कहीं खो न जाये सरलता ....
शनिवार, 31 दिसंबर 2011
कहीं खो न जाये सरलता ......
मंगलवार, 27 दिसंबर 2011
मन ही अधिनायक है ...
मन ही अधिनायक है ...

कोई भी शासक हो उसका सपना होता है की उसके राज्य में सुराज हो, प्रजा सुखी हो, हर तरफ शांति हो, परतु बहुत थोड़े ही सुराज की इन उचाईयों को छू पाते है. ऐसे ही हमारे देश के एक महान शासक असोक ने भी यही सपना संजोया था एवं उसमे उसे महती सफलता भी मिली. वस्तुतः उसने सुराज की जड़ों तक पहुँच बनायीं थी..चीनी यात्रियों के विषद वृतांतों से पता चलता है, जिनमें वे यहाँ के लोगो की संस्कृति और सभ्यता की भूरी-भूरी प्रसंशा करते हैं , और लिखते है की कैसे वे शांति, सम्रद्धि और आपसी सद्भाव का जीवन जीते थे. देहली-तोपरा स्तम्भ पर उत्कीर्ण अपने एक सुविख्यात अभिलेख में अशोक अपने शासनकाल में किये गए उपायों की विस्तृत समीक्षा करता है.
सम्राट असोक का कलिंग की लडाई से उपजी आत्मग्लानी से दुखी हो उठा ... वह अपनी प्रजा की वास्तविक भलाई के लिए आतुर हो उठा ... वह लगातार अपनी प्रजा की सुख-शांति के लिए हर संभव सुधार की प्रक्रिया में जुट गया ... तभी उसे कहीं से सलाह मिली की राजन सारे कानूनों और प्रजा की भलाई के लिए शासन द्वारा किये उपायों का जमीन पर असर तभी दिखाई देगा जब प्रजा के पास ऐसा कोई उपाय भी हो जिससे वह अपने विकारों से ग्रसित मन को शुद्ध कर सकें ... असल में जब-जब मन में लालच .. क्रोध ...आलस...वासना ...द्वेष ...एवं राग के विकार उभर-उभर कर सतह पर आते है, तो मानस उन विकारों के वशीभूत होकर किसी भी कानून से न डरते हुए वह अपराध कर ही बैठता हैं ...फिर अपने एक अपराध को छुपाने के चक्कर में वह दल - दल में धंसता ही जाता है ... मानस सुधार के हर उपदेश भी अपना नहीं दिखा पाते ... अतः अगर हम कहें की इमानदार बनों ... इमानदार बनों पर हम उसे इमानदार बनाने की कोई राह नहीं बताते ... असल में वह अपने मन में लालच के पूर्व संचित विकारों को निकाले बिना लालच के वशीभूत होकर यह भूल जाता है कि उसे इमानदार बनाना है ... और सारे उपदेश कोरे ... सारे कानून व्यर्थ ही साबित होते है .
अब तक असोक सारा आशय समझ चूका था .... उसने यह निश्चय किया की ऐसा कोई उपाय पहले जनता को बताने से पहले मुझे उसका स्वयं अनुभव करके देखना चाहिए ... फिर तो सम्राट असोक ने मन के विकारों से छुटकारे का उपाय भगवान बुद्ध की विपश्यना साधना सिखने में खुद पहले ३ महीनों का समय लगाया ... और वह जब आश्वस्त हुआ तो फिर उसने अपनी प्रजा को प्रेरित करना शुरू किया ... धीरे धीरे उसे परिणाम दिखाई पड़ने लगे ...और प्रजा की भलाई के हर उपाय शत-प्रतिशत प्रजा को मिलने से उस समय का भारत केवल भौतिक विकास में ही नहीं नैतिक और आध्यात्मिक विकास में भी बुलंदियों को छू रहा था .
सम्राट असोक का कलिंग की लडाई से उपजी आत्मग्लानी से दुखी हो उठा ... वह अपनी प्रजा की वास्तविक भलाई के लिए आतुर हो उठा ... वह लगातार अपनी प्रजा की सुख-शांति के लिए हर संभव सुधार की प्रक्रिया में जुट गया ... तभी उसे कहीं से सलाह मिली की राजन सारे कानूनों और प्रजा की भलाई के लिए शासन द्वारा किये उपायों का जमीन पर असर तभी दिखाई देगा जब प्रजा के पास ऐसा कोई उपाय भी हो जिससे वह अपने विकारों से ग्रसित मन को शुद्ध कर सकें ... असल में जब-जब मन में लालच .. क्रोध ...आलस...वासना ...द्वेष ...एवं राग के विकार उभर-उभर कर सतह पर आते है, तो मानस उन विकारों के वशीभूत होकर किसी भी कानून से न डरते हुए वह अपराध कर ही बैठता हैं ...फिर अपने एक अपराध को छुपाने के चक्कर में वह दल - दल में धंसता ही जाता है ... मानस सुधार के हर उपदेश भी अपना नहीं दिखा पाते ... अतः अगर हम कहें की इमानदार बनों ... इमानदार बनों पर हम उसे इमानदार बनाने की कोई राह नहीं बताते ... असल में वह अपने मन में लालच के पूर्व संचित विकारों को निकाले बिना लालच के वशीभूत होकर यह भूल जाता है कि उसे इमानदार बनाना है ... और सारे उपदेश कोरे ... सारे कानून व्यर्थ ही साबित होते है .
अब तक असोक सारा आशय समझ चूका था .... उसने यह निश्चय किया की ऐसा कोई उपाय पहले जनता को बताने से पहले मुझे उसका स्वयं अनुभव करके देखना चाहिए ... फिर तो सम्राट असोक ने मन के विकारों से छुटकारे का उपाय भगवान बुद्ध की विपश्यना साधना सिखने में खुद पहले ३ महीनों का समय लगाया ... और वह जब आश्वस्त हुआ तो फिर उसने अपनी प्रजा को प्रेरित करना शुरू किया ... धीरे धीरे उसे परिणाम दिखाई पड़ने लगे ...और प्रजा की भलाई के हर उपाय शत-प्रतिशत प्रजा को मिलने से उस समय का भारत केवल भौतिक विकास में ही नहीं नैतिक और आध्यात्मिक विकास में भी बुलंदियों को छू रहा था .
