
जैसे सदाचार, शील और मन के विकारों से लड़ना तथा मन पर काबू पाना धर्म के मूल अंग है और लगभग सभी धर्मों के मूल अंग हैं । फिर धीरे धीरे धर्म धारण करने में शिथिलता आती जाती हैं । तो धर्म धारण करने से जो वास्तविक लाभ मिलते हैं उनसे हम वंचित होते जाते हैं । जब धर्म जीवन में नही उतरता तो लोग उसकी तरफ स्वभाविक आकर्षण खोते जाते है । उसके अनुयायियों की संख्या कम होने लगती हैं । अब उस उस धर्म के बड़े लोग या साफ कहें तो ठेकेदार चिंतित होते हैं । तो वे शार्टकट की तरफ आकृष्ट होते हैं । मानों जैसे धर्म को ओढ़ना सिखाते हैं । किसी भी चीज को ओढ़ना बड़ा आसान होता है ना इसीलिए बस कहते हैं अरे भाइयों इतना तो करो - ये ये तीज त्यौहार मना लो , ये ये व्रत उपवास रोजा या फ़ास्ट इत्यादि रख लो , इस इस तरह की वेश भूषा पहना करो , इस इस तरह के चिन्ह धारण करो , इस इस तरह की प्रार्थना करो ।
तो वे लोग देखते हैं की लोगों को या कहे उनके अनुयायियों को ये करना आसान लगता हैं । और वे सब आसानी से पहचाने जाते हैं कि अरे ये ये फलां फलां धर्म के लोग हैं । बाड़े बन्दी आसान होती हैं । पर मितरो ये तो शुद्ध दिखावा हुआ ना ? और दिखावे से भला कब धर्म जीवन में उतरा हैं । सो लोग अपने अपने मनों में टनों मैल लिए चलते हैं । और खूब भ्रम में रहते हैं देखों मैं कितना धर्मवान हूँ ना । परन्तु ये मन के मैल उसका लोक व्यवहार सुधरने नही देते और लोक व्यवहार असहिष्णुता, बैर भाव और घृणा द्वेष से भरा हो तो खुद भी दुखी रहते हैं और फिर दुःख अपने तक सिमित नही रखते औरों को भी बांटते हैं । दिखावे जोड़े तो जाते है भले के लिए पर धीरे धीरे ये ही प्रमुख हो जाते हैं और धर्म गौण हो जाता हैं । घर्म गौण हो जाता है फलदायी नही रहता । निष्प्राण और निस्तेज हो जाता हैं ।
मितरो म. गांधी शुद्ध धर्मिक व्यक्ति थे । अगर आप ध्यान से देखें तो उन्होने कभी धर्म को ओढ़ा नही । उसका दिखावा नही किया । इसीलिए खुद भी धर्म से खूब लाभान्वित हुए और सारे जीवन सबको प्रेम और सद्भाव ही बांटते रहे । म. गांधी का अपने मन पर काबू था । और निरंतर वे मन को शुद्ध करते रहते थे । तभी तो किसी के भी प्रति उनके मन में दुर्भाव नही जग पाता था । तभी तो सबको उनसे अभय मिलता था । तभी वे सबको और सब उनको प्रेम कर पाते थे ।
सबका भला हो ।
********
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें