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शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

मैं तुझसे क्या मांगू ... ?

मैं तुझसे क्या मांगू ... ? 





              होना तो यही चाहिए कि हम उस उपरवाले से  कुछ न मांगे बस सच के पथ पर लगन से,  निष्ठा से,  परिश्रम के बल चलते चले जाएँ   ... पर ऐसा कहाँ कर पाते हैं ? ... बिना मांगे एक पल भी नहीं गुजरता ,  एक कदम नहीं बढ़ता / यही भिखमंगन प्रवृत्ति इस कदर सर्वत्र फैली हुई हैं कि प्रकृति के शास्वत नियम और कर्म फलों के असाधारण और अद्वितीय सिद्धांत की हर दम अवहेलना करते हुए अपना सारा बहुमूल्य जीवन बर्बाद कर ही देते हैं / बहुधा और अतिश्योक्ति न हो तो हमेशा ही अपनी इस भिखमंगन आदत के चलते हम इस या उस बाबा के द्वारा बहुविध प्रलोभनों में उलझा ही दिए जाते हैं / लगभग हर संप्रदाय ने इस दूषित प्रवृत्ति को न चाहकर भी आश्रय ही दिया हैं / ईश्वर अगर हैं तो ...  और अगर नहीं भी हैं तो ...  कर्म फल का सिद्धांत तो वहीं का वहीं रहता हैं ...  " जैसे कर्म वैसे फल "  ... वो नहीं बदलता / फिर हमें सबसे ज्यादा सतर्क ... वर्तमान कर्म करते हुए रहना चाहिए ... कर्म ही हमारे सच्चे बंधू हैं ... सच्चे मित्र हैं ...असल  सहारा हैं /

                         ईश्वर ने अगर बनाया होगा तो पहले कर्म का सिद्धांत बनाया होगा पीछे की होगी तो की होगी इस संसार की रचना / उसे पूरा अंदेशा रहा होगा कि लोग अपने ही बुरे कर्मों के फलों के उदय के समय अधीर होकर उनसे बचने का हर संभव प्रयत्न करेंगे ही और लगे हाथों डबडबायी आखों और कातर कंठ से दया की याचना करने में सारी ताकत  झोंक देंगे ...  निहायत असंभव हैं कर्म फल का सिद्धांत पलटना /  हमारा वर्त्तमान हमारे पूर्व के कर्मों की संतान हैं ... जब अच्छे दिन आये तो यह विचार मन में रहे की हमारे किन्ही अच्छे कर्मों के फलों के उदय समय आन पड़ा हैं ... एवम उन क्षणों का उपयोग नए और सम्यक कर्मों को करने में बीते ... और जब आये विपत तो मन धीरज से उन फलों को भुगते और उन विपदा भरें क्षणों में भी हर संभव सम्यक कर्म हो इस हेतु सजग रहे / 


                         यह गीत एक और बात हमारे सामने बड़ी खूबसूरती से ...  धीरे से ... बड़ी ही सफाई यह रखता हैं की अपना राम तो रोम-रोम में बसा हुआ हैं ... ठीक ही कहा गया हैं ... इस गहन भेद की बात समझने के लिए हमें रोम -रोम तक पैठ बनानी ही होगी ... और रोम-रोम तक पैठ बने इस हेतु शुद्ध सम्यक मार्ग की खोज करना ही होगी ... जो हमें परावलम्बी नहीं अध्यात्म के क्षेत्र में स्वावलंबी बनाये /...  कौन पिता यह चाहेगा की ... उसकी अपनी संतान उसके ही सामने कातर कंठ से रो-रो कर दिन-रात भीख मांगती नज़र आये ... फिर भगवान जिसे हम परम-पिता कहते हैं ...  को हम कब अपने पुरुषार्थ से !... अपनी निष्ठां से !... अपनी लगन से !...  उसके बताये हुए रास्तों पर सचमुच चलकर दिखायेंगे ... अपने कल्याण के लिए ... और साथ ही साथ सबके भले के लिए / 

                                                                                                                       
                          " नीलकमल "  फिल्म का यह गीत आशाजी की विविधताओं से भरपूर, झरने सी कलकल निनाद सी निहायत कर्णप्रिय कृति हैं / वहीदा जी का भावप्रवण अभिनय निहायत सादगी भरा हैं ...  वे फ्रेम दर फ्रेम " मैं तुझसे क्या मांगू " बस इसी एक भाव की प्रधानता को मुखर करती जाती हैं ....   गीत अपनी समाप्ति तक मन की गहराइयों तक इस बात के महत्त्व को स्थापित करने की अपनेतई भरसक कोशिश करता ही हैं ...  की मांगने की बीमारी से उबरें ... किसी की हम पर किरपा अगर होगी तो हमारी अपनी किरपा ही होगी ... कोई अगर हमारा साथ देगा तो वे हमारे अपने कर्म ही अपने साथ होंगे ..... मंगल हो !!!


कुदरत का कानून है ,  सब पर लागू होय /
मैले मन दुखिया रहे , निरमल सुखिया होय //

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3 टिप्‍पणियां:

यदाकदा ने कहा…

बहुत खूब, एक गीत के माध्यम से इतनी सुंदर व्याख्या। हमारी फिल्मों में भी सैकड़ों-हजारों भाव प्रवण गीत भरे हैं। हम बस धुन के वशीभूत श्रवण कर जाते हैं, बोलों पर कम ही ध्यान जाता है। अगर बोल भी समझे तो गीतों का मजा और बढ़ जाता है।

सम्पजन्य ने कहा…

हर गीतकार बड़ा संवेदन शील होता हैं शायद तभी गीतों की रचना होती हैं ... पर गीत को अगर गाया जाय और साथ साथ मनन किया जाय तो मायने फैल कर हमें घेर लेते हैं और गीत का सन्देश ग्राह्य हो जाता हैं ....अन्यथा सही कहा आपने .... भावनाएं धुन के वशुभुत होकर तीव्रता से गुजर जाती हैं ... और छोड़ जाती हैं एक निर्वात ..... धन्यवाद !!

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

Bahut Badhiya