सम्राट असोक के अभिलेखों की शब्दावली में उसके व्यक्तित्व की अनुपम झांकी देखने को मिलती है. उसका कहना है की मेरे पूर्ववर्ती राजाओं, शासकों ने भी मेरे ही सामान यह कामना की थी की प्रजा का उत्थान हो , परन्तु वे इसमें सफल नहीं हुए जबकि मैंने सफलता का मुंह देखा. मुझे लगा की धर्म का यानि मन को निर्मल करने का अभ्यास मुझे स्वयं करना होगा और तब लोग इसका अनुसरण करेंगे और अपने आप को ऊपर उठाएंगे. इसी लक्ष्य को सामने रखकर मैंने धर्म यानि मन को निर्मल बनाने के नियम बनाये और अनेकों धर्म निर्देश दिए. वह अभिलेख में लिखता है कि मैंने निझ्ती ( आंतरिक ध्यान , विपश्यना ) का सहारा लिया. सुराज का पुष्ट होना इन्ही दो बातों से सुनिश्चित हुआ ...पहला कड़े - नियम और दूसरा लोगों में मन-शुद्धि कि साधना के प्रति लगाव. वह आगे कहता है इन दो बातों में से धर्म के नियमों से कम, वरन मनशुद्धि कि साधना से लोगों को बहुत कुछ प्राप्त हुआ .
मंगलवार, 22 नवंबर 2011
जहाँ कोई न हो ...
जहाँ कोई न हो ...
1950 में इस गीत की ज़ानिब जाँ निसार अख्तर साहब ने भी क्या खूब आरजू पेश कर दी ..... ऐ दिल मुझे ऐसी जगा ले चल ...जहाँ कोई ना हो .... दुनिया मुझे ढूंढे मगर मेरा निशाँ कोई न हो.... / फिर तो यह ग़ज़ल तलत महमूद साहब की खास कपकपाती-सी आवाज, अनिल बिश्बास साहब के सुरीले संगीत में राग दरबारी की स्वरलहरियों में सजकर अपनी खूबसूरती के चरम पर पहुँच जाती है /
नहीं जानता उस फिल्म की कहानी में दिलीप साहब को वैसी कोई जगह मिली भी या नहीं ... पर मन कहता है ऐसी जगा उस समय तो इस सरजमीं पर शायद ही मौजूद हो / बहुत ही खूबसूरती से ग़ज़ल अपने-पराये, मेहरबान- नामेहरबान सभी से दूर किसी सुकूं याफ्ता कोने की तलाश करते हुए कदम दर कदम चलती हुयी ....एक सूखे तरख्त के साये में अपना सफ़र जैसे पूरा करती हुयी ठहर जाती है .... इतिहास में दरख्तों और इंसानों का साथ यहाँ वहां बिखरा पड़ा है ... तथागत ( Buddha ) की सत्य की तलाश भी तो एक तरख्त के साये में ही पूरी हुयी थी / फ़िलहाल सुने इस ग़ज़ल को और मैं रुख करता हूँ वहां का ....जहाँ कोई न हो !!!
शुक्रवार, 18 नवंबर 2011
आप तो फिर हिसाब लगाने लगे ... !!
आप तो फिर हिसाब लगाने लगे ... !!
मुकेश की आवाज में यह गाना पैदल ही निकल पड़ता है ... बहुत बड़े सन्देश के साथ ... बहुत ऊँचे दर्जे की सोंच के साथ ... यात्रा लम्बी जरूर है ... पर जरूरी है एक-एक कदम मंजिल की तरफ बढ़ाते जाना है ... हम प्रतिदिन जाने कितने अच्छे-बुरे निश्चय करते है ... और उनमें से कितनों पर कायम रह पाते है ... कभी सोचा है ? ...अरे- अरे आप तो हिसाब लगाने लगे ... सुना नहीं ... गाना क्या कहता ... हिसाब के बही-खातों से बात न कभी बनी है न कभी बनेगी ... बात सीधी है जैसी करनी वैसी भरनी /
यह सफ़र जितनी जल्दी शुरू करें उतना ही भला ... खुदा के पास जाना है ना ... पर खुदा दूर भी तो नहीं ... वो तो इत्ता पास है ... कि नज़रों की फोकल लेंग्थ भी ज्यादा है भाई ... या यूँ कहें नज़रों को अपनी और ही तो घुमाना है ... यह करके तो देखो जरा ... आँखे चकरा न जाये ... किसी ने क्या खूब कहा है... " खुदा ऐसे एहसास का नाम है, रहे सामने और दिखाई न दे " ... हाँ... हाँ अब ठीक समझे अंतर-मन की यात्रा की बात ही कही जा रही है ... छोडो इन हाथी घोड़ों को ... महल चौबारों को ... और इस अकड को तो अब्बी के अब्बी छोड़ दीजिये भाई / खुदा को कहाँ ढूंढ़ रहे है हम ... कहा ना खुदा ...याने खुद ... खुद को खोजने में झूठ का सहारा लेंगे तो खुद को ही न ठगेंगे / ..... कुछ दिनों में मैं भी इस तरह की एक यात्रा पर जाने वाला हूँ ... यह गाना मेरे कानों में गूंजता रहेगा ... लौट कर बताऊंगा की पैदल यात्रा में कितनी दूर जा पाया ... सुना है कोशिश करने वालों की हार नहीं होती ... " तीसरी कसम " फिल्म का यह शानदार नगमा फ़िलहाल आपके साथ कुछ दूर पैदल चलने को तैयार है .... OK ...TATA .."
गुरुवार, 17 नवंबर 2011
धर्म सनातन......
धर्म सनातन......
धर्म सनातन...... # कल्याणमित्र सत्यनारायण गोयनका
जोकर्तव्य है वह धर्म है , जो अकर्तव्य है , वह अधर्म है . या यो कहें जो करणीय है , वह धर्म है , जो अकरणीय है वह अधर्म है . आज से २६०० वर्ष पहले अकरणीय के लिए एक और शब्द प्रयोग में आता था - विनय . २६०० वर्ष के लम्बे अन्तराल में भाषा बदल जाती है , शब्द बदल जाते हैं , शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं . आज की हिंदी में विनय कहते है विनम्रता को . विनय शब्द का एक प्रयोग प्रार्थना के लिए भी होता था . परन्तु उन दिनों की जन - भाषा में विनय कहते थे दूर रहने को , यानि वे बुरे काम जिनसे दूर रहा जाय ,विरत रहा जाय . इस अर्थ में भगवान बुद्ध की शिक्षा " धर्म और विनय " कहलाती थी . यानि वह शिक्षा जो बताती है कि क्या धर्म है ? क्या विनय है ? क्या धारण करने योग्य है ? क्या करणीय है ? और क्या अकरणीय है ?
निःसंदेह करणीय वह है जो हमें सुखी रखे . औरों को भी सुखी रखे . हमारा भी मंगल कल्याण करे, औरों का भी मंगल कल्याण करे . और अकरणीय वह है जो हमारी भी सुख शांति भंग करे औरों कि भी सुख शांति भंग करे . इस कसौटी पर कस कर जो कर्म किये जायं वे धर्म और जिन जिन कर्मों का त्याग किया जाय वे विनय .
