गुरुवार, 3 दिसंबर 2015
जब हम विश्व गुरु थे !!!
सोमवार, 30 नवंबर 2015
" धर्म को धर्म ही रहने दो "

रविवार, 15 नवंबर 2015
गांधी की शक्ति
रविवार, 8 नवंबर 2015
नया काम …

बुधवार, 4 नवंबर 2015
सहिष्णुता का मोल समझे

शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2015
इंदु बनी इंदिरा
थोड़े से मेकअप के बाद इंदिरा जी ने अपनी साड़ी की तहों को ठीक किया और मेकअप मेन का शुक्रिया अदा किया और चल दी अपने घर से लगे कार्यालय की तरफ कोई दो सौ मीटर का फासला तय करते ही उनका एक विदेशी न्यूज एजेंसी के साथ इंटरव्यू का प्रोग्राम निश्चित था । दीवाली की रात बीत चुकी थी पर अभी भी पटाखों की आवाज कभी-कभी वातावरण में गूंज उठती थी । दूसरी तरफ इंटरव्यू स्थल पर लॉन की भी साफ सफाई लगभग पूरी हो चुकी थी ।
इंदिराजी सधे हुए पर तेज कदमों से आगे बढ़ रही थी । वे तय कार्यक्रम से कुछ मिनिट लेट थी । तभी सामने आफिस की सुरक्षा चौकी पड़ी उसमें उनके पसन्दीदा दो सिक्ख जवान तैनात थे । उन्हें सामने देख इंदिराजी मुस्कुरा उठी और उनसे "नमस्ते" कहा । तभी एक सिक्ख जवान ने अपनी पिस्तौल से उन पर एक के बाद एक तीन गोलियां दाग दी । उसके बाद दूसरे ने तो उन पर धड़ाधड़ सैकड़ों गोलियां दागी । इंदिरा जी के बूढ़े पर मज़बूत निर्भय शरीर से रक्त फुट पड़ा । आज जैसे उनका संकल्प पूरा होने को आया था । उनकी इच्छा थी उनके खून का एक एक कतरा देश के काम आये । और आज उन गुमराह सिक्ख युवकों के गुस्से को एक तरह से निकालने के लिए उनका खून बड़ी तेजी से बह रहा था । दोनों सिक्ख जवान इस दुष्कृत्य को करने के बाद भागे नही, शांत रहे क्योंकि एक माँ ने उनके गुस्से को उनसे अलग कर दिया था ।
दरअसल जब कोई समुदाय सम्प्रदाय के आधार पर उन्माद से भर उठता है तो वो अपने ही सम्प्रदाय का सबसे पहले और सबसे बड़ा अहित करता हैं । पंजाब भी कुछ इसी तरह के रस्ते पर था । ऐसे में गुमराह समाज को सही रस्ते पर लाने के पीछे मंशा यही होती है की सब हिलमिल रहे और आतंक की जगह शांति का राज हो । बाद में हम देखते है की इंदिरा जी के कुछ कड़े कदम पंजाब में सुख और शांति के लिए अभूतपूर्व हिम्मतवाले और कारगर कदम रहे भले जिसके लिए उन्हें अपनी जान भी गंवानी पड़ी ।
मितरो, वो माँ सचमुच बड़ी बहादुर होती हैं जो अपनी भटकी हुई सन्तान को भले रस्ते लाने के लिए कड़े फैसले लेने से भी नही हिचकती है पर उन सबके पीछे उस माँ का अपनी सन्तान के प्रति अतुलनीय भरोसा और प्रेम ही रहता हैं । और उसे ये ख़ौफ़ नही सताता की अपनी सन्तान के लिए उसके कड़े फैसले से उसकी ही जान पर भी खतरा आ सकता हैं । इंदिरा जी ने उन सिक्ख युवकों पर खूब भरोसा किया था जैसे कोई माँ अपनी सन्तान पर करती हैं ।
जो हो, बचपन में अपनी सुरक्षा को लेकर डरने वाली इंदु अब इंदिरा बन चुकी थी । और हम देखते है अपने किसी सूबे की खुशहाली लिए उन्होने अपने प्राण भी न्योछावर कर दिए थे और अपने पिता की सीख को जमीन पर उतार दिया था की केवल अपनी सुरक्षा के बारें में ही नही सोचो अपने साथ सबकी सुरक्षा की चिंता करो । और ये बात इंदु से तब कही थी जब वो पहाड़ी रास्तों पर दौड़ती कार में बैठी-बैठी डर रही थी और कार से उतरने की जिद कर रही थी ।
इंदिरा जी ने एक नही कई कड़े फैसले लिए जो देश हित के मामलों में अभूतपूर्व और बेमिसाल रहे । उन्होने देश हित से आगे बढ़कर पड़ौसी देश बंगला देश के हित सुख के लिए भी वो कदम उठाये जिनकी आज कल्पना भी नही की जा सकती हैं ।
भारत को गर्व है अपनी बहादुर स्त्री शक्ति पर । इंदिरा गांधीजी की स्मृति को सादर नमन ।
शनिवार, 3 अक्टूबर 2015
गांधीजी की ऐश ट्रे !!!
