गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

जब हम विश्व गुरु थे !!!


                 मितरो असहिष्णुता क्यों फैलती है ? अगर इस पर विचार करें तो पाएंगे की सम्प्रदाय ही इसके बढ़े कारण होते हैं । सम्प्रदाय अपना मुख्य काम समता प्रदाय करने की जगह विषमता प्रदाय अधिक करते हैं । आपसी सौजन्यता और सहिष्णुता ही हर तरह के विकास और उन्नति का बड़ा और प्रमुख आधार होता हैं । आओ जाने की तब हमारा लोक व्यवहार कैसा था ? जब हम विश्व गुरु थे ।

                       तो आओ मित्रों आज हम सम्राट असोक के एक शिलालेख ( गिरनार शीला द्वादस अभिलेख ) पर नज़र डालते हैं ।और समझने की कोशिश करते हैं क्यों उस कालखण्ड में हम विश्वगुरु थे । उस समय भी भारतवर्ष में 60 के आसपास सम्प्रदाय थे । पर असोक के सुराज में सभी में कमाल का बेलेंस था ।

गिरनार शिलालेख पर सम्राट असोक लिखवाता हैं :

1. देवनांप्रिय प्रियदर्शी राजा ( सम्राट असोक ) सब सम्प्रदायोंवालों, गृह त्यागियों तथा गृहस्थों का सम्मान करते हैं । ( वे ) दान और विविध प्रकार की अर्चना से उनका सम्मान करते हैं ।

2. किन्तु देवानां प्रिय दान अथवा अर्चना को उतना ( महत्वपूर्ण ) नही मानते जितना इसे की सब सम्प्रदायों में सार की वृद्धि हों ।

3. सार की वृद्धि अनेक प्रकार से होती हैं ।

4. किन्तु इसका मूल आधार यही हैं की वाणी पर नियंत्रण बना रहे । सो क्या ? कि बिना प्रसंग के अपने सम्प्रदाय की बड़ाई और अन्य सम्प्रदाय की निंदा ना हो अथवा प्रसंग विशेष में साधारण सी चर्चा हो ।

5. जिस किसी प्रसंग में अन्य सम्प्रदाय की प्रशंसा ही की जानी चाहिए ।

6. ऐसा करता हुआ व्यक्ति अपने सम्प्रदाय की उन्नति करता हैं और अन्य सम्प्रदायों पर भी उपकार करता हैं ।

7. इसके विपरीत करता हुआ व्यक्ति अपने सम्प्रदाय की हानि करता हैं और अन्य सम्प्रदायों पर भी अपकार करता हैं ।

8. क्योंकी जो कोई अपने सम्प्रदाय के प्रति आसक्ति होने के कारण कि कैसे मैं अपने सम्प्रदाय को प्रकाशित करूँ , अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और अन्य सम्प्रदाय की निंदा करने लगता हैं - वह ऐसा करता हुआ वास्तव में अपने सम्प्रदाय की खूब बढ़चढ़ कर हानि करता हैं ।

9. इसलिए मेलजोल ही उत्तम हैं । सो क्या ? कि लोग एक दूजे के धर्म ( अर्थात , धारण करने योग्य तत्व ) को सुने और सुनाये ।

मित्रों आजकल हो क्या रहा हैं हम ध्यान से देखें तो जो उपरोक्त शिलालेख में कहा गया है उसका बिलकुल उलट ही हो रहा हैं । अतः हमें सही लोकव्यवहार सीखना ही होगा ।

अगर हम म. गांधी के जीवन को देखें तो पाएंगे वे इस लोकव्यवहार में अधिक कुशल थे । उन्होने कभी किसी अन्य सम्प्रदाय की निंदा नही की , । हाँ अपने स्वयं के सम्प्रदाय की कमियों पर किसी प्रसंग विशेष में कभी कभार जब जरुरी हुआ कहा । मेलजोल को ही महत्व दिया । जब कभी जरुरी लगा दूसरों के सम्प्रदाय के सार तत्वों को ही महत्व दिया और सभी सम्प्रदायों के धारण करने योग्य गुणों को बखान ना करके करके उन्हें धारण करके भी दिखाया । तभी तो वे विश्व को भारतवर्ष के अतीत की झलक दिखला पाएं । और विश्व का उनमें कमाल का भरोसा जागा ।

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