इसी समझावन में धर्म शब्द का अर्थ और बड़ा हो गया . जो करने योग्य है उसका करना तो धर्म है ही , परन्तु जो करने योग्य नहीं है उसका न करना भी धर्म है . यानि धर्म तो धर्म है ही विनय भी धर्म है. हम मनुष्य हैं . सामाजिक प्राणी हैं . हमें अनेकों के साथ रहना होता है . औरों के साथ रहते हुए हम स्वयं कुशलतापूर्वक रह सकें , तथा औरों कि कुशलता में सहयोगी बन सकें , यही आदर्श मानवी जीवन है . इसे ध्यान में रखते हुए शरीर एवं वाणी से कोई भी ऐसा कर्म न करें , जिससे औरों कि सुख शांति भंग हो , औरों का अकुशल हो, अमंगल हो.
अपना सही सही मंगल करने के लिए हमें अपने बारें में पूरी-पूरी जानकारी प्राप्त करना होती है और वह किसी से सुनकर नहीं और न ही मात्र किसी पुस्तक को पढ कर. अपने बारें में सही जानकारी हमें अपने निजी अनुभव से करनी होती है. भगवान ने इसीलिए विपश्यना साधना का अभ्यास सिखाया . इस अभ्यास द्वारा हम अपने बारे में जानते- जानते हम अपनी समस्याओं के बारे में जानने लगते हैं और उनका उचित समाधान पाने लगते हैं . अपने दू:खों का अपने संतापों का सरलता से निराकरण करने लगते हैं. यह सब उपदेशों से, यानि परोक्ष ज्ञान से नहीं . बल्कि प्रज्ञा से, यानि प्रत्यक्ष ज्ञान से समझ में आने लगता हैं कि शील सदाचार के नियमों को तोड़कर हम पहले अपनी सुख शांति भंग कर लेते हैं और उसके बाद ही किसी अन्य कि सुख -शांति का हनन करते हैं . और यह भी तभी समझ में आने लगता है कि शील-सदाचार का पालन करके शरीर और वाणी के दुष्कर्मों से विरत रहकर हम किसी अन्य प्राणी पर कोई एह्साह नहीं करते . वस्तुतः हुम अपने आप पर ही एहसान करते हैं . अतः शील -सदाचार का जीवन - जीना औरों के हित में हि नही , बल्कि अपने स्वयं के हित में भी आवश्यक हैं. अनिवार्य हैं . यही धर्म हैं .
अच्छा हो . यदि हम इस शुद्ध सनातन धर्म को हिन्दू, बौद्ध , जैन , सिक्ख , मुस्लिम, ईसाई , आदि नामों से न पुकारें , इन सांप्रदायिक विशेषणों से मुक्त रखें ; जाति, गौत्र, कुल , वंश , और सर्व अहितकारिणी वर्ण विभाजक व्यवस्था से मुक्त रखें जिससे कि मनुष्य-मनुष्य बीच प्यार में धर्म के नाम पर कोई दरार न पड़ने पाए. इसी में सबका मंगल हैं . इसी में सबका कल्याण हैं . Visit : www.vridhamma.org

निःसंदेह करणीय वह है जो हमें सुखी रखे . औरों को भी सुखी रखे . हमारा भी मंगल कल्याण करे, औरों का भी मंगल कल्याण करे . और अकरणीय वह है जो हमारी भी सुख शांति भंग करे औरों कि भी सुख शांति भंग करे . इस कसौटी पर कस कर जो कर्म किये जायं वे धर्म और जिन जिन कर्मों का त्याग किया जाय वे विनय .
इसी समझावन में धर्म शब्द का अर्थ और बड़ा हो गया . जो करने योग्य है उसका करना तो धर्म है ही , परन्तु जो करने योग्य नहीं है उसका न करना भी धर्म है . यानि धर्म तो धर्म है ही विनय भी धर्म है. हम मनुष्य हैं . सामाजिक प्राणी हैं . हमें अनेकों के साथ रहना होता है . औरों के साथ रहते हुए हम स्वयं कुशलतापूर्वक रह सकें , तथा औरों कि कुशलता में सहयोगी बन सकें , यही आदर्श मानवी जीवन है . इसे ध्यान में रखते हुए शरीर एवं वाणी से कोई भी ऐसा कर्म न करें , जिससे औरों कि सुख शांति भंग हो , औरों का अकुशल हो, अमंगल हो.

अपना सही सही मंगल करने के लिए हमें अपने बारें में पूरी-पूरी जानकारी प्राप्त करना होती है और वह किसी से सुनकर नहीं और न ही मात्र किसी पुस्तक को पढ कर. अपने बारें में सही जानकारी हमें अपने निजी अनुभव से करनी होती है. भगवान ने इसीलिए विपश्यना साधना का अभ्यास सिखाया . इस अभ्यास द्वारा हम अपने बारे में जानते- जानते हम अपनी समस्याओं के बारे में जानने लगते हैं और उनका उचित समाधान पाने लगते हैं . अपने दू:खों का अपने संतापों का सरलता से निराकरण करने लगते हैं. यह सब उपदेशों से, यानि परोक्ष ज्ञान से नहीं . बल्कि प्रज्ञा से, यानि प्रत्यक्ष ज्ञान से समझ में आने लगता हैं कि शील सदाचार के नियमों को तोड़कर हम पहले अपनी सुख शांति भंग कर लेते हैं और उसके बाद ही किसी अन्य कि सुख -शांति का हनन करते हैं . और यह भी तभी समझ में आने लगता है कि शील-सदाचार का पालन करके शरीर और वाणी के दुष्कर्मों से विरत रहकर हम किसी अन्य प्राणी पर कोई एह्साह नहीं करते . वस्तुतः हुम अपने आप पर ही एहसान करते हैं . अतः शील -सदाचार का जीवन - जीना औरों के हित में हि नही , बल्कि अपने स्वयं के हित में भी आवश्यक हैं. अनिवार्य हैं . यही धर्म हैं .

मंगलवार, 15 नवंबर 2011
हुस्न हाज़िर है ...

लैला की बस इतनी सी इल्तेज़ा ही तो है कि उसके दीवाने को कोई पत्थर से ना मारे / पर दिल कि तलस्पर्शी गहराइयों से निकलती उसकी आवाज़ सबके उठे हाथों को रोकती ही नहीं सोंचने को मजबूर भी कर देती है ... वो अपने आप को मज़नू के इन हालातों के लिए जिम्मेवार ही नहीं मानती उसकी खातिर हर सजा भुगतने को सिम्पली हाज़िर है / लता जी की सुरीली सदाबहार आवाज़ मदन मोहन साहब के संगीत में ढल कर मानो या ना मानो सहरा में मीठे पानी के चश्मों की मानिंद लगती है /
युवा रंजीता का संजीदा अभिनय इस गीत में चार-चाँद लगा देता है ... " पत्थरों को भी वफ़ा फुल बना सकती है ... ये तमाशा भी सरे-आम दिखा सकती है " ... इस जद्दोजहद में लैला अपनी दुआ को अर्श तक पंहुचा कर ही दम लेती है ... जिसका असर बाहर नहीं अपने अन्दर साफ महसूस किया जा सकता है ......... फिल्म " लैला मज़नू " आज से करीब 32 साल पहले बनी थी ... उस समय सुपरहिट रही इस फिल्म के इस गीत का लोगों पर गज़ब का असर था ...आज जो दिखाई नहीं देती वो चवन्नी-अठन्नी तब की आम जनता इस गाने के बजते ही सिनेमा-घरों के रुपहले परदे पर यूँ ही बरसा देती थी ...तब की चवन्नी आज के 6 -7 रूपये बराबर होती होगी .... अगर आप गाना सुन रहे होंगे तो वह भी अब समाप्ति की और ही होगा ... शुभ दिन .........!!!

रविवार, 13 नवंबर 2011
" मैं तो आरती उतारूँ रे ..."
" मैं तो आरती उतारूँ रे ..."

यह गीत एक सामान्य लय-ताल में डोलक-मंजीरों की आवाज के साथ शहनाई के संग शुरू होता है ..फिर तो उषाजी की आवाज जैसे इस गीत को आसमानी उचाईयों पर ले जाती है / भक्तिरस के साथ माँ संतोषी का गुणगान धीरे-धीरे चरम पर पहुँच जाता है ...बहुत ही सामान्य से फिल्मांकन के असामान्य नतीजो के लिए जानीजाने वाली यह कृति कितने संतोष-भाव से गढ़ी गयी है ...यह बात इस गीत में सहज अनुभव की जा सकती है ... गरबा डांस के निहायत आसान से स्टेप्स भी गीत में जान फूंके बिना नहीं रहते /
संतोषी माँ अगर मंदिर से मन के अन्दर बस जाये तो वरदान के भंडार मानो जैसे खुल ही गए समझो ...संतोष धन अपने अन्दर थोडा सा भी जगे तो बड़े फल मिलते ही है ... जीवन सुधर जाता है ... फिर मन का मयूरा बरबस नाच उठता है ... सुन कर देंखे जरा इस पुराने सदाबहार नगमे को ... एक अलग एंगल से ...एक अलग अंदाज से ...मन संतोष से भर जाये बस और हमें क्या चाहिए ....
मैं तो आरती उतारू रे ...
मैं तो आरती उतारू रे ...
1975 में बनी फिल्म " जय संतोषी माँ " का यह गीत ..." मैं तो आरती उतारूँ रे ..." अपने समय के सारे रिकार्ड तोड़ कर बड़ा मशहूर हुआ था ... हिंदी सिनेमा की दस शीर्ष हिट फिल्मों में शुमार इस फिल्म का यह गीत मंगेशकर बहनों में कम मशहूर उषा जी के गले की देन है ... संतोषी माँ जिसके साथ हो फिर उसकी तो पौ-बारा ही समझे ... एक कम बजट की, सामान्यसी फिल्म के साथ संतोषी माँ की बड़ी कृपा रही ...कवि प्रदीप की लेखनी से निकला गीत " मैं तो आरती उतारू रे ..." उस समय के जनमानस पर जैसे जादू का सा असर कर गया था /
यह गीत एक सामान्य लय-ताल में डोलक-मंजीरों की आवाज के साथ शहनाई के संग शुरू होता है ..फिर तो उषाजी की आवाज जैसे इस गीत को आसमानी उचाईयों पर ले जाती है / भक्तिरस के साथ माँ संतोषी का गुणगान धीरे-धीरे चरम पर पहुँच जाता है ...बहुत ही सामान्य से फिल्मांकन के असामान्य नतीजो के जानी- जानी वाली यह कृति कितने संतोष-भाव से गढ़ी गयी है ...यह बात इस गीत में सहज अनुभव की जा सकती है ... गरबा डांस के निहायत आसान से स्टेप्स भी गीत में जान फूंके बिना नहीं रहते /
संतोषी माँ अगर मंदिर से मन के अन्दर बस जाये तो वरदान के भंडार मानो जैसे खुल ही गए समझो ...संतोष धन अपने अन्दर थोडा सा भी जगे तो बड़े फल मिलते ही है ... जीवन सुधर जाता है ... फिर मन का मयूरा बरबस नाच उठता है ... सुन कर देंखे जरा इस पुराने सदाबहार नगमे को ... एक अलग एंगल से ...एक अलग अंदाज से ...मन संतोष से भर जाये बस और हमें क्या चाहिए ....

यह गीत एक सामान्य लय-ताल में डोलक-मंजीरों की आवाज के साथ शहनाई के संग शुरू होता है ..फिर तो उषाजी की आवाज जैसे इस गीत को आसमानी उचाईयों पर ले जाती है / भक्तिरस के साथ माँ संतोषी का गुणगान धीरे-धीरे चरम पर पहुँच जाता है ...बहुत ही सामान्य से फिल्मांकन के असामान्य नतीजो के जानी- जानी वाली यह कृति कितने संतोष-भाव से गढ़ी गयी है ...यह बात इस गीत में सहज अनुभव की जा सकती है ... गरबा डांस के निहायत आसान से स्टेप्स भी गीत में जान फूंके बिना नहीं रहते /

मंगलवार, 8 नवंबर 2011
मैं तो उड़ जाऊंगा एक पंछी जैसे ...
मैं तो उड़ जाऊंगा एक पंछी जैसे ...

