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मंगलवार, 22 नवंबर 2011

जहाँ कोई न हो ...

जहाँ कोई न हो ...



                           

                                 1950  में इस गीत की ज़ानिब जाँ निसार अख्तर साहब ने भी क्या खूब आरजू पेश कर दी  ..... ऐ दिल मुझे ऐसी जगा ले चल ...जहाँ कोई ना हो ....  दुनिया मुझे ढूंढे मगर मेरा निशाँ कोई न हो.... / फिर तो  यह ग़ज़ल तलत महमूद साहब की खास कपकपाती-सी आवाज, अनिल बिश्बास साहब के  सुरीले संगीत में राग दरबारी की स्वरलहरियों में  सजकर  अपनी खूबसूरती के चरम पर पहुँच जाती है /

                                                    नहीं जानता उस फिल्म की कहानी में दिलीप साहब को वैसी कोई जगह मिली भी या नहीं ... पर मन कहता है ऐसी जगा उस समय तो इस सरजमीं पर शायद ही मौजूद हो / बहुत ही खूबसूरती से ग़ज़ल अपने-पराये, मेहरबान- नामेहरबान सभी से दूर किसी सुकूं याफ्ता कोने की तलाश करते हुए कदम दर कदम चलती हुयी ....एक सूखे तरख्त के साये में अपना सफ़र जैसे पूरा करती हुयी ठहर जाती है .... इतिहास में दरख्तों और इंसानों का साथ यहाँ वहां बिखरा पड़ा है ... तथागत  ( Buddha  ) की सत्य की तलाश भी तो एक तरख्त के साये में ही पूरी हुयी थी / फ़िलहाल सुने इस ग़ज़ल को और मैं रुख करता हूँ वहां का ....जहाँ कोई न हो !!!