रविवार, 10 फ़रवरी 2013

लो फिर फूटा मन में लड्डू ..



     लो फिर फूटा मन में लड्डू ... जब तब मन में लड्डू फूटना आम बात हैं ... फिर भी आओ समझे लड्डू क्यूँ फूटते हैं ... और इनका फूटना कैसे रुके ... लड्डू फूटे और ख़ुशी मिले तो कुछ नहीं ... पर जब किसी एक सी घटना पर कहीं तो लड्डू फूटे और कहीं गम का पहाड़ टूटे तो इस बात की तहकीकात कर लेना उचित हैं .. की आखिर एक ही घटना की एक सी मानव संरचना पर एक- सा प्रभाव क्यूँ नहीं होता ... आओ समझे ... जैसा मैंने समझा ..


         कोई हमें लड्डू दे या मन में सही लड्डू उत्पन्न हो ... कोई कहे की लड्डू खाकर देख ... तो हम ...या तो तुरंत उसे चखेंगे ..पर साथ ही साथ ... देने वाले की वेशभूषा , देते वक्त बोली जाने वाली भाषा , लड्डू की गंध , लड्डू के रूपरंग  के बारें में हमें कोई जानकारी न हो तो ... हमारी प्रतिक्रिया कंफ्युस किस्म की होगी या फिर होगी सर्वाधिक सटीक ... क्योंकि तब दिमाग में लड्डू विषय में केवल स्वाद की संवेदनाएं ही जीभ की मार्फ़त पहुचेंगी और दिमाग उसी तरह की दिमाग में मौजूद जुनी जानकारी से मिलान कर फैसला देगा ... अगर किसी ऐसे  व्यक्ति को लड्डू दिया जाएँ ... जिसके दिमाग में लड्डू के विषय में कोई भी जानकारी पहले से मौजूद नहीं हो तो वह केवल सर हिलाएगा या कंफ्युस होकर जैसे तैसे  कुछ कह देगा ..बुदबुदा देगा ...या मन ही मन बडबडा कर रह जायेगा ... 

           परन्तु जब जब ऐसा  नहीं होगा ... वह लड्डू देने वाला कौन हैं ,  उसकी  वेशभूषा कैसी  हैं , क्या शब्द उच्चारण  करते हुए लड्डू देता हैं , लड्डू का रंग हरा है या केशरिया , इत्यादी जानकारियां भी दिमाग में लड्डू के साथ ही पहुचेंगी ... और पूर्व में उन उन जानकारियों के प्रति दिमाग में जमा संवेदनाओं के प्रकार से मिलन कर ... लड्डू के विषय में फैसला प्रभावित  हुए बिना नहीं रहेगा ...


          बस यही वह मोड़ है जहाँ से धर्म और अधर्म का रास्ता अलग अलग  होता हैं ... यहीं से  मन की अग्निपरीक्षा शुरू होती हैं ... यहीं से गीता में सर्वोच्च प्राथमिकता वाला ... भगवान का प्रिय " स्थित-प्रज्ञं दर्शन"  और उसकी सर्वोच्च स्थिति की तरफ बढ़ने का मार्ग आरूढ़  होता हैं .... 

                       भला हो !!!