गांधीजी की ऐश ट्रे !!!
हिंदुस्तानी प्रचारसभा की बैठक गोबर लिपि जमींन पर सेवाग्राम की गांधी कुटी में चल रही थी । कुर्सियों के आभाव में सभी जमीन पर बैठे थे । काका साहेब कालेलकर, पं. सुन्दरलाल, डॉ ताराचन्द, श्रीमनन्नारायन और स्वयं बापू । इस मीटिंग के तुरन्त बाद मौलाना आज़ाद के साथ गांधीजी की एक जरुरी मीटिंग थी । अतः अगली मीटिंग से जरा पहले बापू अपनी जगह से उठे और एक कुर्सी मंगवाई तथा एक छोटी तिपाही स्वयं ले आये । फिर एक आले में रखा मिटटी का छोटा पात्र उस तिपाही पर रख दिया ।
चल रही मीटिंग में से किसी ने बापू से पूछ लिया कि ये कुर्सी और तिपाही क्यों लगाई । तब बापू ने हंसकर कहा " मौलाना आने वाले है ना उन्हें जमीन पर बैठने की आदत नही हैं । ये सारा प्रबन्ध उन्ही के लिए हैं ।
और वह मिटटी का छोटा पात्र किस लिए है ? फिर प्रश्न आया ।
ओह' उसका पूछते है ? वह ऐश पॉट हैं । फिर गांधी ने उन्मुक्त हंसी बिखेरते हुए पूछा । क्यों ? कैसी है कल्पना ?
जो लोग मौलाना आज़ाद की धूम्रपान की लत से परिचित थे उस ऐश पाट का रहस्य तुरंत समझ गए ।
मितरो म. गांधी जिस किसी को एकबार अपना मान लेते थे फिर किस तरह उसे पूरा अपनाते थे और वो भी बिना अपनी बात थोपे हुए । याने दूसरों की वैचारिक स्वतंत्रता और आदतों का कितना बारीक़ ध्यान रखते थे की उनके साथी असहज ना महसूस करें । इसीलिए तो वे अपने साथ विभिन्न सम्प्रदायों, वर्णों, जातियों और बोली भाषा और देश विदेश के प्रतिभावान , तेजस्वी और गुणी स्त्री पुरुषों को अपने साथ जोड़ सकें और वो भी अक्षुण्ण भरोसे के साथ ।
बापू तुम फिर आना मेरे देश !!!
सोमवार, 21 सितंबर 2015
" Wow कित्ती बड़ी "
सोमवार, 7 सितंबर 2015
पत्थरो में दर्ज इतिहास ...