" ये गुलिश्तां हमारा " फिल्म का यह गीत सुने तो मालूम होगा करघे की आवाज को कितनी खूबसूरती से इस गीत के प्राण बना दिए हैं ... इस गीत की शुरुआत ही होती है, करघे के ताने-बाने की आवाज से ...मामूली सी करघे की आवाज भी किस खूबसूरती सी गीत मुख्य धारा में आकर अनमोल हीरे-सी निखर गयी हैं .... गीत का फिल्मांकन इतनी दुर्लभ सहजता से किया गया हैं कि गीत की धुन में खोकर समय का एहसास ही नहीं होता और गाना ख़तम हो जाता हैं ... संगीत के ताने-बाने को रचने पंचम-दा बस बैठे ही होंगे ..... तभी वहां आनंद बक्षी साहब का कवि मन देव साहब का रूप धर प्रगट हुआ होगा ... और वहां सिक्किम की वादियों में पेड़ों के पीछे छिपे किशोरे-दा भी अपने आप को रोक नहीं पाए होंगे ... लता जी को भी अपनी सुरीली आवाज शर्मीला जी देना ही पड़ी होगी .. इस सुखद संयोग का इन्तेजार कर रहे निर्देशक आत्माराम ने इसे बखूबी फिल्माया है .. तभी तो यह गीत 1972 के उस दौर से आज तक गीत-संगीत के प्रेमियों को बरबस अपनी और खींचता रहता है ... आप इसे आज भी सुने तो यह बड़ी आसानी से आपके मन को दूर वादियों की सैर... घर बैठे-बैठे करवा देने की अद्भुत क्षमता रखता है ... बस 3 मिनिट 56 सेकंड का समय ही तो आप को देना है ... और सातों लोगों यह टीम अपना काम बखूभी निभा देगी /
काम भले बुनाई का क्यों न हो ! ... जीवन को हर क्षण जीने वाले भला कहाँ चुप रहते है ...तराना छेड़ ही देते है ... फिर प्रकृति भी जवाब देना नहीं भूलती है ... ताने-बाने की खटपट एक चादर सी बुनती ही जाती है ... बस कबीरदास जी ने यह चादर खूब बुनी ... अपनी चादर का उपयोग बिना मैले किये किया .. सचेत रहे ... और रख दी जैसे उस का उपयोग ही नहीं किया हो /
मन का धागा संवेदनाओं के साथ संयोग कर चुपचाप चादर बनाते रहता है ... और सोंचता है .. " मैं तो उड़ जाऊंगा एक पंछी जैसे ..." पर नहीं जानता ... वह बंधता ही जा रहा है ...दयालु प्रकृति खूब जानती है .. कई बार कहती है ... सचेत करती है ... बार बार समझाती है ... तेरे ही बुने जाल में ही तू फंसता जा रहा है... पर कहाँ सुनते है हम ? ... प्रकृति की हर समझाईश जैसे बेकार जाती नजर आती है ... उधेड़बुन में लगा मन... धीरे-धीरे ताने-बाने की खटपट में गुम होने लगता है ... और यह आवाज फिर से आती है ... " चाहे छुप जा तू घटाओं में चन्दा.. ढूंढ़ ही लेगी ये चकोरी रे " ... तानेबाने की आवाज अब भी आ ही रही ... एक बारी फिर सुने तो ... जरा ध्यान से ...!!!
( नोट : मैं जानता हूँ की मेरी बात इस ब्लॉग के माध्यम से कई लोगों तक पहुँच रही होगी .. मेरा कहा पसंद आये आपको यहाँ तक तो ठीक है पर किसी बात से आपका मन आहत हो तो मुझे जरूर आगाह कीजियेगा मैं कोशिश करूँगा सुधार की ...मंगल हो !!! )
सोमवार, 7 नवंबर 2011
सत्य अकेला न पड़े !!
सत्य का रास्ता लम्बा होता है ...और असत्य का रास्ता कहीं नहीं पहुंचता ... सत्य के साथी जैसे धीरज, पराक्रम, लगन, जागरूकता, और निष्काम सेवा, अहिंसा और मन पर नियंत्रण सत्य के साथ हो तो सत्य की ताकत बहुत बाद जाती है / ... धीरज, पराक्रम, लगन, जागरूकता, और निष्काम सेवा, अहिंसा और मन पर नियंत्रण के साथ , मन के विकारों से मुक्ति का उपाय इसके ऐसे साथी है ...जिनके बिन सत्य अकेला पड़ जाता है /// अतः सत्य के रास्ते चलना अच्छा है .. अच्छा है धैर्य साथ रहे/
..
. अच्छा है मन में लगन, जागरूकता और निष्काम सेवा का भाव रहे .. अहिंसा का लक्ष्य हो ..अधिक अच्छा है मन पर नियंत्रण रहे .. अच्छा है मन के विकारों से विमुक्ति का रास्ता हाथ लगे ... पर सबसे अच्छा है हम इस राज मार्ग पर चलने लगे ... सत्य का मार्ग एक जन्म नहीं .. कई कई जन्मों तक चलता रहता है ... छोटे मोटे पड़ाव ... आते रहेंगे !!!!!!!!!! मंगल हो !!!!!
. अच्छा है मन में लगन, जागरूकता और निष्काम सेवा का भाव रहे .. अहिंसा का लक्ष्य हो ..अधिक अच्छा है मन पर नियंत्रण रहे .. अच्छा है मन के विकारों से विमुक्ति का रास्ता हाथ लगे ... पर सबसे अच्छा है हम इस राज मार्ग पर चलने लगे ... सत्य का मार्ग एक जन्म नहीं .. कई कई जन्मों तक चलता रहता है ... छोटे मोटे पड़ाव ... आते रहेंगे !!!!!!!!!! मंगल हो !!!!!
रविवार, 6 नवंबर 2011
असोक की सफलता का राज ....
असोक की सफलता का राज ....
" तलवार के बल पर सम्राट अशोक कलिंग पर विजय पा चूका था ... हिंसा और उसका तांडव जो उसके फैलाया था उसके परिणाम उसके सामने थे ...हिंसा के रास्ते हल नहीं निकलते .. डंडे के बल पर हम प्रजा के दिलों पर राज नहीं कर सकते .... ऐसी समझाईश इस लढाई से पहले उसके अनुभवी सलाहकार उसे एक नहीं कई बार दे चुके थे....परन्तु वह अपनी हट पर कायम रहा ... लोकतंत्र ना होने के कारण वह अपनी मर्जी का मालिक था और कलिंग का युद्ध टाला न जा सका था /
युद्ध की विभीषिका देख सम्राट अशोक का ह्रदय आत्मग्लानी से भर उठा ... पश्चाताप की अग्नि उसके दिल में धधक उठी .. वह सही मायनों में अपनी प्रजा की भलाई के लिए तड़पने लगा ... उसे यह बात समझ में आ गयी की हम अपने मन के विकारों के कारण ही दुखों में पड़ते है ... जिसका मन प्रेम और करुणा से भरा है वह हिंसा से विरत ही रहता है और जिसका मन क्रोध और वैमनष्य से ओतप्रोत है वह न चाहकर भी हिंसा और अपराध में पड़ ही जाता है ... सदाचार, प्रेम और करुणा के उपदेशों से मन के विकारों पर एक झीना - सा पर्दा ही पड़ता है ....डर कर मानव-मन मौके का इंतजार ही करता है ... मन के विकार मौका मिलते ही फिर उभर आते है ..और जीवन में कड़वाहट घोल देते है / यह मामूली सी बात उसे अब बहुत महत्व की जान पड़ी /
