थितियों से अपने दम पर बाहर निकला इन्सान सही अर्थों में अपने जीवन को सार्थक कर लेता हैं /

           गीत में यही भाव प्रधान हैं कि मन सहानुभूति के शब्द सुनने को जैसे तरस गया हैं ...जीवन की बिषम राहों में जब कोई नहीं मिले जिससे अपना दुःख बांटा जा सके ... उस बियाबान में खुद के सबसे नजदीक खुद होकर भी अपनी मदद  नहीं कर पाना फिर हमारा दुर्भाग्य ही हुआ  ... इस गीत में भी नायिका तात्कालिक बातों से आगे नहीं सोच पा रही हैं ... चूँकि वह दुःख के पहाड़ों तले दबी हुई सी हैं ..एक चक्रव्यूह में बुरी तरह उलझी हुई है ... जैसे किसी अंधी सुरंग से बाहर आने को छटपटा रही हैं ... 

               इस कदर अवसाद और पीड़ा से उबरने में हमेशा खुद की खुद को मदद ही एकमात्र सहारा होती हैं ... और हमारी एक एक साँस को जतन से अगर संभाला जाएँ तो संभाली हुई एक एक साँस धीरे धीरे अवसाद की अंधी सुराग से हमें बाहर खीच लाती हैं ... और हमारे सामने फिर होती हैं विस्तीर्ण आकाश- सी अनन्त संभावनाएं ... //


                   1972 की फिल्म " दस्तक " को राष्ट्रिय फिल्म पुरुस्कार सहित एकाधिक पुरुस्कारों से नवाजा  गया था ... राजिंदर सिंह बेदी साहब द्वारा लिखित एवं निर्देशित, मदन मोहन साहब के अनमोल और संगीत में ढलकर मजरुह सुल्तानपुरी साहब का यह नगमा इस फिल्म के जैसे प्राण हैं ... संजीव कुमार साहब और नवागत अभिनेत्री रेहाना सुल्तान जी   का अभिनय इस फिल्म की शान हैं ... फ़िलहाल यह गीत सुने जरूर ... इस गीत को गाने के लिए लता जी बार-बार जानबूझकर छोटी-मोटी गलतियाँ इसलिए कर रही थी की वे सब मदन मोहन साहब की आवाज में इस गीत को सुनना और रिकार्ड करना चाहते थे .. वे अपनी योजना में सफल हुए और मदन मोहन साहब ने इस गीत को गाकर दिखाया ...तभी यह गीत स्त्री-पुरुष दोनों की आवाजो में उपलब्ध हो सका  वर्ना योजना तो केवल लता जी आवाज में ही रिकार्ड करने की थी  ... मन की बातों मन में दबाकर ना ही रखे किसी अपने के सामने गाहे-बगाहे बोला करें ... फिर मिलेंगे /