सबकी छोडो जिसने अपने घर , अपने परिवेश या कहीं भी जब भी कुछ लुटा है ... बुरे कर्मों के दुष्फल उसे मिले हैं .... और मिल रहे हैं .... और मिलेंगे .... करनी के फल टल नहीं सकते .... और इसी को होनी कहते हैं
हमें जब फल मिलते हैं ....तब उनकी ओर ध्यान रहे की निश्चय ही हमारे पूर्व कर्मों के फल हैं ....अगर हम यूँ नहीं करते तो ... हम एक तरह से कर्म के नियम की अनदेखी करते हैं .... और हमारे मन में वर्तमान फलों के प्रति अनजाने में ढेर सारा द्वेष भरकर जाने-अनजाने फिर बार-बार द्वेष के बीज बोते ही जाते हैं ... रुकते नहीं ... और धीरे धीरे यह आदत बन जाती हैं
अब भविष्य में फिर कैसे फल मिलेंगे ... यह फिर किसी से छुपा नहीं रहता .
द्वेष में डूबा मानव , मन ही मन कहीं ना कहीं अपने भविष्य के प्रति आशंकित हो उठता हैं ... और फिर मन में सद्भाव जगाने की जगह गलती से फिर द्वेष के बीज बोता जाता हैं ... यूँ सिलसिला ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता ... और वैसे फल आयेंगे ही जैसे कर्म किये थे ... अतः दुनिया का सर्वश्रेष्ट ज्ञान हासिल होते हुए भी उसका अनुपालन नहीं कर सकने के कारण दुखों से घिरा रहता हैं ... कोरा ज्ञान काम नहीं आता .
कहने का आशय हैं ... इस तरह से मानव स्वस्थ प्रतिस्पर्धा से विमुख होकर अपनी उर्जा की बड़ी मात्रा द्वेष दूषित कार्यों में लगाता हैं ... और उम्मीद करता हैं की सुफल क्यूँ नहीं आते ? ... और अपने आसपास किसी में उसके सद्कर्मों के सुफल आते देख इर्ष्या की जलन के बीज बोता हैं , और यूँ इस तरह निंदा कर्म करने वालों के समूह से अनायास ही समरस होता जाता हैं ... यूँ अपने आस पास द्वेष दूषित लोगों के समूह में बढोतरी होते देख उस पर ही गर्व करने लगता हैं ... फिर अंत कहाँ भाई ... जैसे कर्म वैसे फल उस समूह को भी मिलते ही हैं ... इतिहास गवाह हैं ... फिर भी कर्मों के सिद्धांत को ऊपर-ऊपर से मनाता तो हैं ... पर उसका पालन नहीं करता ... और अपने सिद्धांतो पर नाज ज़माने भर का करता हैं ... पर अमल नहीं करने से स्वयं भी दुखी-संतापित होता रहता हैं ... और जो उसके पास होता हैं ... वहीँ दूसरों में भी बांटता रहता हैं ... यूँ दुखों का दुश्चक्र उसका पीछा नहीं छोड़ता जिस तरह से गाड़ी में जुते बैल की तरह गाड़ी उसका पीछा नहीं छोडती ...
इसके विपरीत याने सद्भाव मन में जगाता हुआ व्यक्ति सद्भावना के फलों से सराबोर रहता हैं ... अपने पूर्व के सद्भावना के फलों के कारण वह प्रकाश में जन्म लेता हैं ... और प्रकाश की ओर ही आगे बढ़ता हैं ... ज्यूँ हमारी परछाई हमारे साथ -साथ चलती हैं .... सद्भावना के फल भी इसी तरह साथ हो जाते हैं ...
किसी व्यक्ति का कोई नाम हो , वह कहीं भी जन्मा हो , हमें यूँ लगता है की उसके नाम से या उसके जन्म लेने की स्थिति से वह अकारण ही जरुरत से ज्यादा पा रहा हैं ... पर ऐसा नहीं होता ... कर्मों के फल यथोचित ही मिलते हैं ना कम ना ज्यादा ...
यही कारण है की कोई नाम हो , कहीं जन्मा हो ....चाहे सुन्दर और लोकप्रिय नाम हो या हो उन्नत परिवार की माँ की कोख ..... या हो असुंदर और अलोकप्रिय नाम या हो या हो अकिंचन माँ की कोख कोई फर्क नहीं पड़ता ....
गांधीजी के जन्म से कहीं नहीं लगता था की सोने का चम्मच लेकर पैदा हुए थे ... पर अपने पूर्व संचित प्रकाश के कर्मों की वजह से और इस जन्म में भी प्रकाश के ही कर्म करते हुए उन्हौने वह स्थिति हासिल की ही जहाँ से जमाना उसने आज भी मार्गदर्शन लेता हैं ...
और किसी-किसी ने अपने पूर्व कर्मों की वजह से भली और कुशल स्थितियों में जन्म लेकर आगे और उन्नति की ही हैं ... जैसे नेहरूजी ... जिनकी भूरी भूरी प्रसंशा हमारे अटल जी भी करते ही रहे हैं ... और स्वयं अटल जी भी एक उदाहरण हैं की किसी तरह विपरीत परिस्थितियों में भी उनके कर्मों के फलों के फलस्वरूप वे उंचाईयों को हासिल हुए ...
दुनियां में चार तरह के लोग होते हैं
1) वे लोग जो वर्तमान में अन्धकार में हैं पर अपने कर्म यूँ कर रहे है की प्रकाश की ओर बढ़ते जा रहे हैं
2) वे लोग जो वर्तमान में अन्धकार में हैं पर अपने कर्म यूँ कर रहे है की फिर अन्धकार की ओर बढ़ते जा रहे हैं
3) वे लोग जो वर्तमान में प्रकाश में हैं पर अपने कर्म यूँ कर रहे है की फिर अन्धकार की ओर बढ़ते जा रहे हैं
4) वे लोग जो वर्तमान में प्रकाश में हैं पर अपने कर्म यूँ कर रहे है की फिर प्रकाश की ओर बढ़ते जा रहे हैं
हम अपनी स्थिति चुने अपने मालिक आप बने
भगवत गीता जी को केवल माने ही नहीं उस पर अमल तो करें ... केवल मानने से कभी किसी को आज तक कुछ भी हासिल नहीं हुआ .... भला हो