
गांधीजी ने भी आन्दोलन किया ... और लम्बे समय तक किया ... बिना मिडिया की किसी विशेष मदद के आग्रह के अपने बलबूते किया ... पर कभी भीड़ को उकसाया नहीं ... कभी पीछे नहीं रहे ...हमेशा सामने रहकर ... जनता के बीच ... सारी स्थितियों का खुद सामना करते हुए ... खुद जेल जाते हुए .. खुद लाठियां खाते हुए ... जिसका विरोध कर रहे हैं उसके साथ अतुल्य शिष्टता का व्यवहार करते हुए .. अहिंसक रहकर ... शिष्ट और अनुत्तेजक नारों के साथ ... अपनी कथनी और करनी की गजब समानता के साथ किया ... तभी अंग्रेज सरकार भी अपने पास हिंसा के अकूत संसाधन होते हुए भी लाचार होती गयी ...बंदूकों के साथ निहात्तों से कैसे लड़ा जाया ... इस बात की न तो उनके पास कोई समझ थी न ही तैय्यारी ... डराकर तो वे सबको कंट्रोल करना जानते थे ... पर जिन्हें अभय का साथ हो उन्हें कैसे भयभीत किया जाएँ उनकी पहुँच और समझ से दूर की बात थी ... वे असहाय साबित हो रहे थे ... गाँधी जी जीतते जा रहे थे ... और सबसे बड़ी बात अंग्रेज भी इस लढाई से हार जरुर रहे थे ...पर नए और इंसानियत के अजूबे हथियार " अहिंसा " से विस्मित , चकित भी थे ... और इस हथियार की अचूक मारक क्षमता से उतने ही प्रभावित भी ..
आजकल के इन आन्दोलनों को अहिंसक नाम दिया जाता हैं ... शांतिपूर्ण प्रदर्शन नाम दिया जाता हैं ... फिर भी इनके अदृश्य नेतृत्व छुपते क्यों हैं ... क्योंकि उनके मंसुबें भले नहीं होते वे बुजदिल ही हैं ... केवल देश में असंतोष फैलाना ... और स्थितयां बिघाड़ना ही उनका मकसद होता हैं ...और फिर कोई अगर बात करके समस्या के हल तक पहुँचाने के लिए बात करे भी तो किससे ... कोई तो सामने नहीं होता ... और भीड़ को पीछे से मिडिया के द्वारा लगातार अंदेशों के संदेशे दिए जाते हैं ... सारा कुछ भगवान् भरोसे ..
इससे होता क्या हैं ... नेतृत्व विहीन जोशीला युवा अपना कीमती समय और कभी कभी अपना कीमती भविष्य दांव पर लगा बैठते हैं ... किसी की रोटी सिक जाती हैं ...कोई बर्बाद हो जाता हैं ... और इन सबके बीच अदृश्य नेतृत्व और बुजदिल होता जाता हैं ... न कुछ मिलता, ना मिलाता ... ग्लास फोड़े चार रूपये अलग ..
हमारे युवा अपनी सोच खुद विकसित करें ... अपने मुंह अपनी तारीफ करने वाले ... थोड़े से नैतिक बल ... और अपने त्याग का बखान करने वाले ... दूसरों को निरा निकम्मा और खुद को महान देशभक्त कहने वाले ... लगतार दूसरों की तरफ उंगली उठाने वाले ... अदुश्य नेतृत्व को पहचाने ... तभी संभव हैं देश में शांति और उन्नति हो , सौजन्यता हो ... केवल कोर विकास नहीं विकास के साथ दिलों में प्रकाश भी हो ...
एक बात और अभी के आन्दोलनों में अदृश्य नेतृत्व किसी बुरे मनसूबे से काम कर रहा था इसकी इस बात से भी पुष्ठी होती हैं की हिंसा की शुरुआत होती दिखाई देने पर भी ... कभी उसकी निंदा या उसकी रोकथाम हो इस हेतु कोई आगे नहीं आया ... जबकि गांधीजी ने अपने आन्दोलनों में थोड़ी सी हिंसा को भी बर्दास्त नहीं किया और बिना इसकी परवाह किये की इतना सफल आन्दोलन फिर खड़ा करना कितना मुश्किल होगा अपने कदन बिना खौफ पीछे कर लिए ... वो केवल इसलिए की अहिंसा को वे केवल कथनी नहीं करनी का विषय मानते थे ... भला हो !!