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मंगलवार, 13 सितंबर 2011

जाने क्यूँ आज तेरे नाम पे रोना आया ...!!!

                                     जब मैं छोटा था .. तो  देखता था की आस पास के बड़े और समझदार लोग पुराने गानों के बड़े दीवाने होते है ... और मेरी तो समझ से ही परे होते थे ऐसे गाने ...बड़ी कौफ्त होती थी ... ओर लगे हाथ निराशा भी की क्यूँ नहीं पसंद आते मुझे  इस तरह के पुराने गाने ... मैं तो किशोर- दा का दीवाना था ... और अकारण बड़ों की पसंद को अपनी पसंद बनाने मुड भी नहीं होता था ... बड़ों की पसंद , नापसंद तो थी पर मन इस बात को मानता था की कहीं ना कहीं मेरी ही समझ ही में कोई कमी है .. काफी समय गुजरा ... एक बार किशोर-दा का एक इंटरव्यू कहीं पढ़ा कि किशोर- दा  तो सहगल साहब के फैन हैं  ! ... तो बड़ा अचरज लगा कि मेरे आदर्श गायक का आदर्श मेरा आदर्श क्यों नहीं ... फिर लगा सहगल साहब के गाने सुनने ... पर बात बनती नहीं दिखी ... खैर इसी पसंद - नापसंद कि उलझन के साथ  समय गुजरता गया ... इस बीच ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी लगी ..वहाँ पाया कि चारों तरफ पुराने गानों के रसिक ही ज्यादा है ...और तो और  ऑल इंडिया रेडियो भी ऐसे ही संगीत को ज्यादा तरजीह देता है ... अब तो अपने आप को घिरा हुआ महसूस करने लगा ..
                            
                                  एक दिन पद्मश्री उस्ताद लतीफ़ खान साहब को अकेला पाकर बड़ी झिझक के साथ उनसे अपनी बात कही ... उन्हौने समझया ... भाई कानों को तैयार करो उम्दा संगीत सुनने के लिए ... ये कैसे हो ...तो समझाया ...थोडा शास्त्रीय संगीत सीखो ... फिर कहीं से अच्छे गुरु की तलाश की और लगा सिखने शास्त्रीय संगीत ... संगीत तो पूरी तरह नहीं सीख पाया पर हाँ कान जरूर तैयार हो गए ....अच्छा संगीत सुनने की थोड़ी सी क्षमता जरूर आ गयी... //




बेगम अख्तर साहिबा की गायी ये गजल सुनिए ....

ए मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया /...२
जाने क्यूँ आज तेरे नाम पे रोना आया //
यूँ तो हर शाम उम्मीदों में गुजर जाती थी /
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया //
कभी तक़दीर का मातम, कभी दुनिया का गिला /
मंजिले-इश्क में हर जाम पे रोना आया //
जब हुआ जिक्र ज़माने में मुहब्बत का शकील /
मुझको अपने दिले-नाकाम पे रोना आया //
                                          
                                               मल्लिका -ए -गजल बेगम अख्तर साहिबा की  लरजती खनकदार आवाज जैसे वीरान सड़कों पर डोलती गाड़ी की तरह उतरती-चढ़ती जाती है .. जैसे बहुत बड़ा काफिला ख़ामोशी  के साथ  चल रहा हो और एक पुरजोर बुलंद सुरीली आवाज सबको राह दिखाती आगे ले जा रही हैं  .. खुद पहले थोडा आगे जाकर फिर पीछे पलट कर कहती है ...आ जाओ यहाँ तक  ... कभी यु लगता है जैसे आसमानी बादलों पर सवार हो,  साया बन राह आसान करती है ... कभी तो मानो यह एहसास दिलाती है ..की बस मंजिल आ गयी ... और लगे हाथ फिर आगे का रुख कर जाती है ...!!!



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