पहले पहल तो उसने राजतंत्र को ठीक से चलाने के लिए कड़े कानून बनाये ..और उनके पालन को सुनिश्चित करने के लिए अधिकारी नियुक्त किये ...पर उसने देखा की कड़े कानून और सजाओं का डर भी वह प्रभाव नहीं ला पा रहा है ..जो वह चाहता था .. वह चाहता था उसका राज, सुराज की मिशाल बने, जनता की बीच सद्भाव और प्रेम बड़े, लोग स्वभावतः ईमानदार और आदर्श नागरिक बने, प्रशासन की सारी ताकत और समय जो अपराध नियंत्रण और कानून लागु करवाने में जाया होती है ..उसका सदुपयोग प्रजा की भलाई में कैसे काम आये ... इस हेतु वह आतुर हो उठा /
उसका सौभाग्य जागा ...कहीं से यह सलाह मिली की राजन ऐसे उपाय है जिससे हमारे मन के विकार मिटाये जा सकते है .. विकारों से ऊपर - ऊपर नहीं जड़ों तक छुटकारा पाया जा सकता है ...मन के विकार जैसे लालच, घृणा , वासना और द्वेष इत्यादि से मुक्त होता मन स्वभावतः सदाचार और सहिष्णुता की ओर अग्रसर होने लगता है /
यह सुझाव उसके गले तो उतरा पर अपनी प्रजा को जिसे वह अपनी संतान के तुल्य मानने लगा था ..काफी सतर्क था ...इस उपाय को प्रजा पर लागु करने से पहले वह खुद इस राह पर चलकर देखना चाहता था, ताकि अपनी प्रजा को वह स्वयं अनुभव करके देखा हुआ रास्ता दे पाए ..कही कोई उलझन न रहे / पर इस हेतु समय की दरकार थी ..विपश्यना साधना रूपी उपाय को आजमाने के लिए उस समय करीब ३०० दिनों का समय लगता था .. राजतन्त्र में जहाँ आये दिन षड़यंत्र और समस्याएं आती है यह कैसे संभव होगा ? पर वह किसी भी कीमत पर प्रजा की भलाई के लिए यह खतरा मोल लेने को तैयार था / उन दिनों राजस्थान के बैराठ में विपश्यना का एक सुप्रसिद्ध केंद्र था / वह वहाँ गया और ३०० दिनों के बाद अपनी राजधानी लौटा ...मन के विकारों का जो बोझ लेकर वह गया था ...उस बोझ के उतर जाने पर वह आश्वश्त था की यह उपाय उसकी अपनी प्रजा की वास्तविक भलाई के लिए प्रभावी सिद्ध होगा / अब उसने अपनी प्रजा के लिए विपश्यना के केंद्र बनवाये और वहाँ जाने के लिए अपने परिवार, मंत्रियों , शासन के अधिकारीयों , कर्मचारियों और प्रजा को प्रेरित करने लगा / धीरे - धीरे इसके परिणाम आने लगे / सम्राट अशोक का शासन सुराज में बदलने लगा ...इसकी भूरी भूरी प्रशंसा व्हेनसांग और अनेकों चीनी यात्रियों ने अपने संस्मरणों में की है /
आज जब फिर से गाँधी जी ( Gandhi ) और उनके अहिंसक आन्दोलनों की हम केवल चर्चा ही नहीं कर रहे हैं ... उन पर चलकर भी देखा जा रहा है ... ऐसे में अगर दुसरें सुधर जाय... मैं तो ठीक हूँ ...की जगह सुधार की पहल पहले हमारी और से हो .... अभी कल कहीं से सुना कि " पहला पत्थर भ्रष्टाचारियों पर वो फेंके जिसने कोई पाप नहीं किया हो ... तब तो समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज ही नहीं उठेगी "...एक हद तक सही है पर नकारात्मकता से भरी हुई है .... पर अगर इसे यूँ कहा जाये कि उस पर पहला पत्थर मारा जाय जो हमारे सबसे नजदीक हो ... तो शायद हमारी नज़र हम पर पहले पड़ेगी किसी पर पत्थर फेंकने की नौबत ही न पड़े ... और असोक ने दोनों काम किये.... पर सफल तो वह दुसरे सकारात्मक विचार को क्रियाशील करके ही हुआ ...तभी तो वह अपने एक प्रसिद्ध शिलालेख में लिखता है - " मनुष्यों में जो धर्म की बढोतरी हुयी है वह दो प्रकार से हुयी है - धर्म के नियमों से और विपश्यना ध्यान करने से / और इनमे धर्म के नियमों से कम और विपश्यना ध्यान करने से कहीं अधिक हुयी है / " और विपश्यना ध्यान स्वयं के भले कि अनुपम साधना है ...क्योंकि अपनी भलाई मैं सबकी भलाई समायी हुई है / visit- www.vridhamma.org
शुक्रवार, 4 नवंबर 2011
..महंगाई मार गयी !!
..महंगाई मार गयी .
ये महँगाई पर latest गीत है ... पिपली लाइव का गीत ससुरा भी latest है पर सदाबहार नहीं ...महँगाई भी ससुरी सदाबहार है पर latest नहीं !! ... मैं छोटा था तब भी महंगाई का रोना था ...पुरानी फ़िल्में देखता हूँ ...उनमें भी महँगाई ने कहानी को अकसर महत्वपूर्ण एवं निर्णायक मोड़ दिए है ... पुराने भारत में भी थी ...यहाँ तक की रामायण काल में सबरी के घर रही ... कृष्ण युग में सुदामा को जकड़े रही ...कबीर के सामने पसरी रही ( यह अगल बात है की कबीर जी की चादर पर अपना रंग न छोड़ पाई ) ...
पर एक ख्याल आता है ... हम इंसानों में कितनी बेकरारी है ...देखें अरबों खरबों पशुओं को , पक्षियों को उनके पास कोई संग्रह नहीं , कोई अर्थशास्त्र नहीं, कोई पक्ष नहीं तो विपक्ष भी कहाँ होगा ? ...उनका सारा खर्च खाने-पीने का ... घास-फूस का ... दाने-पानी का ... कितना होगा सोंच भी नहीं सकते ... पर देखो सब चलता रहता है .... एक नहीं कई बारी तो उनका संतोषी जीवन हमारी इर्ष्या का कारण बना है .... उदास न हों ... रोते-रोते भी यह जिंदगानी कट ही जाएगी ... तो क्यों न हँसते-हँसते काटे इस जिंदगानी को ...इस गीत मजा जरूर ले ले कोई फैसला होने तक..
गुरुवार, 3 नवंबर 2011
उसने फिर धक्का दिया , मैंने नहीं लिया !!!
उसने फिर धक्का दिया , मैंने नहीं लिया !!!
सुना आपने फिर बढ़ गया पेट्रोल का भाव है ... और बढ़े इसके भाव मेरी बला से ... / हुआ यूँ की पिछली के पिछली के पिछली के पिछली बार जब भाव बढ़े तो सोचा कोई हमें परेशान करे और हम हो जाये तो गलती उसकी नहीं हमारी ही तो है ... गोविंदा की एक फिल्म का डायलोग " मैंने तुझे धक्का दिया, तुने क्यों लिया " बस यही बात उस समय दिमाग मैं कौंध गयी ... और तलाश शुरु की, धक्का प्रूफ आइटम की , आइन्दा जब अगली बार दाम बड़े तो मैं रोऊ नहीं हँस सकूँ ... इस तरह से फिर दाम बढे और मैं अछूता रहा .. ...अनटच रहा ... न दिल टुटा ...और न जला ... न किसी को कोसने में उर्जा ख़त्म हुयी और न ही सामूहिक रुदन में शामिल हुआ / आप भी अगर हँसना चाहे तो मेरे साथ इस गाने को गुनगुना कर हँस सकते है ..." जब अपने हो जाये बेवफा तो दिल टूटे ... जब दिल टूटे तो रोयें क्यूँ ..हम नाचें क्यूँ नहीं ..हम गायें क्यूँ नहीं ..."
चलो अब बता ही देता हूँ ... यूँ तो पिछले चार-पांच सालों से मेरी नजर में वो थी ... तीन चार बार तो उससे मिला भी ..पर अपना नहीं सका ... पिछली बार ( June 2011 )जब पेट्रोल के भाव बढ़े तो ज्यादा न सोंचते हुए उसकी ओर कदम बड़ा ही दिए ...और खरीद ली मित्रों एक " इलेक्ट्रिक बाईक " ... आज दो महीने हो गए ... फिक्र को धुएं में नहीं उड़ाता.... जिस तरह धीरे से खटमल, खटियन में जाता है...बस ठीक उसी मानिंद सड़क पर किसी के भी पास से गुजर जाता हूँ ... भुत की तरह ... बिना आवाज कहीं भी प्रगट हो सकता हूँ ...//
दोस्तों इलेक्ट्रिक बाईक ले लेने में कोई बुराई नहीं ... फायदे अनेक है ... हर तरह से सोचा जाये तो ये बाईक ६० पैसे / किमी पड़ती है ...यानि पेट्रोल स्कूटर से तुलना करें तो १.५० पैसे / किमी का फायदा / मोटर सायकल से तुलना की जाये तो ८५ पैसे / किमी का फायदा / और चलने चलने मैं बड़ी आराम दायक और डबल सीट ४० किमी/ घंटा की रफ़्तार से दौड़ सकती है ... अंत मैं अपनी बात ख़त्म करते हुए कहता हूँ ... पेट्रोल के बढ़ते भावों से परेशान हो तो इसे ले क्यों नहीं लेते ..!!!
... पर गाँधी ऐसे तो नहीं थे ?
... पर गाँधी ऐसे तो नहीं थे ?
पुरुस्कार जीता हुआ व्यक्ति बेईमानी कर ही नहीं सकता और ... बड़ा दानी व्यक्ति गलती करें तो कोई फर्क नहीं पड़ता..... यहीं सन्देश आजकल परोसा जा रहा है .... भाई जी गलती अगर हम करे तो वह हमारे मैले आँचल पर कम दिखाई देगी ... पर किसी उजली चादर वाले के दामन पर ज्यादा ... बस यहीं से विनम्रता का पहलु सामने आता है ... हमारे जैसा इन्सान अपनी गलती मानने में शायद अपराधिक देरी कर जाय ...पर एक उजाला और समझदार इन्सान यही पर विनम्रता से उसे कबूल करता है ... कई बार तो वह स्वतः संज्ञान लेकर आगे बढकर कोई बताये इससे पहले अपनी चुक मान लेता है... एसा करके वह औरों के लिए आदर्श और अपनी नजरों में कहीं अधिक उठ जाता है ... उजले व्यक्तिव का इन्सान कभी भी अपनी मामूली सी गलती को हिमालय सा बड़ा और दूसरों की बड़ी गलतियों को मुआफ करने की गजब ताकत रखता है ... इसी से ज़माने के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत होता है की हर मानव से गलती संभव है ... इसलिए वह अकर्मण्य न बने ... डरें नहीं ... और न ही घबराये ... पर गलती करके उसे कबूल न करके दूसरी ओर उल्टा सरकार या किसी को भी जो उसके जुर्म की याद दिलाये उसे शुक्रिया कहने की जगह कोसना या धिक्कारना ठीक तो नहीं ...निंदक नियरे राखिये... कबीर दास जी की अनूठी और काम की सिख है..... पर आज के माहौल में यह बात लोग समझने को राजी नहीं ... अन्ना का सप्पोर्ट करने में और उनकी अच्छी बातों के अनुरूप आचरण करने में यही फर्क है .... इसीलिए उनके भक्त सप्पोर्ट करने का आसन रास्ता अपनाते है और ऐसा करने को टीम भी कहती है ... सप्पोर्ट करना किसी बात को आचरण में उतारने से कहीं सरल है /
आज कल सत्याग्रह का प्रचार तो आये दिन दिखने -सुनने में आ रहा है, परन्तु इसका प्रभाव कहीं कुछ ठोस दिखाई नहीं पड़ता, लालच भ्रष्टाचार की लगाम है l लेकिन इस लगाम पर कोई लगाम नहीं... वहीँ ईमानदारी का गहना है विनम्रता और न्यायप्रियता, इस पर कोई विचार नहीं ... अतः एक हथियार फिर भी मौजूद है वह है सतर्कता ... एक-एक का मन सतर्क रहे इसके उपाय भी है ... मन में जब कभी लालच जगे ... बेईमानी जगे ... घमंड का प्रादुर्भाव हो ... बस वहीँ लगाम लगे ...तो असल बात बने ... वर्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ यह लडाई भी एक आडम्बर बनकर रह जाएगी .!!!
आज कल सत्याग्रह का प्रचार तो आये दिन दिखने -सुनने में आ रहा है, परन्तु इसका प्रभाव कहीं कुछ ठोस दिखाई नहीं पड़ता, लालच भ्रष्टाचार की लगाम है l लेकिन इस लगाम पर कोई लगाम नहीं... वहीँ ईमानदारी का गहना है विनम्रता और न्यायप्रियता, इस पर कोई विचार नहीं ... अतः एक हथियार फिर भी मौजूद है वह है सतर्कता ... एक-एक का मन सतर्क रहे इसके उपाय भी है ... मन में जब कभी लालच जगे ... बेईमानी जगे ... घमंड का प्रादुर्भाव हो ... बस वहीँ लगाम लगे ...तो असल बात बने ... वर्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ यह लडाई भी एक आडम्बर बनकर रह जाएगी .!!!
इससे क्या यह सन्देश जाने अनजाने नहीं जाता की एक ओर तो बड़े और ताकतवर लोग कानून से बच जाते है ... वहीँ दूसरी और समाज सेवी और महान लोग गलती की सजा से छुट के पुरे हक़दार है ... फंसना तो बीच के लोगों को ही है .... गुनाह मान लेने को बड़प्पन की निशानी यूँ ही नहीं कहा जाता ... आज भाई केजरीवाल ने फिर पैसा जमा करते वक्त सरकार को जमकर कोसा ... उन्हें कानून से कोई राहत की उम्मीद नहीं थी ...वर्ना वह यूँ ही कब हार मानते !
गांधीवाद का सहारा तो बस दुकान ज़माने के लिए है / इस आन्दोलन की शुरुआत में यह उम्मीद जगी थी की अब शायद युवा पीड़ी गाँधी और उनके युग की एक झलक देखकर अपने अतीत पर गर्व करेगी ... पर गाँधी ऐसे तो नहीं थे ? so let follow Anna inspite to only support !!!
