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सोमवार, 5 सितंबर 2011

भ्रष्टाचार से वह यूँ लड़ा ....!!




                       " लवार के बल पर सम्राट अशोक कलिंग पर विजय पा चूका था ... हिंसा और उसका तांडव जो उसके फैलाया था उसके परिणाम उसके सामने थे ...हिंसा के रास्ते हल नहीं निकलते .. डंडे के बल पर हम प्रजा के दिलों पर राज नहीं कर सकते .... ऐसी  समझाईश इस लढाई से पहले उसके अनुभवी सलाहकार  उसे एक नहीं कई बार दे चुके  थे....परन्तु वह अपनी हट पर कायम रहा ...  लोकतंत्र ना होने के कारण वह अपनी मर्जी का मालिक था और कलिंग का युद्ध टाला न जा सका था /


                      युद्ध की विभीषिका देख सम्राट अशोक का  ह्रदय आत्मग्लानी से भर उठा ... पश्चाताप की अग्नि उसके दिल में धधक उठी .. वह सही मायनों में अपनी प्रजा की भलाई के लिए तड़पने लगा ... उसे यह बात समझ में आ गयी की हम अपने मन के विकारों के कारण ही दुखों में पड़ते है ... जिसका मन प्रेम और करुणा से भरा है वह हिंसा से विरत ही रहता है और जिसका मन क्रोध और वैमनष्य से ओतप्रोत है वह न चाहकर भी हिंसा और अपराध में पड़ ही जाता है ... सदाचार, प्रेम और करुणा के उपदेशों से मन के विकारों पर एक झीना - सा पर्दा ही पड़ता है ....डर कर मानव-मन मौके का इंतजार ही करता है ...  मन के विकार मौका मिलते ही फिर उभर आते है ..और जीवन में कड़वाहट घोल देते है /  यह मामूली सी बात उसे अब बहुत महत्व की  जान पड़ी /

सिंह मूर्ति 
                  पहले पहल तो उसने राजतंत्र को ठीक से चलाने के लिए कड़े कानून बनाये ..और उनके पालन को सुनिश्चित करने के लिए अधिकारी नियुक्त किये ...पर उसने देखा की कड़े कानून और सजाओं का डर भी वह प्रभाव नहीं ला पा रहा है  ..जो वह चाहता था .. वह चाहता था उसका राज,  सुराज की मिशाल बने,  जनता की बीच सद्भाव और प्रेम बड़े, लोग स्वभावतः ईमानदार और आदर्श नागरिक बने, प्रशासन की सारी ताकत और समय जो अपराध नियंत्रण और कानून लागु करवाने में जाया होती है ..उसका सदुपयोग प्रजा की भलाई में कैसे काम आये ... इस हेतु वह आतुर हो उठा / 

                     उसका सौभाग्य जागा ...कहीं से यह सलाह मिली की राजन ऐसे उपाय है जिससे हमारे मन के विकार मिटाये जा सकते है .. विकारों से ऊपर - ऊपर नहीं जड़ों तक छुटकारा पाया जा सकता है ...मन के विकार जैसे लालच, घृणा , वासना और द्वेष इत्यादि से मुक्त होता मन स्वभावतः सदाचार और सहिष्णुता की ओर अग्रसर होने लगता  है /


सम्राट अशोक के शिलालेख 
             यह सुझाव उसके गले तो उतरा पर अपनी प्रजा     को जिसे वह अपनी संतान के तुल्य मानने लगा था ..काफी सतर्क था ...इस उपाय को प्रजा पर लागु करने से पहले वह खुद इस राह पर चलकर देखना चाहता था,  ताकि अपनी प्रजा को वह स्वयं अनुभव करके देखा हुआ रास्ता दे पाए ..कही कोई उलझन  न रहे / पर इस हेतु समय की दरकार थी ..विपश्यना साधना रूपी उपाय को आजमाने के लिए उस समय करीब ३०० दिनों का समय लगता था .. राजतन्त्र में जहाँ आये दिन षड़यंत्र और समस्याएं आती है यह कैसे संभव होगा ?   पर वह किसी भी कीमत पर प्रजा की भलाई के लिए यह खतरा मोल लेने को तैयार था /  उन दिनों राजस्थान के बैराठ में विपश्यना का एक सुप्रसिद्ध केंद्र था /  वह वहाँ गया और ३०० दिनों के बाद अपनी राजधानी लौटा ...मन के विकारों का जो बोझ लेकर वह गया था ...उस बोझ के उतार जाने पर वह आश्वश्त था की यह उपाय  उसकी अपनी प्रजा की वास्तविक भलाई के लिए प्रभावी सिद्ध होगा /  अब उसने अपनी प्रजा  के लिए विपश्यना के केंद्र बनवाये और वहाँ  जाने के लिए अपने परिवार, मंत्रियों , शासन के अधिकारीयों , कर्मचारियों  और प्रजा  को प्रेरित करने लगा / धीरे - धीरे इसके परिणाम आने लगे / सम्राट अशोक का शासन सुराज में बदलने लगा ...इसकी भूरी भूरी प्रशंसा व्हेनसांग और अनेकों चीनी यात्रियों ने अपने संस्मरणों में की है / 

सम्राट अशोक के शिलालेख 


                                अपने एक प्रसिद्ध शिलालेख में सम्राट अशोक लिखता है  -  " मनुष्यों में जो धर्म की बढोतरी हुयी है वह दो प्रकार से हुयी है - धर्म के नियमों से और विपश्यना ध्यान करने  से / और इनमे धर्म के नियमों से कम और विपश्यना ध्यान करने से कहीं अधिक हुयी है / " 


                       आज-कल जब भ्रष्टाचार से लडाई जारी है ...अपने अन्दर के विकारों से तो हमें ही जूझना होगा ... भगवान महावीर इसीलिए  महावीर कहलाये क्योंकि उन्हौने सबसे बड़ी लडाई जो अपने स्वयं के मन पर विजय की है,  लड़ी और उसे जीतकर ही वे महावीर बने एवं सारे जीवन लोगों को यह मार्ग समझाते रहे ...सबके मंगल के लिए , सबके कल्याण के लिए !!!

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