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मंगलवार, 8 नवंबर 2011

मैं तो उड़ जाऊंगा एक पंछी जैसे ...

मैं तो उड़ जाऊंगा एक पंछी जैसे ...





                                                                     
                     पंचम दा का संगीत भारतीय फिल्म संगीत में अपना अलहदा स्थान रखता हैं ... परंपरागत संगीत से हटकर उन्हौने अपने संगीत में कई प्रयोग किये जो तब भी हिट रहे और आज भी काफी मशहूर हैं ही /

                   " ये गुलिश्तां हमारा " फिल्म का यह गीत सुने तो मालूम होगा करघे की आवाज को कितनी खूबसूरती से इस गीत के प्राण बना दिए हैं  ... इस गीत की शुरुआत ही होती है, करघे के ताने-बाने की आवाज से ...मामूली सी करघे की आवाज भी किस खूबसूरती सी गीत मुख्य धारा में आकर अनमोल हीरे-सी निखर गयी हैं  .... गीत का फिल्मांकन इतनी दुर्लभ सहजता से किया गया हैं कि  गीत की धुन में खोकर समय का एहसास ही नहीं होता और गाना ख़तम हो जाता हैं ... संगीत के ताने-बाने को रचने पंचम-दा बस बैठे ही होंगे ..... तभी वहां आनंद बक्षी साहब का कवि मन देव साहब का रूप धर प्रगट हुआ होगा ... और वहां सिक्किम की वादियों में पेड़ों के पीछे छिपे किशोरे-दा भी अपने आप को रोक नहीं पाए होंगे ...  लता जी को भी अपनी सुरीली आवाज शर्मीला जी देना ही पड़ी होगी .. इस सुखद संयोग का इन्तेजार कर रहे निर्देशक आत्माराम ने इसे बखूबी फिल्माया है ..  तभी तो यह गीत 1972  के उस दौर से आज तक गीत-संगीत के प्रेमियों को बरबस अपनी और खींचता रहता है ... आप इसे आज भी सुने तो यह बड़ी आसानी से आपके मन को दूर वादियों की सैर... घर बैठे-बैठे  करवा देने की अद्भुत क्षमता रखता है ... बस 3  मिनिट 56  सेकंड का समय ही तो आप को देना है ... और सातों लोगों यह टीम  अपना काम बखूभी निभा देगी  /


                                     काम भले बुनाई का क्यों न हो  ! ... जीवन को हर क्षण जीने वाले भला कहाँ चुप रहते है ...तराना छेड़ ही देते है ... फिर प्रकृति भी जवाब देना नहीं भूलती है ... ताने-बाने की खटपट एक चादर सी बुनती ही जाती है ... बस कबीरदास जी ने यह चादर खूब बुनी ... अपनी चादर का उपयोग बिना मैले किये किया ..   सचेत रहे ... और रख दी जैसे उस का उपयोग ही नहीं किया हो /


                                         मन का धागा संवेदनाओं के साथ संयोग कर चुपचाप चादर बनाते रहता है ... और सोंचता है ..  " मैं तो उड़ जाऊंगा एक पंछी जैसे ..."  पर नहीं जानता ... वह बंधता ही जा रहा है ...दयालु  प्रकृति खूब जानती है .. कई बार  कहती है ... सचेत करती है ... बार बार समझाती है ... तेरे ही बुने जाल में ही तू फंसता जा रहा है... पर कहाँ सुनते है हम ? ...  प्रकृति की हर समझाईश जैसे बेकार जाती नजर आती है ... उधेड़बुन में लगा मन... धीरे-धीरे ताने-बाने की खटपट में गुम होने लगता है ... और यह आवाज फिर  से आती है   ... " चाहे छुप जा तू घटाओं में चन्दा..   ढूंढ़  ही लेगी ये चकोरी रे " ... तानेबाने की आवाज अब भी आ ही रही ... एक बारी फिर  सुने तो ... जरा ध्यान से ...!!! 

( नोट : मैं जानता हूँ की मेरी  बात इस ब्लॉग के माध्यम से कई लोगों तक पहुँच रही होगी ..  मेरा कहा पसंद आये आपको यहाँ तक तो ठीक है पर किसी बात से आपका मन आहत हो तो मुझे जरूर आगाह कीजियेगा मैं कोशिश  करूँगा सुधार की ...मंगल हो !!! )