लोकप्रिय पोस्ट

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

खेल बना, आन्दोलन- आन्दोलन !!!




      आखिर क्यूँ जरा भी सफल नहीं हुए अन्ना ... ??  .... जबकि सारी मिडिया , सारी भीड़ , सारा देसी / विदेशी चन्दा या सहायता , सारी अच्छी रणनीति और धाकड़ और तेजतर्रार टीम को बावजूद वे सफल नहीं हुए ... आज यह एक हकिगत हैं ... उन्हें दूसरा गाँधी कहा गया ... यह भी केवल एक रणनीति से ज्यादा कुछ नहीं  साबित हुआ ... और एक दौर यूँ भी आया जब हमारे देश में अंधभक्ति के भी आगे जाकर अंध-गुणगान और अंध-निंदा का भी अजीब चलन शुरू हुआ ... वह भी म. गांधीजी के नाम पर ... ताकि हमारे युवा लोगो में गाँधी जी के प्रति सहज आकर्षण को भुनाया जा सके ... यह रणनीति भी अब मुंह के बल औंधी - गिरी हुई नजर आती हैं ...

 
                 अन्ना सर्वथा गलत नहीं थे .!!   पर उनकी सोच और उसका दायरा सबके प्रति समान नहीं था और ना ही आज तक दिखाई देता हैं  ... वे कहीं ना कहीं गहरे पूर्वाग्रहों और एक सिमित सोच के दायरे में रहकर  किसी अनचिन्हे मकसद की तरफ " राष्ट्रभक्ति के संदेशो में अनहोनी के अंदेशों का घालमेल "  करते हुए हमेशा आगे बढ़ते दिखाई देते हैं ... वे कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते थे ... यहाँ तक की अपनी टीम की संभावित टूटन की आशंका को भी दूसरों के कारण होगा यह बड़ी चतुराई से सबके सामने रखते थे ... ताकि स्वभाविक टूटन या असफलता भी सबको किसी की करतूत ही लगे ... और स्वभाविक टूटन को भी अंततः भुनाया जा सके ...

                अन्ना ने सत्य की बहुत बात की पर वे सत्य प्रयोग अपने ही ठंग से करते रहे ... सत्य की राह पर छोटे- छोटे असत्य का सहारा भी बड़ा घातक होता हैं ... इस पर उनका अविश्वास शुरू से ही रहा ... अन्नाजी वस्तुतः जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के लिए आक्रामक रुख पर चलते हुए दीखते हैं ... जबकि उच्च कोटि के साध्य के लिए उच्च कोटि का साधन जरुरी होता हैं ... इसपर वे कहते तो बहुत हैं ... पर साधन पवित्र हों इस बात पर विश्वास उन्हें खुद कितना हैं कभी स्पष्ट नहीं हुआ ...

          खैर सबके अपने अपने रस्ते ... अपना अपना राग ... पर लोकतंत्र में भेड़ चाल चलने वाले लोगों को कभी ना कभी तो अपना आकलन करना ही होगा ... क्योंकि लोकतंत्र में भीड़ बड़ी महत्त्व की होती हैं ... और भीड़ जागरूक हों तो लोकतंत्र की सेहत उम्दा रहती हैं ... बस भीड़ कभी बुरे और आधेअधुरे मंसूबों का शिकार ना हों ... वह अपनी सोच विकसित करें ..


                     समय समय पर हमें चेतावनियाँ मिलती रहती हैं ... पर जब हमारे विचार अधिक भावुक होकर वास्तिविकता को नहीं देखना चाहते तब तब हम उन्हें सिरे से नकार देते हैं ... पर जब जब हम असफलता के शिकार होते तब तब अगर हम पुनर्विचार करें तो आगे हमें उचित अनुचित का निर्णय लेने में मदद ही मिलती हैं ... देखें जरा इस विडियो को क्लिक करके ... और सोचें अन्नाजी के आन्दोलनों की शुरुआत में यह सब हमें बकवास लगती थी ... पर अब शायद ठीक लगे उनकी बात ... क्योंकि तब हम भावनाओं के तीव्र बहाव में बस बहना चाहते थे .. रुक कर भले बुरे पर विचार कर सकें इस  मानसिकता से कोसों दूर थे तब ..


                    खैर ... "  जब जागे - तब सवेरा ..." अब तक आन्दोलनों को खेल बना कर निराशा की धुल को खूब फर्श से लेकर अर्श तक उछाला ... अब आगे समय यह समय हो   "  ... भारतीयता के सही मायनों ... " किसी पर भार ना बनना  और सद्भाव तथा सौजन्यता के भारहीन भार से भर-भर उठाना ..."  के महत्त्व को खूब उजागर करें ... आन्दोलन - आन्दोलन के खेल अब बहुत हुए ... औरअब तक यह भी जान गए हैं ... आन्दोलनों में घेराव और अनसन के दुरुपयोग जो की सस्ती लोकप्रियता और उकसावे से अधिक नहीं हैं और जिन्हें म. गाँधी जी एक जंगलीपन से ज्यादा  कभी नहीं माना ... 


                   आओ पुनर्विचार और स्वयं अध्ययनशील होने के विकल्प पर हम फिर से चल पड़े ... सबके भले के लिए ... सबके कल्याण  के लिए !!