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गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

काहे न धीर धरे

काहे न धीर धरे ... ! 





                             मन और उसकी प्रकृति की थाह पाना बड़ा दुर्गम काम हैं ...मुआ मन  कभी हिमालय सी उचाईयों पर परवाज भरता हैं तो कभी सागर सी गहराइयों में गोते लगाता हैं ...और इस गीत में बड़ी मासूमियत से मन को धीरज रखने की सलाह रफ़ी साहब की धीर गंभीर और  सधी हुयी आवाज में बार-बार दी गयी हैं ... उस सलाह का असर होते न होते गीत समाप्त हो जाता हैं और आभास दे जाता हैं कि हमारी उंगली जो अभी अभी थामी गयी थी ... अचानक फिर छुड़ा ली गयी हैं  ...  " कोई न संग मरे "  ... अंतरे की इस लाइन पर तो मानों मन के आस-पास बुनी गयी सारी महफ़िल एक बारगी फिर वीराने के हवाले कर दी जाती हैं ... और यहीं आकर प्रदीप साहब शराब हलक से नीचे उतार जाते हैं ... और कई सवाल खड़े करके गीत समाप्त हो जाता हैं /                                                                   
                                  " मन धीरज रखे " ... इस गीत का अप्रतिम सन्देश हैं ... साथ ही साथ वह धीरज क्यों न रखे इस बात कि लम्बी फेहरिश्त मन का धीरज डांवाडोल करती रहती हैं ... साहिर साहब ने कुछ भी नहीं छुपाया पर हमें तो अपने काम की चीज ... अरे वही " सकारात्मकता"  को जो इस गीत के प्राण  हैं को मजबूती से पकड़ना हैं ... क्योंकि वही हमारे मंगल का कारण बनेगी /  

                                   धीरज और संतोष एक ही सिक्के के दो पहलु हैं ... और दोनों ही परम धन भी ! पर देखों न दोनों सुलभ और अनमोल होते हुए भी मानव मन की पकड़ से कोसो दूर हैं ... बेचारा मन यदाकदा गीतों में ... कहानियों में ... प्रवचनों में धीरज और संतोष की बातें करके ही रह जाता हैं ... कभी इन अनमोल और परम धनों की छाह उसे नसीब नहीं होती / कई अडचने हैं ... कई बाधाएं हैं ... जिनके चलते दुःख की गर्त में सदियों से डूबा मन अब ऊपर उठ सहज सुख की और जाने की प्राकृतिक शक्ति और युक्तियाँ भुला बैठा हैं /

                                   फिर भी प्रकाश हैं और कहीं दूर नहीं हमारे आसपास ही मौजूद हैं   ... हमें उसे चकाचौंध में नहीं दीपक की टिमटिमाती लौ में खोजना होगा / हाँ मेरा इशार एक बार फिर मन की और ही हैं जनाब ... हैं न हमारे बिलकुल नजदीक और हम हैं की उसकी ओर कितने बेरुखे से रहते हैं ... उसे ज़माने भर की सलाह और ढेरों कानून कायदों से लाद देते हैं ... उसका बोझ कम हो ... मन  अपने निर्मल कुदरती स्वभाव में लौटे इसका कोई जतन ही नहीं किया कभी .... बड़े बड़े सवाल जिनके जवाब आज तक किसी को नहीं मिले ... और जिन्हें मिले भी तो ऐसे की  हमें समझाए भी तो कैसे ... बस उन सवालों जैसे ... इस जीवन की डोर किसने थामी ?  इस रूप संसार को किसने बनाया ? 
                                            
                               हाँ बड़े बड़े सवालों का जवाब मिले यह हमारा कुदरती हक़ हैं ! ... पर बड़े बड़े सवालों के आसान हल भी हो सकते हैं इस बात पर हमारा जरा भी यकीं नहीं ! ... और यहीं पर हमारे इसी अविश्वास का फायदा बुरी लतों और बुरे मंसूबों से मौके की तलाश में बैठे ठगों ने खूब उठाया हैं / मन का जितना विस्तार बाहर-बाहर हैं उससे कई गुना ज्यादा हमारे अन्दर हैं और हमारे अन्दर ही छुपा हैं  सारे संसार का रहस्य / सुना नहीं क्या ... " मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे मैं तो तेरे पास में " 


                   सदियों पूर्व सिद्दार्थ गौतम के सामने भी यहीं जटिल सवाल था कि इतने उपदेश, इतने सुख साधन मानव को दुखों से पार क्यों नहीं ले जा पा रहे हैं ? ... इस सवाल के जवाब को पाने को बेताब उनका मन फिर लग गया उस समय के परंपरा गत साधनों को आजमाने में .... पर दुःख विमुक्ति कि राह उन्हें नहीं मिली ! ... फिर तो उन्हौने बड़े कठिन जतन से दुखों से विमुक्ति के परम मार्ग विपश्यना को पुनः खोज निकाला ... और इस मार्ग से उस समय के भारत और पडौसी देशों में करोड़ों लोगों का मंगल सधा ... सौभाग्य से उनकी खोज विपश्यना ( Vipassana ) आज भी हमें उस मौलिक स्वरुप में उपलब्ध हैं ....और आज भी विपश्यना साधना के वहीँ फल आते हैं जैसे सदियों पहले आते थे .....  मंगल हो !!

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1 टिप्पणी:

S.N SHUKLA ने कहा…

सार्थक और सामयिक पोस्ट , आभार.
कृपया मेरी १५० वीं पोस्ट पर पधारने का कष्ट करें , अपनी राय दें , आभारी होऊंगा .