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मंगलवार, 15 नवंबर 2011

हुस्न हाज़िर है ...


हुस्न हाज़िर है ...




                                         लैला की बस इतनी सी इल्तेज़ा ही तो  है कि उसके दीवाने को कोई पत्थर से ना मारे / पर दिल कि तलस्पर्शी  गहराइयों से निकलती उसकी आवाज़ सबके उठे हाथों को रोकती ही नहीं सोंचने को मजबूर भी कर देती है ... वो अपने आप को मज़नू के इन हालातों के लिए जिम्मेवार ही नहीं मानती उसकी खातिर हर सजा भुगतने को सिम्पली हाज़िर है /  लता जी की सुरीली सदाबहार आवाज़ मदन मोहन साहब के संगीत में ढल कर मानो या ना मानो सहरा में मीठे पानी के चश्मों की मानिंद लगती है /


                                                   

                                              युवा रंजीता का संजीदा अभिनय इस गीत में चार-चाँद लगा देता है  ...  " पत्थरों को भी वफ़ा फुल बना सकती है ... ये तमाशा भी सरे-आम दिखा सकती है "  ... इस जद्दोजहद में लैला  अपनी दुआ को अर्श तक पंहुचा कर ही दम लेती है ... जिसका असर बाहर नहीं अपने अन्दर साफ महसूस किया जा सकता है  ......... फिल्म " लैला मज़नू " आज से करीब 32 साल पहले बनी थी ... उस समय सुपरहिट रही इस फिल्म के इस गीत का लोगों पर गज़ब का असर था ...आज जो दिखाई नहीं देती वो चवन्नी-अठन्नी तब की आम जनता इस गाने के बजते ही  सिनेमा-घरों के रुपहले परदे पर यूँ ही बरसा देती थी ...तब की चवन्नी आज के 6 -7  रूपये बराबर होती होगी .... अगर आप गाना सुन रहे होंगे तो वह भी अब समाप्ति की और ही होगा ... शुभ दिन .........!!!