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गुरुवार, 7 जुलाई 2011

फिर छाया उजियारा ...


फिर छाया उजियारा ...
               विपश्यना ध्यान साधना सार्वजनीन है, सर्वकालिक है, सार्वदेशिक है, सबके अपनाने योग्य है, अशुफल्दायी है, आओ करके देखने योग्य है /  इस बात का प्रमाण यह भी है की आज विश्व में विपश्यना का उजियारा  १२२  केन्द्रों से फैल रहा है /  भारत में ५५ तथा  शेष विश्व के २५ देशों ( टर्की, स्वीडन, फ़्रांस, बेल्जियम, ब्रिटेन, स्पेन, स्विटजरलैंड, जर्मन, इटली, युक्रेन, रूस, इरान, इसराइल, कनाडा, हाँगकांग, कम्बोडिया, नेपाल, म्यांमा, जापान, मंगोलिया, मलेशिया, श्रीलंका, ताईवान, थाईलेंड और अमेरिका ) में  इसके  ६७ केंद्र है /  सभी धर्मों के लोग इसे सफलता पूर्वक अपना रहे है /  विपश्यना साधना धर्म परिवर्तन को नहीं बल्कि मन की शुद्धि को महत्व देती है ..हिन्दू अच्छा हिन्दू , बौद्ध अच्छा बौद्ध, मुस्लिम अच्छा मुस्लिम, ईसाई अच्छा ईसाई और जैन अच्छा  जैन बने और ऐसा होने में विपश्यना उसकी बड़ी मदद करती है /

               जब कोई व्यक्ति इसकी तपोभूमियों पर जाता है, तो पाता है कि ये सब के लिए खुली हैं /  यह अनमोल विद्या बिना किसी मोल के सिखाई जाती है, पुराने विपश्यी साधकों के उदार चित्त से दिए दान पर ये शिविर चलते है /  वहां शील सदाचार का जीवन जीते हुए,  मन को वश में करते हुए,  मन को सुधारने का अभ्यास करना सिखाया जाता है /  मन की अशुद्धता ही हमारे दुख्खो का एक मात्र कारण है,  शुद्ध होता हुआ मन हमारी कितनी सहायता करने लगता है, हमारा मित्रवत मार्गदर्शन करने लगता है,  धीरे धीरे यह उसकी समझ में आने लगता है /  मन को वश में करने के लिए जो आलंबन दिया जाता है वह भी सार्वजनीन है हमारा अपना साँस... इस आलम्बन के सहारे मन हौले -हौले एकाग्र होने लगता है /

साँस देखते- देखते,         सत्य प्रगटता जाय  /
सत्य देखते- देखते , परम  सत्य दिख जाय //

                      प्रथम तीन दिन उसे मन को वश में करना सीखना होता है, बेकाबू मन, चंचल मन किस कदर यहाँ-वहाँ भागता रहता है और यह दौड़-भाग उसे कितना थका देती है / यह बात अब उसके अनुभव पर उतरने लगती है, अनुभूतिजन्य ज्ञान अब उसका अपना ज्ञान बनने लगता है /

वाणी तो वश में भली,   वश में भला शरीर  /
पर जो मन वश में करें , वही शुर वही वीर //

                   चौथे दिन और उसके बाद नौवें दिन तक साधक कदम दर कदम बढ़ते हुए मन को निर्मल बनाने कि साधना " विपश्यना " का सक्रिय अभ्यास करने लगता  है..वश में आया मन अब उसके अनुसार काम करता  है /  इससे पहले तो मन उसे नचाता था, अब साधक के कहे अनुसार मन से मन को सुधारने के काम की शुरुआत हो  जाती  है /  साधक के द्वारा लगातार अभ्यास के क्रम से उसकी प्रज्ञा जाग्रत होने लगती है, प्रज्ञा यानि प्रत्यक्ष ज्ञान, वह ज्ञान जो हमारी अपनी अनुभूति पर जागा  हो, पढ़ा-पढाया या सुना-सुनाया नहीं /

शीलवान के ध्यान से,     प्रज्ञा जाग्रत होय /
अंतर  की गांठे खुले, मानस  निर्मल होय //

                      नौं दिनों तक साधना करता हुआ साधक का मन की निर्मलता को महसूस करने लगता है, पहली बार वह जनता है कि मन के विकारों का कितना बड़ा बोझ लिए वह चल रहा था, उसे हल्कापन महसूस होता है /  निर्मल होता मन  अपने सहज गुण -धर्म प्रगट करने लगता है, अब तक उसे मैं-मेरे के संकुचित दायरे से धीरे-धीरे बाहर निकलने का रास्ता हाथ लग गया होता है /  उसे अनुभूति द्वारा यह बात समझ में आने लगती है कि उसका विकारों से ग्रसित मन ही उसके दुक्खों का असल कारण है.. मन के मैल उसने ही चढ़ाये है तो उन्हें साफ करने कि जवाबदेही  भी उसकी अपनी ही बनती है / 

धन्य भाग साबुन मिली, निर्मल पाया नीर /
मैल चित्त का धोइहैं,   निर्मल मिलिहैं नीर //

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