बुद्ध और उनकी शिक्षा भारत से लुप्त होने से पहले खूब तेजी से लोगों पर अपना असर छोड़ने लगी । जैसे दिया बुझने से पहले अपनी रौशनी बढ़ा देता हैं । पर बुद्ध की शिक्षा बुद्ध के जाने के बाद लगभग 500 वर्षों तक विश्व जन कल्याण करती रही ।
किसी भी शिक्षा के दो मुख्य पहलु होते हैं । एक बौद्धिक और दूजा व्यवहारिक । बुद्ध का जोर शिक्षा के व्यवहारिक पक्ष पर अधिक था । वे कहते थे व्यवहारिक पक्ष मज़बूत होगा तभी लोगों को आकर्षित करेगा । मेरी शिक्षा से लोगों का जीवन बदलता है वे सुखी और शांत होते है तो लोग सहज इसकी तरफ आकर्षित होंगे । परन्तु कालांतर में व्यवहारिक पक्ष कमजोर होने लगा और बौद्धिक पक्ष पर ही लोग ज्यादा ध्यान देने लगे । इससे हुआ ये की लोग चर्चा तो बहुत करते थे पर उसका पालन नही करने से उनमें कोई बदलाव नही आता था उलटे अधिक कट्टर और असहिष्णु होने लगे । विवाद बढ़ते गए । व्यवहारिक पक्ष कमजोर होने से बुद्ध की शिक्षा के वो परिणाम नही मिलने लगे जिनकी आशा की जाती थी । अतः उनकी शिक्षा बहुत भली होने के बावजूद कमजोर पड़ने लगी । और कमजोर पड़ती शिक्षा लुप्तता की ओर तेजी से अग्रसर हुई ।
फिर भी जहाँ- जहाँ बुद्ध की शिक्षा गयी वहां वहां वो पत्थरो में अवश्य दर्ज होती रही । महाराष्ट्र की आध्यात्म के रूप में उर्वरा भूमि पर तो बुद्ध के काल का इतिहास पत्थरों पर खूब लिखा गया और यहाँ- वहां बड़ी मात्रा में बिखरा पड़ा हैं । और हर्ष की बात है की द्वितीय बुद्ध शासन भी विश्व में खूब फैले इसका आधार भी महाराष्ट्र ही बना हैं ।
ऐसा ही एक स्थान है "कार्ला" और वहां की विश्व प्रसिद्द गुफाएं । मुख्य चैत्यगृह आकार में सबसे बड़ा और प्रस्तर पिलरों की बड़ी संख्या से सुसज्जित हैं तथा छत को कमानीदार लकड़ी के पटियों से सहारा दिया है । सारा कौशल विस्मित करता हैं और प्रेरित तथा रोमांचित भी कि भले हमने बुद्ध की शिक्षा को खो देने की गलती की पर पत्थरों में दर्ज इतिहास हमारे साथ अडिग खड़ा रहा । 1909 में अंग्रेज हुकूमत ने इसे विश्व धरोहर के रूप में मान दिया और संरक्षित किया ।
सोमवार, 3 अगस्त 2015
" जिसका कोई नही "
लावारिस " फ़िल्म का यह गीत निराशा के दौर में कमाल की आशा का संचार करने में रामबाण से कम नही हैं ।
बात गहरी कही गयी है पर हल्के फुल्के अंदाज में । " आदमी सौ बार टूटकर जुड़ा है यारों " - ये आध्यात्मिक जगत की बड़ी सच्चाई हैं । और पास कोई नही होता या साथ कोई नही होता तब भी इंसान खुद तो होता ही हैं । उसका आत्म तो होता ही हैं । उसका स्व तो होता ही हैं । बस डूबते को और क्या लगता है एक तिनका का सहारा ही काफी होता हैं ।
सुने किशोर की मस्तमौला आवाज में ये गीत और देखें निराशा के बादल हटने लगते हैं । आशा का संचार होने लगता हैं ।
Watch "Jiska Koi Nahin Uska Tu Khuda Hai Yaaro - Kishore Kumar - Laawaris (1981) - HD" on YouTube - https://youtu.be/f3FQ5xj_5bc
" सीधी ऊँगली से घी नही निकलता "
रविवार, 14 जून 2015
हिसाब दो ,,,

ठीक इसी पल वो ये भूल जाता है की सवाल पूछने की काबिलियत के आधार के पीछे भी जिससे सवाल पूछ रहा है उसकी मेहनत तो नही है ? पर दुनिया सवाल पूछने वाले की तरफ अधिक आकर्षित सहज ही हो उठती है । क्योंकि मानव मन की यह सहज प्रवृत्ति हैं ।
ऐसे सवालों का एक ही सटीक जवाब हो सकता है कि सवाल पूछने वाले से ही प्रतिप्रश्न पूछा जाय या उसे ये देखने के लिए कहा जाय की समान स्थितियों में और किसने कैसा परफार्म किया है ?
