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सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

हमें अपने ऊपर भरोसा रहे ...



     निराशा के माहौल में यह जरुरी हैं सफलता और असफलता का मूल्यांकन जरुरी हैं ... 

        पहला ....खुद को इतना बुलंद करो की सफलता खुद आपके पास आये ... और आपका साथ चाहे ... ( इसमें भी आदर्श स्थिति यह हो की उस स्थिति में भी आपको उसके वरण का मोह न हो ... ) ... खुद को बुलन्द करने से मेरा स्पष्ट आशय हैं ... खुद के सुधार की प्रक्रिया को अत्याधिक महत्त्व पूर्ण मानना ...  यानि ...  हम अपना नैतिक बल , मानसिक बल , और फिर सबसे जरुरी आध्यात्मिक बल इतना बढ़ाएं की ... सही मायनों में बुलदियों पर पहुँच सके ... अब यहाँ पूर्ण बुलंदी तक ही पहुंचे और तभी सामाजिक जिम्मेवारी ले यह भी हो सकता हैं और यह निहायत जरुरी भी नहीं ... पर जिस किसी भी स्थिति में हों  ... आत्मसुधार न रुके ... वह हमेशा प्राथमिकता पर  रहे ... इस तरह समझबुझ के साथ जीवन यात्रा जारी रहे ... तो यकीं माने हमारी कोई कोशिश बेजा नहीं जाती ... सफलता जन्म जन्मान्तरों तक हमारा पीछा करती हैं ... ( धयान से देखे तो हम जिन्हें कोसते हैं ... इस बात पर की क्यों वे आगे की कतारों में खड़े रहकर हमारा हक लुट ले जाते हैं ... या जिन्होंने कम संघर्ष में ज्यादा पाया हैं ... उन्हें हम इसी श्रेणी में रखे की उनके पूर्व कर्मों का धक्का इतना ज्यादा होता हैं की उनके प्रताप से कुदरती तौर पर आगे खड़े होते हैं ... उनके प्रति  यह सोच अगर विक्सित हो तो हम .... बेवजह जलन की पीड़ा से बच कर ... तेजी से आत्म सुधार की ओर बड़ जाते हैं ... और फिर सफलता यूँ साथ चलती हैं ... ज्यूँ हमारी परछाई हमेशा हमारे साथ रहती हैं /

               अन्यथा यही से सफलता की ओर बढने का दूसरा रास्ता .... कठिन रास्ता शुरु होता हैं ... यथा  

                दूसरी राह यह की .... जो फ़िलहाल सफल हैं ... उसके पीछे हाथ धोकर पड़ जाओ ... उसे गिराओ ... और इस बात को युद्ध की तरह एक सनक सवार करके करो ... और यहाँ तक की उसे धर्म युद्ध की संज्ञा से भी सुशोभित करने में तनिक भी देरी न करो ... युद्ध के लिए बनी कहावतों को ... खूब प्रचारित करो ... यथा ... युद्ध में साम -दाम -दंड -भेद सब जायज हैं ... रोना धोना , चीखना चिल्लाना , भीड़ तंत्र का दुरुपयोग , घेराव , जाने क्या क्या ... .... पर इस राह को जितना हम आसान समझते हैं ... वो वास्तव में उतनी ही दुरूह साबित होती हैं ... हमारा नैतिक बल जो अभी कमजोर हैं ... और कमजोर होता जाता हैं ... मनोबल जो अभी बड़ा नहीं हैं ... असफलता पर खीज में और घटता जाता हैं ... आध्यात्मिक बल जो बेचारा अभी ठीक से उगा भी नहीं हैं ... मसल दिया जाता हैं ... फिर असफलता यूँ पीछे पड़ जाती हैं ... ज्यूँ बैल के पीछे गाड़ी /

                  हम अगर जरा गौर से देखें तो हर असफल व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के पीछे यह बात स्पष्ट नजर आएगी ही ... और वर्तमान में भी इन्ही दो रास्तो के राही हमारे आसपास चल ही रहे हैं ... एक शोर मचाते हुए ... और दूजे खामोश ... 

              और फिर हम संदेह न करे 

          कुदरत हमेशा ... सज्जनों को ही तरजीह देती हैं ... और यही उसे सुहाता हैं ... भला हो !!! 

             " दो रास्ते " ... फिल्म का यह गीत ...  मेरी बात पर कोई साम्य  नहीं रखती पर हाँ .. इस गीत की यह लाइन जरुर ध्यान देने लायक हैं ... अपने मुक्कदर पर किसी हर किसी को भरोसा करना ही होगा ... और वर्तमान कर्मों पर ध्यान देना ही होगा ...