बुधवार, 2 नवंबर 2011
भ्रष्टाचार से लड़ने की एक राह यह भी .....
विपश्यना
_______________________________________________________________
भ्रष्टाचार से लड़ने की एक राह यह भी ....
_______________________________________________________________

हमारे मन के मैल जैसे लालच भ्रष्ट तरीको से पैसा कमाने या चोरी के लिए उकसाता है, अत्यधिक क्रोध एवं घृणा की परिणिति मनुष्य को हत्यारा बनाने की क्षमता रखती है / इसी तरह अनेकों मन के विकार जब- जब मनुष्य के मानस पर हावी होते है तो वह मनुष्यत्व भूलकर पशुतुल्य हो उठता है यही बात सम्राट अशोक ने भी बड़ी गहराईयों से जान ली थी तभी वह अंपने राज्य में वास्तविक सुख शांति स्थापित करने में अत्याधिक सफल हुआ था / अपने एक प्रसिद्ध शिलालेख में वह लिखता है - " मनुष्यों में जो धर्म की बढोतरी हुयी है वह दो प्रकार से हुयी है - धर्म के नियमों से और विपश्यना ध्यान करने से / और इनमे धर्म के नियमों से कम और विपश्यना ध्यान करने से कहीं अधिक हुयी है / " यही कारण है की मनुष्य समाज को सचमुच अपना कल्याण करना हो वास्तविक अर्थों में अपना मंगल साधना हो तो उसे अपने मानस को सुधारने के प्रयत्न स्वयं ही करना होंगे / महात्मा गांघी की यह बात कितनी सार्थक है " If we obey the laws of GOD then we don't need man made LAWS... Gandhi ji."
विपश्यना साधना ( Vipassana meditation ) के आज भी वैसे ही प्रभाव आते है जैसे २६०० वर्ष पूर्व के भारत में आते थे / आचार्य श्री सत्यनारायण गोयनका जी के सद-प्रयत्नों से यह साधना उसी मौलिक रूप में आज हमें उपलब्ध है जैसी आज से २६०० वर्ष पूर्व उपलब्ध थी / सबके मंगल के लिए सबके कल्याण के लिए /
विपश्यना साधना ( Vipassana meditation ) के आज भी वैसे ही प्रभाव आते है जैसे २६०० वर्ष पूर्व के भारत में आते थे / आचार्य श्री सत्यनारायण गोयनका जी के सद-प्रयत्नों से यह साधना उसी मौलिक रूप में आज हमें उपलब्ध है जैसी आज से २६०० वर्ष पूर्व उपलब्ध थी / सबके मंगल के लिए सबके कल्याण के लिए /
रविवार, 23 अक्टूबर 2011
फायनली वें आ रही हैं ...
फायनली वें आ रही हैं ...

लक्ष्मी जी की टीम के अहम् सदस्य गणेश जी की सलाह पर इस बार वे धरती पर मंदी और महंगाई के चलते विशेष पैकज की घोषणा भी करने वाली है ... पर भ्रष्टाचार के चलते गरीबों तक धन नहीं पहुंचा पाने की मज़बूरी के चलते पहले से ही धरती पर उनके कार्यकर्त्ता अन्ना और बाबा रामदेव ने नाना प्रकार के अनसन किये और भांति - भांति के अस्त्र शास्त्रों का खुलेआम प्रदर्शन किया ... यहाँ तक की पुराने ज़माने की अचूक मिसाईल आमरण अनसन को भी झाड़ पोंछकर खूब चलाया / उसी मिसाईल के बार-बार के धमाकों से परेशां होकर लक्ष्मी जी के कार्यक्षेत्र भारत- भूमि की वर्तमान सरकार ने आखिर भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कड़ा कानून बनाकर अगली ठण्ड तक लागु करने का तय कर लिया है / धरती पर अन्ना की टीम के मंसूबों से भी आगे जाकर यह कानून केवल सरकारी कर्मचारियों तक सिमित न रहकर , निजी क्षेत्र एवं गैर सरकारी सेवा संगठनों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी नजर गढ़ायेगा ... ताकि कोई कोर कसर बाकि ना रहे .... आखिर धन की देवी के उपासक तो सभी है ना ?
हर बार की तरह इस बार भी लक्ष्मी जी ने यह कहा की सभी को उनकी योग्यता और कर्म फल के सिद्धांत से आगे जाकर कुछ भी दे पाना उनके वश में नहीं ... पर धरती पर बसने वाले उनके भक्त इस बात पर कान देने को तैयार नहीं ... वे धन की देवी लक्ष्मी को मनाने और प्रसन्न करने के यत्न करने लगे है ... लक्ष्मी जी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित हो इसके जतन वे खूब कर रहे है ... कई तरह की पूजा-पाठ, व्रत-उपवास और मुहूर्त निकले जा रहे है / वहीँ ऊपर आकाश से गणेश जी एवं माँ सरस्वती यह सब देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रहे है ... वे दोनों खूब अच्छी तरह जानते है ... धन की देवी लक्ष्मी उन लोगों की व्यर्थ की कोशिशों में न कभी उलझी है न उलझेंगी / गीता के कर्म के नियम को लक्ष्मी देवी खूब अच्छी तरह से मानती ही नहीं जानती भी है ... फायनली वें आ रही है ... बाहर-बाहर से साफ-सफाई और दिखावा भले करों ... पर अंतर साफ हो ..मन पर नियंत्रण रहे ... ये काम भी कर लो ... यहीं देखने फायनली वें आ रही है !!!!!
हर बार की तरह इस बार भी लक्ष्मी जी ने यह कहा की सभी को उनकी योग्यता और कर्म फल के सिद्धांत से आगे जाकर कुछ भी दे पाना उनके वश में नहीं ... पर धरती पर बसने वाले उनके भक्त इस बात पर कान देने को तैयार नहीं ... वे धन की देवी लक्ष्मी को मनाने और प्रसन्न करने के यत्न करने लगे है ... लक्ष्मी जी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित हो इसके जतन वे खूब कर रहे है ... कई तरह की पूजा-पाठ, व्रत-उपवास और मुहूर्त निकले जा रहे है / वहीँ ऊपर आकाश से गणेश जी एवं माँ सरस्वती यह सब देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रहे है ... वे दोनों खूब अच्छी तरह जानते है ... धन की देवी लक्ष्मी उन लोगों की व्यर्थ की कोशिशों में न कभी उलझी है न उलझेंगी / गीता के कर्म के नियम को लक्ष्मी देवी खूब अच्छी तरह से मानती ही नहीं जानती भी है ... फायनली वें आ रही है ... बाहर-बाहर से साफ-सफाई और दिखावा भले करों ... पर अंतर साफ हो ..मन पर नियंत्रण रहे ... ये काम भी कर लो ... यहीं देखने फायनली वें आ रही है !!!!!
सदस्यता लें
संदेश (Atom)