हम जब आज़ाद हुए, तब हमारे आगे-पीछे कई और देश भी आज़ाद हुए । कोई धार्मिक राज्य बना तो कोई पंथ निरपेक्ष , कहीं लोकतंत्र चुना गया तो कहीं राजतन्त् / सैनिक तंत्र । फिर भी अगर ध्यान से देखेंगे तो सामाजिक हों या आर्थिक हों , वैज्ञानिक हों या तकनीकी हो , शिक्षा हो या स्वास्थ्य हो, लगभग सभी क्षेत्रों मे तमाम विषमताओं जैसे साम्प्रदायिकता और जातिवाद की विषमताओं के बाद भी हमने सर्वाधिक और गर्व दे सकें ऐसी उपलब्धियां पाई हैं ।
आओ, नैतिक बल के महत्व और ईमानदारी की निति पर शालीन और विनम्र रहकर अधिकाधिक चल सकें इसका प्रयास करें । आखिर ये ही तो सबका "आधार" हैं ।
गुरुवार, 11 जून 2015
विश्व गुरु होने से पहले

गुरुवार, 30 अप्रैल 2015
कमजोर की आवाज बनें ..
कमजोर वर्ग की आवाज उठाने वाले को ताकतवर और दबंग मुर्ख कहकर नज़रअंदाज करते दिखें तो समझो उसकी आवाज से दबंगों में बेचैनी हैं ।
और यही बैचेनी जल्द बौखलाहट में तब्दील होकर दबंगो की कमजोरियों को उजागर करती जाती हैं ।
मित्रों म. गांधी भी चंपारण में किसानों की आवाज बने थे । अंग्रेजों ने पहले पहल गांधी का मज़ाक बनाया फिर भी गांधी को सविनय आन्दोलनरत देखकर बौखलाए पर गांधी डटे रहे फिर अंततः किसानों की जीत हुई । इस तरह विनय , धैर्य , सच से लबरेज निरंतरता के आगे दबंग और गर्वीले तथा गांठ गठीले अंग्रेज पस्त पड़ते गए ।
कमजोर की आवाज बनना लोकतंत्र की राह में दुरूह पर करणीय कर्तव्य हैं ।
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015
भीड़ तेरा हो भला ...
आओ, वर्तमान परिवेश के सन्दर्भ में म. गांधी को समझना और फिर अपनी सोच की दिशा तय करना बहुत जरुरी कदम हैं ।
आजकल के बहुसंख्य नेता और हम भीड़ की मात्रा से अपनी सफलता को तौलते है और इस चक्कर में अपने पहनावे तथा बोलने चलने की अदाकारी और कभी कभी तो स्टंट पर भी खूब ध्यान देते हैं । वस्तुतः ऐसा वे मज़बूरी में करते हैं क्योंकि हम जनता भी भीड़ की मात्रा से ही किसी के भले और बुरे होने का अंदाज लगाते हैं ।
मित्रों जैसी जनता वैसे ही नेता बने तो क्या ख़ाक नेतृत्व मिलेगा । जबकि म. गांधी इसके विपरीत थे । वे पहनावे दिखावे और भीड़ के मोह से परे भीतर बाहर से एकदम सादा इंसान थे । इस सदी के भीषणतम दंगे 1947 जो बंगाल के नोवाखलि में हुए थे जब उन दंगो से उबारने के लिए गांधी वहां नेतृत्व के लिए जाने लगे तो सरकार ने भी उन्हें मना किया और उनके कुछ साथी भी घबरा गए । पर वे अपने निहत्थे 11 साथियों और अपनी बूढी काया को लेकर निडर मन और सत्य के बल पर आखिर वहां चले ही गए । और आश्चर्यजनक ठंग से दंगे शांत हुए लोग आपस में फिर एक हुए ।
निष्कर्ष ये के भीड़ को महत्व मत दो । हो सके उतना भीड़ से परहेज करो तभी शायद हम भला और योग्य नेता अपने आप को दे सकेंगे ।
सबका भला हो ।
रविवार, 22 फ़रवरी 2015
चलना तो पड़ेगा !
बुद्ध की देशना पूरी हुई । सभी बुद्ध का अभिवादन कर धीरे धीरे चले गए पर वो बैठा रहा । आज उसे बुद्ध से अपना प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा को शांत करना था । और सबके सामने प्रश्न पूछने में उसे संकोच हो रहा था ।
बुद्ध ने भी मन ही मन उसके जी में उठे तूफान को जैसे ताड लिया था । वो भी मैत्री और मुदिता से भरे चित्त से बैठे रहे ।
जब सब चले गए तो वो उठकर बुद्ध के नज़दीक आया और अभिवादन कर वही बैठ गया । बुद्ध ने मुस्कुराकर उसका हौसला बढ़ाया । दो पल सुस्ताकर वो बोलने लगा ।
भंते , मेरी एक जिज्ञासा है । आप सबको इतना समझाते हैं । भीड़ उमड़ी रहती हैं । पर मैं देखता हूँ उनमें से कुछ तो पहले से बिलकुल बदल गए हैं, कुछ थोड़े बदले हैं , और कुछ को महाराज बिलकुल फर्क नही पड़ा । पहले जैसे थे वैसे आज भी हैं । जब आपकी शिक्षा भली हैं । सबको बराबर बांटते हैं तो सब पर एक सा असर क्यों नही होता ?
बुद्ध फिर मुस्कुराये और प्रतिप्रश्न किया । कहाँ के रहने वाले हो ? वो बोला - श्रावस्ती का महाराज । बुद्ध बोले - तब तो यहाँ से श्रावस्ती तक का रास्ता खूब जानते होंगे ? वो बोला - हाँ महाराज । बुद्ध ने फिर पूछा - कोई तुमसे पूछता है की श्रावस्ती जाने का रास्ता बता दो तो तुम ठीक से बता देते हो या छुपा लेते हो ? वो तपाक से बोला - इसमें छुपाने का क्या खूब समझाकर बता देता हूँ । बुद्ध ने एक और प्रश्न किया - जब तुम भली तरह समझाकर बता देते हो तो सभी श्रावस्ती पहुंच जाते होंगे ? अब वो बोल पड़ा - अरे महाराज जो चलेंगे नही, बस रास्ता पूछेंगे तो भला कैसे श्रावस्ती तक पहुंच जायेंगे । जो चलेगा वही तो कहीं पहुंचेगा ।
अब बुद्ध मुस्कुरा रहे थे, और वो भी |||
मित्रों - म. गांधी भी सत्य के रस्ते चले और अपना एक मकाम बनाया । आज उन्हें उनके समर्थक ही नही विरोधी भी श्रद्धा से याद करते हैं । देश ही नही सारा विश्व उनसे प्रेरणा लेता हैं । उनके साथ उस समय में हज़ारों लोग भी चले और कइयों ने इंसानियत के लिए कई मकाम बनाये । जब हम किसी भली राह चलते हैं तो हमारा भी भला होता हैं और औरों को भी प्रेरणा मिलती ही हैं |||
सबका भला हो ।
मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015
विरोध की जरूरत ...
महात्मा गांधी लगातार देश में घूमकर अग्रेजों के खिलाफ अलख जगाते थे । पर जिस भी शहर में जाते उनका सामना लगभग हर जगह सबसे पहले उनके विरोधियों के विरोध से होता था । वे ससमय स्टेशन पहुंच कर गांधी का पुरजोर विरोध करते और उनके खिलाफ खूब उग्र नारे बाजी करते थे ।
गांधी और उनके कुछ साथी एकतरफ चुपचाप खड़े रहकर उनको वैसा करने का भरपूर मौका देते थे । जब वे थक जाते तब उनकी तरफ मुस्कुराकर हाथ हिलाते हुए अपने काम के लिए निकल जाते थे ।
इस तरह बिना विशेषप्रयास के उस शहर या गांव में उनके आगमन के बारे में सबको खबर मिल जाती थी ।
एक बार उनके किसी साथी ने उनसे पूछा बापू आपको इनपर गुस्सा क्यों नही आता तो बापू मुस्कुरा कर बोले - इनपर मुझे प्रेम आता हैं इतनी ऊर्जा ये मुझ जैसे फालतू आदमी पर खर्च करते हैं वर्ना मुझे कौन जानता की गांधी आया हैं ।
बापू तुम फिर आना मेरे देश |||
रविवार, 1 फ़रवरी 2015
युद्ध की भली नीति

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015
5:17 PM - महाप्रयाण की बेला
