शनिवार, 7 अप्रैल 2012

थामे नैतिकता का हाथ ...

थामे नैतिकता का हाथ ...


                      पिछले एक साल से हमारे देश में परिवर्तन का एक सुखद दौर चल पड़ा हैं ... जी हाँ हम अपने ही भ्रष्टाचार से इतने परेशां हो गए की उसके खिलाफ लडाई लड़ने की हड़बड़ी में हर संभव उपायों को आजमाने की जल्दी में दिखाई दिए ... पहले आवाज उठी और जोरों से अभूतपूर्व तेजी से उठी कि कड़ा कानून बनाओ ... और जल्दी से बनाओ ... यहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ  कानून बनाया जाय यहाँ तक तो ठीक था पर उसके अत्यंत कड़े और जल्दी बनाये जाने के पीछे कहीं देश में गलतफहमी फ़ैलाने की गलत इरादे भी नजर आ रहे थे ... सोंचे जरा कड़ा कानून अगर बेलगाम हुआ और हमारे नियंत्रण से बाहर निकल गया तो उसका बेजा इस्तेमाल सही और ईमानदारों को सताने और एक दुसरे को मोहरा बनाने में भी हो सकता हैं / शायद इसीलिए शुरू शुरू में आये लोग धीरे धीरे यह भांप गए कि चाहे देर लगे पर सटीक कानून बनें / 


                          पर भाई यह तो भ्रष्टाचरण का एलोपैथिक इलाज हुआ ... असल फायदा और आराम तो हमें अपने आप को नैतिकता का दामन थामने को तैयार करने से होगा ... आज कितने कानून हैं ... बलात्कार , चोरी , और हत्या जैसे अपराधों पर लोगों को सजाएँ भी हो ही रही हैं ... पर देखो न कोई दिन खाली नहीं जाता ... हर रोज नित - नए  अपराधों कि फेहरिश्त सुबह-सुबह अख़बार घर पर दे जाता हैं /   



                               हम गाँधी जी को केवल संसार का सबसे महान इन्सान मानकर न रह जाएँ ... बल्कि उनकी बातों के अनुसार आचरण करते भी नजर आयें तभी शायद  सबके कल्याण का मार्ग खुलेगा ... अन्यथा दूसरों को भ्रष्ट कहने और अपने बुरे आचरण को छुपाने में ही बहुत सारा समय व्यर्थ गँवा देंगे /  महात्मा गांधीजी का एक विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ जो हमेशा कि तरह कालजयी हैं ... अमूल्य तो हैं ही / 


                           " हमारा राष्ट्र सच्चे अर्थ में आध्यात्मिक राष्ट्र उसी दिन होगा , जब हमारे पास सोने की अपेक्षा सत्य का भंडार अधिक होगा , धन और शक्ति के प्रदर्शन की अपेक्षा निर्भयता अधिक होगी और अपने प्रति प्रेम की अपेक्षा दूसरों के प्रति उदारता अधिक होगी / यदि हम केवल इतना ही करें की अपने घरों , मुहल्लों और मंदिरों में धन के आडम्बर का प्रवेश न होने देकर नैतिकता का वतावरण पैदा करें तो हम भारी रणसज्जा का बोझ उठायें बिना शत्रु  से . चाहे वह जितना भी भीषण क्यों न हों , निपट सकते हैं / " ..... महात्मा गाँधी