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गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

वर्तमान क्षण ...!!


वर्तमान क्षण ...!!

                    र्म प्रज्ञा जागृत रखकर ही हम वर्तमान क्षण में जीना सीख सकते हैं / यह क्षण जो प्रत्युत्पन्न क्षण है , जो की अभी -अभी उत्पन्न हुआ है , यही तो हमारे काम का है / जो क्षण बीत गए , उनको हम याद भले कर लें , पर उनमें हम जी नहीं सकते / जो क्षण अभी आये नहीं , उनकी हम कल्पना या कामना भले कर लें , परन्तु उनमें हम जी नहीं सकते / हमारे जीने के लिए तो यही क्षण है जो अभी-अभी उत्पन्न हुआ है / अगर हम इस क्षण में जीते हैं तो ही सही मानें में जीते हैं / अन्यथा तो केवल मात्र जीने का बहाना भर करते हैं , वस्तुतः जीते नहीं / क्योंकि वर्तमान क्षण ही तो यथार्थ है और यथार्थ में जीना ही तो सही जीना है /

                                   हर अगले क्षण से वर्तमान क्षण के जुड़ते चले जाने के कारण वर्तमान क्षण के अस्तित्व का क्रम अनंत हो जाता है / इसीलिए कह सकते हैं की इस अल्पजीवी लघुतम क्षण में जीना आ जाये तो अनंत में जीना आ जाये , अक्षय में जीना आ जाये / इस नन्हे से क्षण में जीने की कला हासिल करने के लिए ही यह विपश्यना साधना है, जिसमें की हम इस क्षण उत्पन्न होने वाली स्थिति को बिना भुत और भविष्य के साथ जोड़े  हुए उसके यथार्थ स्वरूप में देख सकने का अभ्यास करते हैं / वर्तमान में जीने का मतलब यह भी हुआ की - निर्वाण में जीना , मुक्त अवस्था में जीना / भूतकाल की यादें और भविष्य की कामनाएं हमारे वर्तमान को डुबोये रहती है / भूतकाल से पीछा तभी छूटे जब चित्त से सारे कर्म संस्कारों के बीज दूर हो जाएँ , भविष्य से पीछा तभी छूटें जब तृष्णाएँ समाप्त हो जाएँ / विपश्यना साधना इसी लक्ष्य को सामने रखकर हमें जीने की कला सिखाती है /

                               इसी अवस्था को जब भगवान बुद्ध ने पाया तो उनके मुंह से हर्ष के ये उद्गार निकले .. जिन्हें उदान भी  कहा गया .." यह चित्त नितांत संस्कार विहीन हो गया / किसी बांधने वाले  संस्कार का नाम  लेश  नहीं रहा  और साथ ही साथ  तृष्णा का भी पूर्णतया क्षय हो गया " 

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