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शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

सदाचार बड़े तो दुराचार घटे ...

सदाचार बड़े तो दुराचार घटे ...


 
                                            जब  भी कोई समस्या सामने आये... उसका कोई ओर दिखे ना छोर तो जाने की समस्या बड़ी नहीं बल्कि छोटी हैं उसका समाधान बाहर नहीं बल्कि अपने अन्दर है...क्योकि हमारे मन का प्रमाद उस समस्या के लिए दूसरों को जिम्मेदार बताकर,  दया का पात्र बनकर एक कोने में पड़ा रहना ज्यादा पसंद करता है /  जैसे  खुद का यथार्थवादी आकलन करके सुधार की कोशिशों में तो उसका जैसे विश्वास ही नहीं रहा / यही कारण है की  दलाई लामा को भी भारत में व्याप्त बुराइयों ने एक हद तक हिला कर रख दिया ..वे कह गए की " भगवानों और देवतावों को सुबह शाम याद करने वाला हिन्दुस्तानी मानस इतना लाचार क्यों है कि वह अपने अन्दर व्याप्त बुराइयों कि ओर देखना ही नहीं चाहता "  /  निश्चित ही वे हमारे पुराने गौरवमयी तथा समृद्ध इतिहास के व्यापक परिपेक्ष में आज की परिस्थितियों को लेकर चिंतित थे /   उनका चिंतित होना इसलिए भी  हमें यह सोंचने के लिए बाध्य करता है कि कठोर कानूनों कि बदौलत दुनिया में कहीं भी महत्वपूर्ण बदलाव नहीं लाया जा सका है  / 

                                आज भारत के पास दुनिया का सारा उच्च कोटि का अध्यात्म होते हुए भी वो इतना बेअसर क्यों है कि मानव मन अपने अन्दर की बुराईयों से छुटकारा नहीं पा रहा है  ?   हमारे कर्म जैसे होंगे देर सबेर वैसे ही फल आना है ... कोई देवी,  कोई देवता , कोई पीर,  कोई फ़रिश्ता अच्छे बुरे फलों से हमें नहीं बचा सकते ... अगर हमारे कर्म बुरे होंगे तो नतीजे कोई नहीं बदल सकता ... पर हमने अपने आप को भुलावों में रखकर किसी की कृपा के इंतजार में,  हाथ पर हाथ रखकर एक ओर बैठे रहने को अपनी आदत बना लिया है /  धार्मिक ग्रंथों का पठन पाठन करके देख लिया, व्रत - उपवास करके भी देख लिया , तीज - त्यौहार भी मनाते ही जा रहे है...  पर क्यूँ हाथों से मन की  शांति फिसलती ही जा रही है ...इसलिए क्यों ना हम इस समस्या के  दुसरे पहलु पर भी गौर फरमाएं  ...राष्ट्र रूपी पेड़ को सुधारना हो तो उसकी जड़े जो एक-एक भारतीय के मन से सम्बन्ध रखती है क्या उस जड़ों का सुधार नहीं होना चाहिए ...आखिर कब तक हम पेड़ पर ऊपर-ऊपर से विषैले रसायनों  का छिडकाव करते रहेंगे ?  कब उसकी जड़ों की ओर ध्यान देंगे ? 

                            आज हम भ्रष्टाचार को कोसने में कोई कोताही बरतना नहीं चाहते ... कोई बरते तो वह हमें पसंद नहीं ... पर यहाँ थोडा सा रूककर सोंचे की सदाचार जो की भ्रष्टाचार की रामबाण दवा है ...का हम कब सेवन करेंगे .... हम इस बात को आज टाल सकते है ... पर सदाचार हमारे जीवन का हिस्सा बने इस बात को जितनी जल्दी हो सके हमें लागु करना चाहिए ... देखिये न एक भ्रष्टाचारी को भी हमेशा एक ईमानदार की ही तलाश क्योकर रहती है ... अतः स्वभावतः ईमानदार  बने ..   बनने का प्रयत्न करते जाय ...  मन में विश्वास जगाये ...  और इस बेवजह महत्व पा गयी बात  की  " ईमानदारी से पेट नहीं भरता .."  को अलग रख  सदाचार के पौधे को मन में विकसित होने के अवसर दीजिये तथा भरोसा रखे बेईमानी से ईमानदारी के फल कहीं अधिक मीठे होंगे /                        
                        

                    आजकल  जब भ्रष्टाचार से लड़ने कि एक मुहीम सी चल रही है ....  पर क्या वह अपने अंजाम तक पहुँच पायेगी जब तक एक एक भारतीय का मन लालच और अन्य विकारों से मुक्त होने को  लालायित ना दिखाई पड़े ... ख़ुशी की बात है कि आज हमें ऐसा रास्ता विपश्यना के रूप में उपलब्ध है जिससे हम अपने मन के विकारों में कमी लाकर उज्जवल भविष्य का निर्माण कर सकते है ....सबका मंगल हो !! 

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